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धोती पहुँच गयी रंगून

 रंगून को अब य॔गून कहा जाने लगा है । बचपन में मैं  कलकत्ता को हीं रंगून समझता था । बाद में पता चला कि कलकत्ता से रंगून 1038 किलोमीटर दूर है । यह वही रंगून है जो कभी बर्मा की राजधानी था । आजकल बर्मा को म्यांमार कहा जाने लगा है । इसलिए यह अब म्यांमार की राजधानी है । रंगून के जेल में बादशाह बहादुर शाह जफर को कैद करके रखा हुआ था । बहादुर शाह जफर का अंतिम दिन बहुत बुरे बीते ।उनको फालिज मार गया था । वे खाना नहीं खा पा रहे थे । जब उनकी मौत हो गयी तो अंग्रेजों ने उनकी लाश उनकी कोठरी के पीछे दफना दिया। उनकी कब्र की कोई निशानी न रहे , इसके लिए अंग्रेजों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । कभी जफर साहब ने हीं लिखा था - इतना बदनसीब है जफर दफन के लिए                                  दो गज जमीन न मिली कु ए यार  में  इसी रंगून में शरतचंद चट्टोपाध्याय कभी रेलवे की आडिट विभाग में नौकरी करते थे । इसी नौकरी के दौरान उनके दिमाग में  " चरित्रहीन " का बीजारोपण हुआ था । चरित्रहीन उनका कालजयी उपन्यास था । शरतचंद की जीवनी "आवारा मसीहा' लिखने वाले विष्णु प्रभाकर ने रंगून की कई यात्राएँ की थीं । आश्चर्

यूरोप में अब अमन चैन है

 50 देश हैं यूरोपीय महाद्वीप में । आबादी में  एशिया,  अफ्रीका के बाद यूरोप महाद्वीप का स्थान है । यूरोप और एशिया को मिलाकर एक नया नाम गढ़ा गया है यूरेशिया । यूरोप और एशिया की सीमा रेखा यूराल पर्वत और काकेशस की पर्वत श्रृंखलाओं से बनती है । वैसे बहुत हद तक यूरोप की सीमा काल्पनिक है । इस महाद्वीप का भौगोलिक आकार इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित है ।  ब्रिटेन,  आयरलैंड व आइस लैण्ड तीनों स्वतंत्र द्वीप हैं,  पर सास्कृतिक व ऐतिहासिक कारणों से ये यूरोप महाद्वीप के अंतर्गत आते हैं । सांस्कृतिक दृष्टिकोण से रुस यूरोप का हिस्सा है ,  पर इसका अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है।  पूरा साइबेरिया एशिया का हिस्सा है । आबादी के लिहाज से रुस सबसे बड़ा देश है तो वेटिकन नगर सबसे छोटा देश । पश्चिमी संस्कृति का जन्म यूरोप के यूनान से हुआ है । दुनियां में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत यूरोप से हीं हुई है । साहित्य,  कला और संस्कृति  के क्षेत्र में भी यूरोप इस दुनियां के सभी महाद्वीपों  से आगे है । यूरोप के लोग ज्यादातर वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करतें हैं । व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोक तंत्र और उदारता

तकली और चरखा के गीत

 तकली रानी तकली रानी                                                     नाच रही कैसी मनमानी                                                       गुनगुन गुनगुन गीत सुनाती                                                  सूतों का ये ढेर लगाती  तकली से सूत काता जाता था । हम प्राइमरी कक्षाओं में अपने घर से तकली और रुई की पीयूनी लेकर जाते थे । तकली से सूत कातते । साथ में तकली के गीत भी गाते । सूत कातने के बाद उन सूतों का निरीक्षण किया जाता । जो सूत सबसे पतला होता उसे सबको दिखाया जाता । उम्दा सूत कातने वाले बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता था ।  तकली से सूत कातने का प्रशिक्षण दिया जाता था । बड़े पैमाने पर सूत कातने के लिए चरखा उपयोग में लाया जाता था । घर की औरतें हर काम में प्रवीण होतीं थीं । वे चरखा से लेकर  चक्की ( जांत ) तक चलातीं थीं । इसलिए गाँव घरों में एक कहावत आम हो चली थी - उठो बहू अब सांस लो                                                          चरखा छोड़ो जांत लो चरखा के ढांचे में भी परिवर्तन हुआ । एक नयी तकनीक वाला चरखा आया । इसे अम्बर चरखा कहा गया । इस चरखे को चलाने के लिए गांध

