दहकता साल वन
साधना मिश्रा की कविताओं का संकलन " दहकता साल वन "आज हीं पढ़कर समाप्त किया है । शुक्रिया साधना जी ! इतनी सुंदर कविताएँ लिखने के लिए । इनकी हर कविता का एक अलग रंग है , जिसमें कई अनदेखे व अनसुलझे दृश्य नजर आते हैं । इनकी कविता में हमारे होने की आवाज है , जो हमें निरंतर पुनर्नवा करती रहती है । कई अनुत्तरित प्रश्न है , जिसका जवाब वे पिनाकी के माध्यम से ढूंढती हैं । एक जगह वे लिखती हैं-
कहो पिनाकी कहाँ भटक रहे हो तुम रण में या अरण्य में या छुपे हुए सृष्टि के छोटे छोटे से कण में ।
इनकी कविताएँ पेण्टिंग सरीखीं हैं, जो अपने लालित्य से भरपूर हैं । इनसे एक अनुनाद गूंजता है । एक अनोखी संगीत प्रस्फुटित होती है । संगीत का यह स्वाद गूंगे का गुड़ जैसे है , जिसका स्वाद तो लिया जा सकता है ; लेकिन बताया नहीं जा सकता ।
हांलाकि इनकी कविताओं में कोई सिग्नेचर स्टाइल नहीं उभरा है , लेकिन इनमें भाषा, शिल्प का अनोखा ताल मेल नजर आता है । दृष्टि और दृश्य के अनेक स्तर दिखाई देते हैं । जो भी है वह एक सुखद अहसास है । ये कविताएँ स्मृति पटल पर अतीत से कालातीत की सैर करातीं हैं ।
इनकी कविताओं में महादेवी वर्मा का रहस्यवाद भी है । एक बानगी देखिए-
मेरे अनीश्वर ! सुनो तनिक उस प्याले में कुछ छूटा था शायद तलछट था या कि मेरा भाग्य समझ तुमने जान बूझकर छोड़ा था
साधना मिश्र की कविताएँ सूक्ष्म व्यंजना वाली कविताएँ हैं, जो हमारे अंतस में चुपचाप उतरतीं हैं । चुपचाप उतरकर बहुत देर तक अपना पड़ाव बनाये रखतीं हैं ।
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