तकली और चरखा के गीत

 तकली रानी तकली रानी                                                     नाच रही कैसी मनमानी                                                       गुनगुन गुनगुन गीत सुनाती                                                  सूतों का ये ढेर लगाती 

तकली से सूत काता जाता था । हम प्राइमरी कक्षाओं में अपने घर से तकली और रुई की पीयूनी लेकर जाते थे । तकली से सूत कातते । साथ में तकली के गीत भी गाते । सूत कातने के बाद उन सूतों का निरीक्षण किया जाता । जो सूत सबसे पतला होता उसे सबको दिखाया जाता । उम्दा सूत कातने वाले बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता था । 

तकली से सूत कातने का प्रशिक्षण दिया जाता था । बड़े पैमाने पर सूत कातने के लिए चरखा उपयोग में लाया जाता था । घर की औरतें हर काम में प्रवीण होतीं थीं । वे चरखा से लेकर  चक्की ( जांत ) तक चलातीं थीं । इसलिए गाँव घरों में एक कहावत आम हो चली थी -

उठो बहू अब सांस लो                                                          चरखा छोड़ो जांत लो

चरखा के ढांचे में भी परिवर्तन हुआ । एक नयी तकनीक वाला चरखा आया । इसे अम्बर चरखा कहा गया । इस चरखे को चलाने के लिए गांधी आश्रम से एक्सपर्ट आते थे , जो हर गाँव में प्रशिक्षण देते थे । सीखने के बाद बहू चरखा कातती और सास उसे बेचने के लिए गांधी आश्रम जाती । सूत की गुणवत्ता के हिसाब से भुगतान किया जाता था । 

चरखे की भनभन का स्वर पूरे गाँव में गूंजा करता था । इसी प्रसंग पर  सियाराम शरण गुप्त ने लिखा है -

चला हमारा अपना चरखा , चरखा मन का मीत                        गूंज उठा इसके भनभन में   जन जन का संगीत 

जब नयी नवेलियां घरों में आयीं तो वे पढ़ी लिखीं आईं । उन्होंने चरखा और जांत चलाना छोड़ दिया । चरखा घरों से गायब हो गया । अब उन्नत तरीके की मशीनें आ गयीं हैं,  जो बेहद उम्दा सूत काततीं  हैं  । गाँव में तकली और चरखे की कोई जरुरत नहीं रह गयी है । गाँव की फिजा से तकली की गुनगुन और चरखे की भनभन गायब हुए अर्सा बीत गया है ।

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