मुगल शाहजादियों की व्यथा

 मुगल बादशाह बाबर भारत आया और वह यहीं का होकर रह गया । वह केवल 4 साल हीं यहाँ शासन कर पाया । उसका बेटा हूमायूं ताजिंदगी शेर शाह सूरी से लड़ता रहा । उसके भाई कामरान ने भी उसका जीना मुहाल कर रखा था । उसका बेटा अकबर अभी छोटा था । हूमायूं भी असमय हीं चल बसा । ऐसे में वह अपनी कोई भी जिम्मेदारी नहीं निभा पाया । केवल अपनी एक हीं  बेटी की हीं शादी कर पाया था । मुगल वंश की शाहजादियों की यह पहली और अंतिम शादी नहीं थी । अकबर ने भी अपनी एक सौतेली बहन की शादी की थी । उसका जीजा अजमेर के हाकिम थे । उनका नाम शरीफुद्दीन था । यॆ वही सरीफुद्दीन थे जिन्होंने एक बार अकबर पर जानलेवा हमला किया था । इस हमले से अकबर खिन्न हो गया । उसने उसके बाद किसी भी शाहजादी का विवाह नहीं होने दिया । आने वाले समय में सभी बादशाहों ने इस परम्परा का निर्वाह किया था । हूमायूं की बहन गुल बदन,  अकबर की तीन बेटियाँ , शाहजहाँ की बेटियां जहाँआरा और रोशन आरा और औरंगजेब की बेटी मेहरुन्निशां की भी शादी नहीं हुई थी । इनकी देखा देखी मुगल वंश के सारे रिश्ते व नातेदारों ने अपनी अपनी बेटियों की शादी नहीं की । हाँलाकि अकबर ने कुछ रायपूत कन्याओ

एक अनाम औरत

 मीता वशिष्ठ एक अच्छे स्कूल की प्रिंसिपल थी । उसका असली नाम क्या था ? किसी को पता नहीं । राजेन्द्र यादव ने अपनी आत्म कथा में यही लिखा है । उन्होंने उसकी बहुत सी खूबियों को उकेरा है , जिनमें से एक खूबी यह थी कि वह महात्मा गाँधी की तरह दोनों हाथों से लिखती थी । वह राजेन्द्र यादव की शायद वह पहली मोहब्बत थी । प्यार तो उन्होंने मन्नू से भी किया था और उससे शादी भी की थी , पर मीता को वे कभी नहीं भूल पाए । शादी की पहली रात हीं राजेन्द्र ने " गरि न जीभ मुँह परेउ न कीरा " की तर्ज पर मीता के बारे में सब उगल दिया था । उस मन्नू के सामने जिसने राजेन्द्र यादव से शादी करने के लिए अपने घर से विद्रोह किया था । मन्नू के लिए यह सब सुनना कितना त्रासद रहा होगा । यही नहीं राजेन्द्र शादी के बाद कुछ मन्नू के पैसे और कुछ अपने पैसे जोड़ जाड़कर मीता के साथ टूर पर भी चले गये थे । मन्नू और मीता के बीच राजेन्द्र पेण्डुलम की भांति झूलते रहे थे।एक बार वे जब मीता से मिलकर वापस आए तो उन्होंने कहा था - पता नहीं क्यों जब मैं तुम्हारे पास रहता हूँ तो लगता है कि जीवन का यही सच है और जब मीता के पास जाता हूँ तो लगता ह

बीच की अंगुली दिखाना

 कुछ दिन पहले टी वी पर एक डिवेट देखा था । तबलीकी जमात के प्रवक्ता शोएब जमई ने अपने प्रतिद्वंद्वी की किसी बात से नाराज होकर उसे बीच की अंगुली दिखा दी थी  । उल्टी हथेली कर बीच की अंगुली दिखाना एक तरह से गाली देने के बराबर माना जाता है । किसी ने आपको कोई अमर्यादित बात कही और आपने बदले में उल्टी हथेली कर बीच की अंगुली दिखा दी तो मामला बराबर हो जाता है , बल्कि इससे दूसरा पक्ष तिलमिला उठता है । उसका यह कृत्य दुष्कर्म करने जैसा है । जब ग्रेग चैपल भारतीय क्रिकेट टीम के कोच थे तो उन्होंने  पत्रकारों को बीच की अंगुली दिखाई थी । इस बात पर काफी हो होल्ला हुआ । बाद में ग्रेग चैपल ने कहा था कि उनकी बीच की अंगुली में चोट लगी थी । वे परेशान थे । इसलिए उन्होंने अपनी उस अंगुली को बस की खिड़की से बाहर निकाला था ।इसके पीछे उनका कोई गलत मंतव्य नहीं था । फिल्मों में भी धड़ल्ले से बीच की अंगुली दिखाने का रिवाज चल रहा है । " नो वन किल्ड जेसिका " और " राक स्टार" में भी रानी मुखर्जी और रणवीर कपूर ने बीच वाली अंगुली दिखाई थी । सोनम कपूर भी किसी फिल्म में बीच की अंगुली दिखा कर इस जमात में शामिल

गढ़वाल विश्वविद्यालय का माइग्रेशन सर्टिफिकेट

 उत्तरकाशी से मेरा स्थानांतरण शिक्षा सत्र के मध्य में हीं हो गया थ । उस समय मेरे दो लड़के उत्तरकाशी डिग्री कालेज से बी एस सी कर रहे थे । उन लोगों ने बी एस सी ( द्वीतिय वर्ष )की परीक्षा दे रखी थी । अब तृतीय वर्ष में एडमिशन होना था । ऐसी हालत में सोचा गया कि हम पहले चण्डीगढ़ चलें  , फिर तय करेंगे कि आगे क्या करना है । वैसे भी हम कन्फर्म नहीं थे कि इनका एडमिशन तृतीय वर्ष में पंजाब विश्वविद्यालय में हो हीं जाएगा  । चण्डीगढ़ आकर पता चला कि एडमिशन हो जाएगा बशर्ते कि इनके मार्क्स 60% से ऊपर हों । सौभाग्य से इनके प्रतिशत बहुत अच्छे थे । एडमिशन हो गया । तीसरा बेटा केंद्रीय विद्यालय में था । उसके एडमिशन में कोई अड़चन नहीं थी । अब गढ़वाल विश्वविद्यालय से केवल माइग्रेशन सर्टिफिकेट लाना शेष रह गया था । हम फिर कमर कसकर तैयार हुए । बंटी और बटुक  ( घर का नाम) के साथ मैं चला । वह अप्रैल 1997 का कोई दिन रहा होगा । शाम को हम ऋषिकेश पहुँचे । वहाँ से श्रीनगर  ( गढ़वाल) के लिए टैक्सी पकड़ी । अंधेरा गहरा होता जा रहा था । केवल सड़क नजर आ रही थी । खाई हमारे दाहिने थी । बायीं तरफ पहाड़ था । टैक्सी की रोशनी में यदा क

