गढ़वाल विश्वविद्यालय का माइग्रेशन सर्टिफिकेट

 उत्तरकाशी से मेरा स्थानांतरण शिक्षा सत्र के मध्य में हीं हो गया थ । उस समय मेरे दो लड़के उत्तरकाशी डिग्री कालेज से बी एस सी कर रहे थे । उन लोगों ने बी एस सी ( द्वीतिय वर्ष )की परीक्षा दे रखी थी । अब तृतीय वर्ष में एडमिशन होना था । ऐसी हालत में सोचा गया कि हम पहले चण्डीगढ़ चलें  , फिर तय करेंगे कि आगे क्या करना है । वैसे भी हम कन्फर्म नहीं थे कि इनका एडमिशन तृतीय वर्ष में पंजाब विश्वविद्यालय में हो हीं जाएगा  ।

चण्डीगढ़ आकर पता चला कि एडमिशन हो जाएगा बशर्ते कि इनके मार्क्स 60% से ऊपर हों । सौभाग्य से इनके प्रतिशत बहुत अच्छे थे । एडमिशन हो गया । तीसरा बेटा केंद्रीय विद्यालय में था । उसके एडमिशन में कोई अड़चन नहीं थी । अब गढ़वाल विश्वविद्यालय से केवल माइग्रेशन सर्टिफिकेट लाना शेष रह गया था । हम फिर कमर कसकर तैयार हुए । बंटी और बटुक  ( घर का नाम) के साथ मैं चला । वह अप्रैल 1997 का कोई दिन रहा होगा ।

शाम को हम ऋषिकेश पहुँचे । वहाँ से श्रीनगर  ( गढ़वाल) के लिए टैक्सी पकड़ी । अंधेरा गहरा होता जा रहा था । केवल सड़क नजर आ रही थी । खाई हमारे दाहिने थी । बायीं तरफ पहाड़ था । टैक्सी की रोशनी में यदा कदा पहाड़ के दर्शन हो जा रहे थे। चलते चलते अचानक गाड़ी का पहिया ब्रस्ट हो गया । हम सभी उतरे । स्टेपनी लगायी गयी । जब तक स्टेपनी लगी तब तक हम बाहर घूमते रहे । 

मेरा परिचय एक सज्जन से हुआ जो बिहार से थे । उनका नाम सियाराम राय था । वे काली कमली ट्रस्ट के कोई पदाधिकारी थे और अपने रुटीन विजिट पर निकले थे । उन्हें बद्रीनाथ धाम तक जाना था । रास्ते में आने वाले हर काली कमली धर्मशाला में उन्हें रुकना था ।  उनको जरुरी निर्देश देना था । साथ हीं  उनका फीड बैक भी लेना था । 

स्टेपनी लगने के बाद हम फिर चल पड़े । अबकी बार सियाराम राय हमारे साथ हीं बैठे । पूरे रास्ते वे काली कमली ट्रस्ट के बारे में बताते रहे । उनसे काली कमली ट्रस्ट के संस्थापक के बारे में भी पता चला ।  उन्होंने बताया था कि काली कमली धर्मशाला में ठहरने के लिए ऋषिकेश से पर्ची लेनी पड़ती है । मुझे धर्मशाले में रहने की कोई जरुरत नहीं थी । उन दिनों धर्मशाला  बदइंतजामी का पर्याय समझा जाता था । धर्मशाला में रहने का मतलब मक्खी,  मच्छर , खटमल और गंदगी के साम्राज्य से सामना करना होता था । 

रात के हम दस बजे श्रीनगर  ( गढ़वाल)  पहुँचे । सियाराम राय ने हमें अपने धर्माशाले में रहने का न्यौता दिया । मेरी हिचक को उनकी टेलीपैथी समझ गयी थी । उन्होंने कहा था कि अगर आपको धर्मशाला पसंद नहीं आएगा तो वे कोई और इंतजाम करेंगे । धर्मशाला देखा । पसंद न आने का सवाल हीं पैदा नहीं होता था । अटैच बाथ रुम । इंग्लिश टाइप कमोड । एक बड़ा सोने का कमरा । साफ सुथर बिस्तर । और क्या चाहिए । अंधा क्या चाहे - दो आंखें । हमने रात उसी धर्मशाले में गुजारने की सोची । भोजन भी सुस्वादु था ।

सुबह उठकर हम गढ़वाल विश्व विद्यालय पहुँचे । वहाँ का नजारा हीं कुछ और था । वहाँ कोई शोक सभा हो रही थी । किसी की मौत हो गयी थी । उसके बाद छुट्टी हो जानी थी । हमारा काम उस दिन नहीं होने वाला था । तभी मेरी नजर एक खाकी कुर्ता वाले व्यक्ति पर पड़ी । वह खईनी मल रहे थे । पता चला कि वे हमारे गाँव के पास के गाँव के हीं  हैं । उनके गाँव का नाम श्रीनगर था ।

अजीब संयोग था कि हम श्रीनगर गढ़वाल में खड़े  होकर बलिया के श्रीनगर निवासी से बात कर रहे थे । बलिया वाले श्रीनगर निवासी का नाम तो याद नहीं आ रहा , पर इतना याद है कि वे वहाँ चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे । हमारा जन्म स्थान और उनका निवास स्थान पास पास हीं था । ऐसे में उनका और हमारा खुश होना लाजिमी था । बलिया वाले श्रीनगर के वासी ने अतिरिक्त सिर दर्दी लेकर भाग दौड़ की । संबंधित बाबू की हाथ जोड़ी की । उनकी चिरौरी की । उनको उनकी सीट पर बैठाया ।

इतना हो जाने के बावजूद एक पेंच फंस गया । बटुक के सारे रिकार्ड मौजूद थे , पर बंटी के अधूरे रिकार्ड थे वहाँ । अब तो रिकार्ड लाने के लिए उत्तरकाशी जाना पड़ता ।  ऐसी हालत में संकट मोचक खुद बने वही बाबू । उन्होंने बंटी से सारे संबंधित डिटेल लिया । उसे एक कागज पर उतारा । उस पर बंटी के हस्ताक्षर लेकर कन्सर्न फाइल के हवाले कर दिया । हमें माइग्रेशन सर्टिफिकेट मिल गया ।

जिस समय दोनों बेटे माइग्रेशन सर्टिफिकेट लेकर आए मैं बलिया वाले श्रीनगर वासी से वार्तालाप कर रहा था । हम बातें कर रहे थे - दल छपरा , नारायण गढ़ , शिवपुर व माझा की । इन  गाँवों के वाशिंदों की । कुछ साझा दोस्तों की । कुछ गण्यमान हस्तियों की । 

माइग्रेशन सर्टिफिकेट पाकर हमें अवर्चनीय खुशी हुई । हमने अपने उस गाँवली का आभार प्रकट किया और धर्मशाला के लिए चल पड़े थे । 

धर्मशाला पहुँचकर हमने सामान पैक किया । मैनेजर से चेक आउट के लिए मिले । मैनेजर से पता चला कि सियाराम राय ने भुगतान लेने से मना कर रखा है । 

हम टैक्सी में बैठे । उस समय मुझे एक फिल्मी गीत बड़ी शिद्दत से याद आ रही थी -

जीवन के सफर में राही                                                मिलते हैं बिछड़ जाने को                                                  और दे जाते हैं यादें                                                            तन्हाई में हमें तड़पाने को 



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