काली कमली वाले का ट्रस्ट

वे काली कमली ओढ़ते थे । इसलिए  उनका नाम भक्तों ने काली कमली वाला रख दिया था । वैसै उनका असली नाम विशुद्धानंद था । उनका जन्म गुजरांवाला के कोंकणा गाँव में हुआ था । यह जगह आजकल के पाकिस्तान में है । एक बार विशुद्धानंद अपने परिवार के साथ हरिद्वार आए थे , जहाँ के आध्यात्मिक वातावरण में रहते हुए उनके मन में बैराग जगा । उन्होंने सन्यास लेने के बारे में सोचा । माता पिता से इजाजत मांगी । इजाजत नहीं मिली ।

परिवार के लोगों का कहना था कि शादी कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करो । वंशावलि बढ़ाओ । उसके बाद जीवन के चौथेपन में सन्यास धारण करने की सोचना । विशुद्धानंद नहीं माने । वे परिवार छोड़कर काशी चले गये । वहाँ स्वामी शंकरानंद से दीक्षा ली । गुरु से आज्ञा लेकर वे उत्तराखंड के चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े थे ।

उत्तराखंड की यात्रा पर स्वामी विशुद्धानंद ने देखा कि यहाँ  तीर्थ यात्रियों के लिए भोजन,  पानी,  चिकित्सा और आवास जैसे मूलभूत सुविधाओं का सर्वथा अभाव है । विशुद्धानंद तीर्थ यात्रियों के दुःख से द्रवित हो उठे । उन्होंने इनके लिए कुछ करने की ठान ली । 

उत्तराखंड की यात्रा के बाद स्वामी विशुद्धानंद ने पूरे भारत की यात्रा की । उन्होंने उत्तराखंड के चारों धाम यात्रा को सुगम और सर्व सुलभ बनाने के लिए लोगों को मुक्त हस्तदान करने के लिए प्रेरित किया । धन एकत्र हुआ तो सबसे पहले विशुद्धानंद ने ऋषिकेश में 1880 में एक प्याऊ बनाया । जैसै जैसे धन एकत्र होता गया वैसै वैसै उत्तराखंड के हर तीर्थ मार्ग पर चट्टी बनाते गये ।

ये चट्टी हर 9 मील पर बनाए गए । इन चट्टियों पर तीर्थ यात्रियों को कच्चा राशन दिया जाता था । यात्री खुद भोजन बनाते । खाते । फिर आगे के लिए प्रस्थान करते । धीरे धीरे इन चट्टियों को धर्मशाला के रुप में परिवर्तित किया जाने लगा । एक ट्रस्ट की स्थापना की गयी । ट्रस्ट का नाम स्वामी विशुद्धानंद के निक नेम पर रखा गया । काली कमली ट्रस्ट का पंजीकरण 1927 में हुआ ।

काली कमली ट्रस्ट का पहला कार्यालय कलकत्ता में खोला गया जो आज भी सक्रिय है । काली कमली के धर्मशाला काफी साफ सुथरे हैं । इनमें सुस्वादु भोजन मिलते हैं । मैं उत्तराखंड के श्रीनगर में इसके धर्मशाला में रहने का लुत्फ उठा चुका हूँ । चलते समय मैंने जब भुगतान के लिए मैनेजर से मिला तो उसने भुगतान लेने के लिए मना कर दिया । पता चला कि ट्रस्ट से सम्बद्ध मेरे एक सहयात्री ने भुगतान लेने से मना किया था ।

130 साल से भी पुराने इन धर्मशालाओं में घर जैसा माहौल मिलता है । ये धर्मशाले " नो प्राफीट,  नो लाॅस "  पर चलते हैं । यदि किसी के पास पैसे नहीं है तो उसे भोजन व आवास की सुविधा निःशुल्क प्रदान की जाती है । 

स्वामी विशुद्धानंद 1953 में कैलाश मानसरोवर यात्रा पर निकले थे । उसके बाद से उन्हें किसी ने नहीं देखा ।


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