मूर्खता की स्तुति

 इरास्मस एक धर्म शास्त्री थे । वे बाइबिल के ज्ञाता और एक व्याख्याकार थे । साथ हीं वे मूर्खता के उपासक भी थे । उन्होंने मूर्खता पर एक किताब भी लिखी थी । उनकी किताब का नाम था " मूर्खता की प्रशंसा में " । इस किताब में मोरिया का जिक्र आता है । वह मूर्खता की देवी है । सौंदर्य की देवी " वीनस " का नाम तो आपने सुना होगा । अब जाकर मूर्खता की देवी से भी आपका वास्ता पड़ गया । इस किताब में इरास्मस कहते हैं-  " समय के साथ बेवकूफ बनने का नाटक करना सीखें । आप सभी की तुलना में समझदार होंगे । " ऐसा हीं नाटक एक महान विद्वान के पुत्र ने किया था । वह गाँव में रहता था । वह जब भी ग्राम प्रधान के घर के सामने से गुजरता था , उसे प्रधान अपने पास बुला लेता । प्रधान अपनी दोनों हथेलियों पर एक एक सिक्का रखता था । एक सिक्का सोने का तो दूसरा चांदी का होता था । वह विद्वान पुत्र से कहता इनमें से जो सिक्का महंगा हो वह उठा ले । लड़का हर बार चांदी का सिक्का उठाता । ऐसे में प्रधान और उसके पास बैठे लोग  हंसते । वे कहते - " देखो,  एक विद्वान पुत्र को सोने चांदी की समझ नहीं है ।" विद्वान

संयुक्त परिवार का मुखिया

 पहले के संयुक्त परिवार में काका चाचा ताऊ सबका परिवार होता था । कई पीढ़ियों से इनका एकीकरण चला आ रहा होता था । ये परिवार त्याग व एकजुट संघर्ष पर चलते थे । सबसे यथाशक्य प्रतिदान लिया जाता था । यदि कोई प्रतिदान देने में सक्षम नहीं है तो उससे प्रतिदान नहीं लिया जाता था । उल्टे उसकी मदद की जाती थी । परिवार का एक मुखिया होता था । इस मुखिया की हर कोई बात मानता था । वह परिवार का सुप्रीमो होता था । उसका कहा पत्थर की लकीर होती थी । वैसे हमारे यहाँ मुखिया को लतमरुआ कहा जाता था । मुखिया की तुलना घर के चौखट से होती थी । चौखट का मतलब दहलीज । दहलीज पर पाँव रखकर सभी आते जाते हैं । वह सभी के लात सहन करता है ।इसलिए परिवार के मुखिया को लतमरुआ कहा जाता है ।  परिवार के मुखिया में गजब की सहन शक्ति होती थी । वह सबकी सुनता था । सब उसको सुनाते थे । वह सबके सुख सुविधा का ख्याल रखता था । उसके भरोसे आप अपने बच्चों को छोड़कर कहीं भी चलें जाएँ,  वह आपके बच्चों के पढ़ाई लिखाई,  खाने पीने व कपड़े लत्ते से लेकर उनकी हर सुख सुविधा का ख्याल रखता था । परिवार का मुखिया परिवार के बच्चों को मिल बाँट कर खाने और मिल बहोरकर रहन

दहकता साल वन

 साधना मिश्रा की कविताओं का संकलन " दहकता साल वन "आज हीं पढ़कर समाप्त किया है । शुक्रिया साधना जी ! इतनी सुंदर कविताएँ लिखने के लिए । इनकी हर कविता का एक अलग रंग है , जिसमें कई अनदेखे व अनसुलझे दृश्य नजर आते हैं । इनकी कविता में हमारे होने की आवाज है , जो हमें निरंतर पुनर्नवा करती रहती है । कई अनुत्तरित प्रश्न है , जिसका जवाब वे पिनाकी के माध्यम से ढूंढती हैं । एक जगह वे लिखती हैं-   कहो पिनाकी                                                                कहाँ भटक रहे हो तुम                                                    रण  में या अरण्य में                                                         या छुपे हुए सृष्टि के                                                        छोटे छोटे से कण में । इनकी कविताएँ पेण्टिंग सरीखीं हैं,  जो अपने लालित्य से भरपूर हैं । इनसे एक अनुनाद गूंजता है । एक अनोखी संगीत प्रस्फुटित होती है । संगीत का यह स्वाद गूंगे का गुड़ जैसे है , जिसका स्वाद तो लिया जा सकता है ; लेकिन बताया नहीं जा सकता । हांलाकि इनकी कविताओं में  कोई सिग्नेचर स्टाइल नहीं उ

