धोती पहुँच गयी रंगून
रंगून को अब य॔गून कहा जाने लगा है । बचपन में मैं कलकत्ता को हीं रंगून समझता था । बाद में पता चला कि कलकत्ता से रंगून 1038 किलोमीटर दूर है । यह वही रंगून है जो कभी बर्मा की राजधानी था । आजकल बर्मा को म्यांमार कहा जाने लगा है । इसलिए यह अब म्यांमार की राजधानी है । रंगून के जेल में बादशाह बहादुर शाह जफर को कैद करके रखा हुआ था । बहादुर शाह जफर का अंतिम दिन बहुत बुरे बीते ।उनको फालिज मार गया था । वे खाना नहीं खा पा रहे थे । जब उनकी मौत हो गयी तो अंग्रेजों ने उनकी लाश उनकी कोठरी के पीछे दफना दिया। उनकी कब्र की कोई निशानी न रहे , इसके लिए अंग्रेजों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । कभी जफर साहब ने हीं लिखा था - इतना बदनसीब है जफर दफन के लिए दो गज जमीन न मिली कु ए यार में इसी रंगून में शरतचंद चट्टोपाध्याय कभी रेलवे की आडिट विभाग में नौकरी करते थे । इसी नौकरी के दौरान उनके दिमाग में " चरित्रहीन " का बीजारोपण हुआ था । चरित्रहीन उनका कालजयी उपन्यास था । शरतचंद की जीवनी "आवारा मसीहा' लिखने वाले विष्णु प्रभाकर ने रंगून की कई यात्राएँ की थीं । आश्चर्