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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक था गीदड़

 गीदड़ चूहे और खरगोश जैसे छोटे जानवरों का हीं शिकार कर पाता है । बड़े जानवरों का यह शिकार नहीं कर पाता , इसलिए शेर , बाघ , भेड़िया और लकड़बग्घों द्वारा छोड़े गये भोजन पर निर्भर करता है । देखने में यह कुत्ते और भेड़िए जैसा होता है , पर उनके जैसा यह दिलेर और साहसी नहीं होता । यह काफी डरपोक होता है । यह रात के अंधेरे में निकलता है और सुबह होते हीं अपने बिल में जा छुपता है । गीदड़ की चमड़ी ढोल बनाने के काम आती है । इसके पूंछ और खोपड़ी तांत्रिक क्रियाओं के काम आती है । इसलिए इसका अवैध शिकार होने लगा है । अरहर और गन्नों के खेतों में शिकारी बारुद से भरी चुकड़ी रख देते हैं । गीदड़ बारुद की गंध से आकर्षित होकर चुकड़ी तक पहुँचता है । चुकड़ी को सूंघता है । सूंघने के चक्कर में उसका थुथुन चुकड़ी से टकराता है और चुकड़ी फट जाती है । गीदड़ सांस न ले पाने की वजह से धराशायी हो जाता है । गीदड़ हुंआ हुंआ बहुत करते हैं । ऐसा करने से उनके नाक के ऊपर दबाव बढ़ता है । नाक के ऊपर एक बालों का गुच्छा सा बन जाता है , जो समय के साथ कड़ा होता जाता है । इसे गीदड़ सींगी कहा जाता है । गीदड़ सींगी हजारों गीदड़ों में किसी एक के पास होता है ।

टैगोर और ओंकैंपो की प्रेम कथा

 1924 में टैगोर पेरु की यात्रा पर थे । पेरु में उनकी तवियत खराब हो गयी । उन्हें दो ढाई महीने वहीं रुकना पड़ा । विक्टोरिया ओंकैंपो अर्जेंटीना की नामचीन नारीवादी लेखिका थीं । टैगोर का उनसे मिलना महज एक संयोग था । वे टैगोर की प्रशंसिका थीं । जब उन्हें पता चला कि टैगोर पेरु में ठहरे हुए हैं तो वे उनसे मिलने पहुँची। उन्होंने टैगोर की बड़े मनयोग से सेवा सुश्रुषा की । टैगोर को भला चंगा कर दिया । उस समय टैगोर की उम्र 63 और विक्टोरिया ओंकैंपो की उम्र 34 साल थी । ओंकैंपो का अपने पति से 1922 में ब्रेकप हो गया था । वे बिल्कुल हीं टूट गयीं थीं । उन्हीं दिनों उन्हें टैगोर की " गीतांजलि " का अनुवाद फ्रेंच भाषा में पढ़ने को मिला । इस काव्य संग्रह से उन्हें बहुत संबल मिला था । दरअसल उनका पति से 1912 से हीं अनबन चल रही थी , लेकिन घर वालों के दबाव में वे इस रिश्ते को किसी तरह से निभा रहीं थीं । पति और पत्नी एक छत के नीचे बेशक रह रहे थे , पर उनके सोने के कमरे अलग अलग थे । टैगोर को चित्र बनाने का भी शौक था । विक्टोरिया ओंकैंपो ने उन्हें चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया था । टैगोर चित्र बनाने लगे । उ

फेसबुक की दोस्ती जी का जंजाल

 आजकल फेसबुक पर पांच हजारी दोस्ती का आंकड़ा छूने की बड़ी कवायद चल रही है । केवल चेहरा देखकर हीं लोग फ्रेण्ड बना ले रहे हैं । दिल सच्चा हो सकता है , पर चेहरा अक्सर झूठा होता है । दिल तो दिखाई नहीं देता । हाँ , चेहरा जरुर दिखाई देता है । लोग चेहरे पर मर मिटते हैं । उसे दोस्त बनाने के लिए लालायित हो उठते हैं । फेसबुक पर बनी प्रोफाइल पिक झूठी भी हो सकती है । आप में से बहुतों के पास भी पाँच हजारी दोस्तों का भण्डार होगा , लेकिन सक्रिय होंगे केवल सौ सवा सौ । कुछेक तो पाँच हजारी के साथ साथ फालोवर भी रखते हैं । उनके पास लाइक कमेण्ट हजारों में आते हैं । मेरे भी गुड मार्निंग और गुड इवनिंग वाले दोस्त हैं , जो सुलाते हैं तो जगाते भी हैं । मेरे पास भी सौ सवा सौ के करीब आभासी दुनियां वाले दोस्त हैं , जिनसे हाय हेल्लो होती रहती है । लेकिन नजदीकी दोस्त उंगलियों पर गिने जा सकते हैं । नजदीक के दोस्त बनने में समय लगता है ।दोस्ती इम्तिहान लेती है । परीक्षा में पास होने पर हीं सच्चे दोस्त मिलते हैं । फेसबुकिया दोस्त किसी विपत्ति में रस्मी दोस्ती निभाते हैं । वे सांत्वना भी देते हैं तो डरते डरते । वे सोचते हैं