दो पाटन के बीच में फंसी जिंदगी

 राकेश की ट्रेन रतलाम की तरफ भागी जा रही थी । ट्रेन की झझकाली के साथ उसके दिमाग में भी झंझावात चल रहे थे ।ऐसा नहीं है कि वह पहली बार अपनी माँ से मिलने जा रहा था ।वह पहले भी उससे दो तीन बार मिलने रतलाम जा चुका है । किंतु इस बार किसी विशेष प्रयोजन से मिलने जा रहा है । अबकी बार उसके पिता ने भेजा है । वह जब भी अपनी माँ से मिलने गया है , माँ को असहज हीं पाया है । दोनों बहने प्रायः उससे सहज हीं मिलीं हैं । माँ के दूसरे पति का चेहरा सीधा सपाट व भाव शून्य रहता था । राकेश हीं ऐसा था जो खुले दिल का था और माँ से मिलने चला जाता था । एक दिन अकेले में माँ ने उससे कहा था कि वह उसे माँ नहीं मौसी कहा करे । माँ कहने से आस पड़ोस में गलत संदेश जाएगा । माँ ने अड़ोस पड़ोस में कह रखा था कि राकेश उसकी बहन का लड़का है और उससे बहुत हिला रखने के कारण उसे माँ कहता है । तब से उसने माँ से मिलने जाना छोड़ दिया था । ऐसी माँ से मिलने से क्या फायदा जिसे माँ कहलवाने में शर्मिंदगी महसूस हो । आज पिता का कहना वह टाल नहीं पाया  । इसमें उसका भी स्वार्थ था । वह माँ से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था ।  उसकी माँ का उसके पिता से

एक थी चौबाइन

मेरे घर के पीछे पद्मदेव पाण्डेय का मकान था . पद्मदेव पाण्डेय उस जमाने में गाँव के एक मात्र पढ़े लिखे व्यक्ति थे . वह भी Bsc , MA , L.L.B . मेरी माँ और उनकी पत्नी का आपस में बहनापा था .  बहनापा इस बात से कि दोनोंका मायका आस पास के गाँवों में था . ये दोनों गाँव एक हीं पिता की दो सन्तानों के नाम पर बसे हुए थे . सन्तानों के नाम थे - कृपाल उपाध्याय और बबुआ उपाध्याय और गाँव के नाम थे - कृपाल पुर व बबुआ पुर . इस नाते पद्म देव पाण्डेय और उनकी पत्नी हमारे मौसा मौसी हुए . मेरे घर से एक घर छोड़कर चौबे जी का मकान था . पति पत्नी रहते थे . कोई सन्तान नहीं थी . दोनों " हरि इच्छा बलियसि " मानकर अपना वक़्त गुजार रहे थे . तभी उनके जीवन में भूचाल आया . हुआ यह कि चौबे जी ने पद्मदेव पाण्डेय (हमारे मौसा ) के घर एक लौकी भिजवा दी . चौबाइन का उस घर की औरतों से कुछ दिनों से अबोलापन था . चौबे जी को पता नहीं था . अब क्या था ! चौबाइन ने पूरे घर में कोहराम मचा दी . मेरी लौकी तुमने क्यों दी ? चौबे जी बेचारे हैरान व परेशान ! क्या करें ! जब यह बात हमारे मौसा के घर वालों को पता चली तो उन लोगों ने अपने घर से एक द

कुरआन का सबसे अफजल किस्सा

 युसुफ कुल जमा 11 भाई थे , जिनमें से एक उनका सगा भाई भी था । सगे भाई का नाम बन्या बैन था । युसुफ को ख्वाब की ताबीर का पता होता था । इसलिए वे अपने वालिद के सबसे चहेते बेटे थे । यह सब देख सुनकर युसुफ के दूसरे भाई उनसे जलने लगे । उन लोगों ने युसुफ को खत्म करने की योजना बनाई । वे युसुफ को घने जंगल में ले गये , जहाँ उन्होंने उनको एक कुंए में धक्का दे दिया । युसुफ के भाई उनको रोजाना देखने आते ।  कुएँ में भूखे प्यासे पड़े युसुफ को देखते और लौट जाते । तीसरे दिन जब वे आए तो उन्होंने देखा कि युसुफ कुएँ से बाहर आ गये हैं । उन्हें एक काफिले वालों ने बाहर निकाला था । वे प्यासे थे । जब उन्होंने कुएँ में पानी निकालने के लिए बाल्टी डाली तो युसुफ ने बाल्टी पकड़ ली थी । काफिले वालों ने उन्हें बाल्टी और रस्सी के सहारे बाहर निकाला था । वे युसुफ को अपने साथ ले जा रहे थे । युसुफ के भाइयों ने उन्हें रोका । भाइयों ने कहा कि युसुफ उनका खरीदा हुआ गुलाम है । इसे उन्होंने 20 दिरहम में खरीदा है । काफिले वालों ने उन्हें 20 दिरहम दिया और युसुफ को अपने साथ ले गये । भाइयों ने युसुफ के सगे भाई बन्या बैन को डरा धमकाकर चुप

खिचड़ी

 मकर संक्रांति को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है । खिचड़ी के नाम पर मेला भी लगता है । खिचड़ी एक सुपाच्य भोजन है । रात को खाने पर अच्छी नींद आती है । आजकल  सोशल मीडिया पर भी अच्छी खिचड़ी पक रही है । समान विचारधारा वाले लोग मिल जुलकर खूब ऊधम मचा रहे हैं । गल्ती से कोई असमान विचारधारा का कोई प्राणी भटकता हुआ उनके बीच जा फंसता है तो उसकी शामत आ जाती है । कुछ को हमने दुम दबाकर भागते हुए देखा है । कुछेक को ताल ठोंककर उनसे लड़ते भिड़ते हुए भी देखा है । बीवी जब रुठकर मायके चली जाती है तो पति बेचारा इसी खिचड़ी के सहारे जीता है । इसी खिचड़ी के सहारे वह बीमार  पत्नी की तीमारदारी करता है । वह एड़ी चोटी के जोर पर खिचड़ी पकाता है । पत्नी को खिलाता है । खुद खाता है और बच्चों को भी खिलाता है । ऐसा पति पत्नी की आंखों का तारा बन जाता है । भगवान यह इल्म सभी पतियों को दें । खिचड़ी के चार यार हैं-  दही,  पापड़, घी और अचार । मकर संक्रांति वाले दिन ये चारों यार हम जैसों को मिल जाते हैं , वरना और दिन तो केवल तीन हीं मिल पाते हैं । घी खाना तो सपने देखने के बराबर है । ऐसा सुना है कि घी से केवल कोलोस्ट्रोल हीं नहीं  बढ़ता

आया लोहड़ी का त्यौहार ।

लोहड़ी वस्तुतः पंजाब व हरियाणा का त्यौहार है , लेकिन यह दिल्ली, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी मनाया जाता है । आजकल यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बंगाल और उड़ीसा में भी मनाया जाने लगा है ।  यह मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को मनाया जाता है । रात को खुले में आग जलाई जाती है । लोग आग के चारों ओर घेरा बनाकर नाचते हैं । खुशी मनाते हैं । रेवड़ी,  गजक और मूंगफली खाते हैं । कुछ अग्नि देवता को भी खिलाते हैं । इस दिन के बाद से सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर जाता है । सूर्य दक्षियाण से उत्तरायण में आता है । आज का दिन पौष मास का अंतिम दिन होता है । लोहड़ी तीन अक्षरों से बना है । ल+ ओहा + ड़ी । ल से लकड़ी । ओहा से सूखे उपले ( गोहा ) । ड़ी से रेवड़ी । यह दिन शीत के जाने और बसंत के आने का द्योतक है । आज के हीं दिन सती अपने पिता दक्ष प्रजापति के अग्नि कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति दी थी । दक्ष ने अपने दामाद शिव व पार्वती को अपने यज्ञ में नहीं बुलाया था । फिर भी पार्वती शिव के मना करने के बावजूद यज्ञ में शामिल  हुईं थीं । वहाँ उन्होंने शिव का अपमान देखा । यज्ञ में शिव का भाग न निकालने पर सती ने क्षुब्ध हो यज्ञ कुण्

काली कमली वाले का ट्रस्ट

वे काली कमली ओढ़ते थे । इसलिए  उनका नाम भक्तों ने काली कमली वाला रख दिया था । वैसै उनका असली नाम विशुद्धानंद था । उनका जन्म गुजरांवाला के कोंकणा गाँव में हुआ था । यह जगह आजकल के पाकिस्तान में है । एक बार विशुद्धानंद अपने परिवार के साथ हरिद्वार आए थे , जहाँ के आध्यात्मिक वातावरण में रहते हुए उनके मन में बैराग जगा । उन्होंने सन्यास लेने के बारे में सोचा । माता पिता से इजाजत मांगी । इजाजत नहीं मिली । परिवार के लोगों का कहना था कि शादी कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करो । वंशावलि बढ़ाओ । उसके बाद जीवन के चौथेपन में सन्यास धारण करने की सोचना । विशुद्धानंद नहीं माने । वे परिवार छोड़कर काशी चले गये । वहाँ स्वामी शंकरानंद से दीक्षा ली । गुरु से आज्ञा लेकर वे उत्तराखंड के चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े थे । उत्तराखंड की यात्रा पर स्वामी विशुद्धानंद ने देखा कि यहाँ  तीर्थ यात्रियों के लिए भोजन,  पानी,  चिकित्सा और आवास जैसे मूलभूत सुविधाओं का सर्वथा अभाव है । विशुद्धानंद तीर्थ यात्रियों के दुःख से द्रवित हो उठे । उन्होंने इनके लिए कुछ करने की ठान ली ।  उत्तराखंड की यात्रा के बाद स्वामी विशुद्धानंद ने

सर्द रातों में पसीने ।

 सर्द रात है । आप गहरी नींद सो रहे हैं । अचानक आपकी नींद खुलती है । आप पाते हैं कि आपका पूरा बदन पसीने में नहाया हुआ है । रजाई गीली है । बिस्तर गीला है ।आप सोच में पड़ जाते हैं । ऐसा हुआ तो कैसे हुआ ? इस तरह का वाकया यदि बार बार होने लगे तो समझिए कि आपको कोई गम्भीर बीमारी हो गयी है । आप टी बी के चपेट में आ गये हैं । टीबी के 45% मरीजों को रात में पसीना आता है । चाहे गर्मी हो या सर्दी ।  रजोनिवृति के कारण भी कुछ महिलाओं को रात में पसीना आता है । इसका एक कारण हार्मोन की गड़बड़ी भी है । कुछ पुरुषों में भी महिलाओं की तरह हीं मोनोपाॅज आता है । उनमें 50 साल के बाद कामेच्छा धीरे धीरे खतम होने लगती है । इस क्रिया को एंड्रोपाॅज कहते हैं । एंड्रोपाॅज की वजह से भी रात में पसीना आता है । स्तन कैंसर और प्रोस्टेट कैंसर से लड़ रहे 2/3 लोगों को भी रात में पसीने आते हैं । कैंसर की और किस्मों में भी पसीने आ सकते हैं जैसे - ल्यूकोमिया, लिंफोमा । एच आई वी पाॅजिटिव से ग्रस्त कुछ मरीज भी रात को पसीने की चपेट में आते हैं । स्लीप एपनिया की वजह से भी लोग रात में पसीने से नहा उठते हैं । जिन्हें अम्लता की बीमारी होती

दिल के मेहमां हो गये ।

 दिल के मेहमान भी अजीब होते हैं । एक बार आ गये तो जाने का नाम हीं नहीं लेते हैं । कुछ भी कहो , कुछ भी करो । वे टस से मस नहीं होते हैं । दिल में रहते हैं,  पर रहने का किराया नहीं देते हैं । ऐसे किराएदार को निकालने के लिए पुलिस दरोगा की भी मदद नहीं ली जा सकती । खुद अपनी इज्जत का सवाल जो है । पुलिस पूछ ताछ करेगी । कब आया ? कैसै आया ? क्यूँ आया ? यदि आप सोच रहें हैं कि दिल के मेहमान को दिल में बंदकर दरिया में चाबी फेंक देंगे तो वह तड़प उठेगा , दिल से बाहर आने की चिरौरी करेगा तो यह आपकी सरासर भूल होगी । उसकी ठसक और बढ़ जाएगी । वह मस्तमलंग हो नाच उठेगा और आपकी परेशानी का कोई ठौर ठिकाना नहीं रह जाएगा ।आपसे न रोते बनेगा न हंसते । इसी तरह की परेशानी कृष्ण की गोपियों को भी हुई थी । उनके दिल में उद्धव के ईश्वर को रखने के लिए कोई  जगह हीं नहीं बची थी । सारी जगह कृष्ण घेर चुके थे । ऐसे में निर्गुन ज्ञान बघार रहे उद्धव को टोकना पड़ा गोपियों को । उन्होंने उद्धव से कहा था - उद्धव मन न भए दस बीस ।                                          एक हुतो तो गये श्याम संग,  को आराधे ईश ।                      उद्धव

दिल का दिया जला

 मोहन राकेश नई कहानी विधा के महानायक थे । उनके साथ त्रिदेव में शामिल कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव भी उनके इस बर्चस्व को मानते थे । उनकी लिखी " मलवे का मालिक " , " जीनियस " , " मवाली " , " मंदी ", " उसकी रोटी ,"आर्द्रा" "सुहागिनें " " मिस पाॅल "और " सीमाएँ " आदि मील का पत्थर साबित हुई हैं । भारतेंदु हरिश्चंद्र और जय शंकर प्रसाद के बाद यदि किसी ने नाटक को रंगमंच तक पहुँचाया तो वे थे मोहन राकेश  । उनके लिखे " आषाढ़ का एक दिन " , "आधे अधूरे ", " लहरों के राजहंस" आदि नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन हुआ था ।वे अपने हर नाटक के रिहर्सल पर मौजूद रहते थे । उनको नाटक क्षेत्र में इस अप्रतिम योगदान के लिए 1968 में  " संगीत नाटक अकादमी " सम्मान प्रदान किया गया था ।  मोहन राकेश ने उपन्यास भी लिखे थे । उन्होंने " अंधेरे बंद कमरे" , " न आनेवाला कल " , " अंतराल " और " बकलम खुद"चार उपन्यास भी लिखे थे । उनकी लिखी कहानी " उसकी रोटी " पर फिल

आवारा हूँ ।

 आवारा फिल्म 1951 में रिलीज हुई थी । यूँ तो इसके सारे गीत बहुत मकबूल हुए थे , लेकिन " आवारा हूँ " गीत ने लोकप्रियता का इतिहास रचा था । जब यह फिल्म रुस में रिलीज हुई थी तो इसे बहुत कामयाबी मिली । मास्को में इस फिल्म का प्रिमीयर रखा गया था । राजकपूर से मिलने के लिए,  उनको छूने के लिए लोग दीवाने हुए जा रहे थे । लोगों ने उन्हें कंधों पर बिठा रखा था ।  " आवारा हूँ " गीत अनवरत बज रहा था । चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई जब मुंबई पहुँचे तो मुकेश ने उन्हें "आवारा हूँ " गीत सुनाया था । गीत सुनकर चाऊ एन लाई बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने मुकेश को एक बहुत सुंदर पेन गिफ्ट किया था । मुकेश ने उस पेन को जीवन पर्यंत अपने पास रखा । जब वह मरे तो उन्होंने वह पेन अपने पुत्र नीतिन मुकेश के लिए बतौर निशानी छोड़ गये थे । उम्मीद है कि वह पेन अब भी महफूज होगा । "आवारा हूँ " गीत केवल साम्यवादी देशों तक हीं सीमित नहीं रहा । यह गीत अफगानिस्तान,  तुर्कीस्तान,  ईरान , इराक,  जापान,  जर्मनी और अफ्रीकी देशों में भी बहुत लोकप्रिय हुआ था । 50 के दशक में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू रुस गय

कल मेरा जनम दिन था ।

कल सुबह दूध लेने दूकानदार के पास पहुंचा । दूकानदार ने हंस कर स्वागत किया । मुझे उसकी हंसी में कुछ कटाक्ष नजर आई । जैसे कह रहा हो  - आ गया एक साल और पुराना आदमी । जी हां ! एक साल और मैं पुराना हो गया । कल मुझे सुबह से शाम तक बधाई मिलती रही , एक साल और पुराने होने की । मैं भी मजे मजे में सबकी बधाईयां स्वीकार करता रहा । हंसता रहा । बदले में आभार लिखता रहा । फेसबुक पर पता नहीं ये कैसा नामुराद फिल्टर आया है , कमेंट करने पर वह कमेंट पोस्ट होता ही नहीं । मैं भी  " तू है हरजाई तो मेरा भी यह तौर सही " की तर्ज पर "और  नहीं और सही " का विकल्प ढूंढता रहा । बेटों की मदद लेता रहा । रात तक लगा रहा । तब जाकर कहीं अपने साल दर साल पुराने होने की बधाईयों का आभार दे पाया । तेरी मंजिल पर पहुंचना इतना आसां न था ,  सरहद -ए - अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे । जनम दिन से यह फायदा हुआ कि मेरे फेस बुक फ्रेण्ड Sultan Ahmed] मुझसे केवल एक साल छोटे निकले । जनाब रंग रोगन कर इस कदर बैठे हैं जैसे मुझसे दस बीस साल छोटे हों । वे लिखते हैं -" जमाने की चालबाजियां हैं जनाब .........क्या हम पर हीं ल

त्रिकोणीय प्रेम।

 बहुत पहले यशपाल की एक कहानी पढ़ी थी । वह त्रिकोणीय प्रेम पर आधारित थी । कहानी की नायिका पति को तो चाहती हीं है साथ में प्रेमी को भी उतनी हीं शिद्दत से चाहती है । पति बेचारा परेशान है । इस कहानी का अंत बहुत दर्दनाक होता है ।पति पत्नी के कहने पर उसका गला रेत देता है । प्रेमी को भनक लग जाती है । वह पुलिस को खबर कर देता है । पुलिस आती है । पत्नी अभी जीवित है । उसकी सांस अभी चल रही है । वह अपनी मौत का इल्जाम खुद पर ले लेती है । फिल्मों  में पहले त्रिकोणीय प्रेम नहीं होता था । महबूब खान की फिल्म अंदाज के बाद इसका चलन फिल्मों में बढ़ा । राजकपूर ने इसी थीम को आगे बढाया था । उन्होंने फिल्म संगम बनाई । थीम क्लिक कर गयी थी । फिल्म बहुत चली । इसमें राजेन्द्र कुमार के किरदार को मरना पड़ा था । संगम के बाद त्रिकोणीय प्रेम पर आधारित बहुत सी फिल्में बनीं । या यूँ कहें कि इस तरह की फिल्मों की बाढ़ आ गयी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । त्रिकोणीय फिल्मों में तीसरे को इस परिदृश्य से आखिर हटना पड़ता था । वह स्वेच्छा से हट जाता था । अक्सर वह मौत का वरण कर लेता था । इसमें त्याग की भावना थी । त्रिकोणीय संघर्ष मे

सुधा रही सकुचाय.

चीनी को अंग्रेजी में शुगर कहा जाता है. शुगर जो संस्कृत के शर्करा से बना है. शर्करा का शाब्दिक अर्थ बजरीदार या रवादार होता है. प्राचीन काल में जो चीनी बिना परिष्करण के तैयार होती थी, वह रवेदार हीं होती थी. चीनी गन्ने के रस से बनती है.  प्राचीन पश्चिम गन्ने की खेती से अनजान था. सिकंदर के आक्रमण के दौरान उसके सिपाहसलार नाचोस को सिंधु नदी के किनारे एक सरकण्डा मिला, जिसके चूसने से शहद का स्वाद मिलता था. उसे आश्चर्य हुअा कि बगैर मधुमक्खियों के इस सरकण्डे के अंदर शहद कैसे बना होगा ? बाद में पता चला कि यह सरकण्डा नहीं ईख (गन्ना) है, जिसे अंग्रेजी में शुगर केन (Sugar Cane) कहा गया. परिष्करण से प्राप्त चीनी से मात्र कैलोरीज मिलती है. उसमें विटामिन व खनिज नहीं होता. परिष्कृत चीनी में पौष्टिकता नष्ट हो जाती है. यही चीनी भोज्य पदार्थों, कोल्ड ड्रिंक्स, फलों के तथाकथित रीयल जूस में मिली होती है. अत्यधिक कैलोरी से मोटापा बढ़ता है. विटामिन व खनिज चीनी में नदारद होने के कारण इस चीनी में पौष्टिकता रंच मात्र भी नहीं होती, लिहाजा इससे धमनियों का रोग हो जाता है.अत्यधिक चीनी का उपयोग  मधुमेह को आमंत्रित करत

याद न जाए बीते दिनों की.

चित्र
घर से निकलकर कुछ दूर चलते हीं बेर की झाड़ियां आ जातीं थीं. उनमें मीठे बेर लगे होते थे. बेर खाने का एक अलग हीं मजा था. साथ हीं बेर के कांटे भी होते थे, जो गाहे ब गाहे चुभ जाया करते थे. ऐसे कैसे हो सकता है कि आप बेर खाएं और कांटे न चुभे. ये तो वही बात हुई कि गुड़ खाए, पर गुलगुले से परहेज करे. कई बार हम गर्मियों में बेर की झाड़ियों में आग लगा देते थे, ताकि बारिश के दिनों में फिर बेर लहलहा उठे और नये सिरे से फिर ढेरों फल दे. एक बार आग भड़क उठी. वह गांव की तरफ बढ़ने लगी. हमारे प्राइमरी स्कूल के टीचर वृजबिहारी सिंह ने आग को बुझाने के लिए लड़कों को भेजा. किसी तरह से आग पर काबू पाया गया. इस तरह की आग की तारतम्यता(Continuity) को आप तोड़ देंगे तो आग आगे नहीं बढ़ पाएगी. इस केस में भी यही उतजोग अमल में लाया गया. आग लगाने की मंशा सभी की थी, पर सजा मिली केशव पाण्डेय को . शिक्षक की नजर में वे शातिर थे और शातिर के खिलाफ गवाही देने वाले भी बहुत थे, जिनमें मैं भी एक था. आगे चलने पर दो महुआ के पेड़ आते थे. इन पेड़ों के नीचे हम विश्राम करते थे. गर्मियों में दूर बहुत देखने पर लगता था कि पानी की लहरें झप झप

छछिया भरि छाछ पे नाच नचावे.

छाछ एक पेय होता है. दही को बिलोकर उसका मक्खन निकाल लिया जाता है .उसके बाद जो तरल पदार्थ बच जाता है, वह छाछ कहलाता है. छाछ गर्म देशों का बहुत लोकप्रिय पेय है. इसके पीने से पेट की बीमारियां स्वतः दूर हो जाती हैं. आयुर्वेद में इसे बहुत उपयोगी माना गया है. इसे भोजन के बाद पीने को कहा गया है - भोजनांते पिवेत तक्रं. आजकल बाजार में कई प्रकार के कोल्ड ड्रिंक हैं, जिन्हें पीने से शरीर को नुकसान हीं नुकसान है. वहीं छाछ पीने से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि इसे पीने वाले दीर्घायु होते हैं . आइए जानते हैं छाछ पीने से क्या फायदा होता है - हिचकी आने पर छाछ में एक चम्मच सोंठ मिलाकर पियें, हिचकी दूर हो जाएगी. उल्टी, दस्त में छाछ के साथ जायफल पीने से आराम मिलता है. यह सौन्दर्य प्रसाधन के तौर पर भी इस्तेमाल होता है. छाछ में आटा मिलाकर उसका चेहरे पर लेप करें. सूखने पर साफ पानी से धो डालें. चेहरे में निखार आ जायेगा. बासी छाछ एक अच्छे शेम्पू का विकल्प होता है. जिन लोगों का मोटापा जिम जाने व पसीना बहाने के बाद भी कम नहीं होता है, उन्हें एक गिलास छाछ में एक चम्मच जीरा मिलाकर सुबह शाम पीना चाहिए. मोटापा

जब जब भूमि पर शत्रु नजर करता है.

बात आज से 7200 विक्रम सम्बत् पहले की है. महर्षि परशुराम ने अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए सहस्त्रबाहु का संहार किया. सहस्त्रबाहु एक क्षत्रिय था. इसलिए सहस्त्रबाहु की वजह से परशुराम जी ने 18 बार क्षत्रियों का नाश किया. क्षत्रियों के नाश के उपरांत उन्होंने उनकी जमीन अपने उपासक ब्राह्मणों में बांट दी. जमीन मुफ्त में मिली तो ये ब्राह्मण खेती करने लगे. इन्हें किसान ब्राह्मण या अयाचक ब्राह्मण कहा गया. अयाचक ब्राह्मणों का मूल स्थान मदारपुर था. मदारपुर कानपुर -फरूखाबाद की सीमा पर रेलवे स्टेशन बिल्हौर के नजदीक है. सन् 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने मदारपुर पर आक्रमण कर सभी ब्राह्मणों को मार डाला. एक युवती का केवल गर्भ बच गया. उस गर्भ से पैदा हुए गर्भू तिवारी. गर्भू तिवारी से वंश बेलि पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में फैल गई . बनारस के महाराज ईश्वरी प्रसाद सिंह ने ,जो कि स्वंय एक अयाचक ब्राह्मण थे, एक सभा बुलायी. इस सभा में यह तय किया जाना था कि अयाचक ब्राह्मणों को क्या उपाधि दी जाय ? चूंकि ये ब्राह्मण खेती करते थे. इसलिए कुछ लोगों ने किसान ब्राह्मण नाम की संस्तुति की. कुछ लोगों ने भूमिह