मसूरी का भूतहा महल - राधा भवन

 मुम्बई से फोन आया था । कोई हमारे आई जी नैय्यर साहब का जानकार था । वह मसूरी में किसी भूतहा फिल्म की शूटिंग करना चाहता था । इसके लिए उसे किसी पुरानी हवेली की दरकार थी । आई जी साहब ने उसे राधा भवन में शूटिंग करने की सलाह दी थी । राधा भवन मसूरी में लाइब्रेरी के नजदीक स्थित है । यहाँ से पूरी मसूरी पर एक विहंगम दृष्टि डाली जा सकती है । वैसे मसूरी का विहंगम दृश्य लाल टिब्बा से भी देखा जा सकता है । राधा भवन के जाने वाले रास्ते पर लिखा है - यह एक निजी सम्पत्ति है । यहाँ प्रवेश वर्जित है । " मैं राधा भवन 2007 में गया था । भवन की दीवारें बहुत मोटी हैं। इसकी छत गिर चुकी है । जगह जगह पानी के दाग नजर आते हैं । कई जगहों पर दीवारें गिर गयीं है । मलवे का ढेर पड़ा है । भवन से हटकर एक व्यू प्वाइंट भी है , जहाँ से मसूरी के अतिरिक्त देहरादून का भी नजारा लिया जा सकता है । कहते हैं कि यह किसी राजा का महल था । राजा का परिवार इसमें रहता था । लकड़ी की आग भड़कने से पूरा भवन जल गया था । साथ हीं इसमें रहने वाला परिवार भी जल मरा था । तब से इस महल को भूतिया महल कहा जाने लगा । ऐसा माना जाता है कि इस भवन के आस पास

दक्षिण अफ्रीका की औरतें

 दक्षिण अफ्रीका की औरतें बहुत कर्मठ होतीं हैं । वे पुरुषों के मुकाबले बहुत  काम करतीं हैं । वहाँ पानी की बहुत किल्लत है। उनको बहुत दूर से पानी लाने जाना पड़ता है । पानी की कमी के कारण ये जीवन में केवल एक बार नहातीं हैं । वह भी जब उनकी शादी होती है । शेष जीवन ये जड़ी बूटियों को उबालकर उनके धुएँ से अपने को साफ करतीं रहतीं हैं । ये एक विशेष प्रकार के लोशन का भी इस्तेमाल करतीं हैं , जो जानवरों की चर्बी और हेमेटाइट के पावडर से तैयार किया जाता है । इस लोशन की वजह से इन्हें कीड़े नहीं काटते । ये औरतें गायों को दुहती भी हैं । जिस औरत के पास जितनी अधिक गायें होतीं हैं , उसे उतना हीं सम्मान की नजर से देखा जाता है । महिलाओं के पास केवल अधोवस्त्र होता है , जो लुंगी की तरह हीं होता है ।  पुरुष मात्र गाय चराना जानते हैं । वे बहुत दूर तक गाय चराते हुए निकल जाते हैं ।  दक्षिण अफ्रीका की विधवाओं की समाज में हालत बहुत बदतर होती है । उन्हें मरे हुए पति की लाश को नहलाना पड़ता है । मृतात्मा की मुक्ति के लिए लाश के पानी को पीना पड़ता है । विधवा की अपनी कोई मर्जी नहीं होती । उनसे बगैर पूछे उनकी शादी पति के किसी न

पाकिस्तान में हिंदी

 अविभाजित भारत के लाहौर  , कराची , बलूचिस्तान , रावलपिण्डी और सरगोधा में हिंदी का परचम कभी शान से  लहराता था । हिंदी के यशस्वी साहित्यकार यशपाल , भीष्म साहनी , कृष्णा सोबती , देवेन्द्र सत्यार्थी , उपेंद्र नाथ अश्क और नरेंद्र कोहली जैसे साहित्यकार इन्हीं शहरों से निकले हुए हैं ।  लाहौर में राजपाल एण्ड सन्स जैसे नामचीनी प्रकाशन शिद्दत से कार्यरत थे । हिंदी प्रचारिणी सभा का योगदान भी भूले से भी नहीं भुलाया जा सकता । देश के आजाद होने के साथ साथ देश का विभाजन भी हुआ । भारत और पाकिस्तान दो देश बने । तभी से पाकिस्तान में हिंदी का दुर्दिन शुरू हो गए । पूरे पाकिस्तान में हिंदी की पढ़ाई बंद कर दी गयी । जो हिंदी राष्ट्र भाषा के नाम से कभी जानी जाती थी , अब वह दुश्मन देश की भाषा बन गयी । जिस हिंदी और उर्दू ने मिलकर देश को आजाद कराया था उनमें अब अदावत होने लगी । उर्दू ने हिंदी को पाकिस्तान से बाहर कर दिया । हिंदी पाकिस्तान की आत्मा में वास करती थी । इसे यूँ पाकिस्तान से बाहर कर देना न तो तर्कसंगत था और न हीं न्यायस॔गत । लेकिन आश्चर्य की बात यह कि पाकिस्तान में हिंदी बोलचाल में जमी रही । इसे सरकार न

फटी जींस

 उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीर्थ सिंह रावत ने कहा है कि वे महिलाएँ अपने बच्चों को क्या संस्कार देतीं होंगीं , जो खुद फटी जींस पहनतीं हैं । वैसे सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने निजता के आधार को मौलिक अधिकार माना है । कौन क्या खाता है ? क्या पीता  है ? क्या पहनता है ? यह उसका निजी मामला है । इसके लिए संविधान है , जो लोगों की निजता की रक्षा करता है । तीर्थ सिंह रावत के इस बात से हड़कम्प मच गया है । लोग पक्ष विपक्ष के खेमे में बंट गये हैं । मैं भी इस पर अपनी बात रखना चाहता हूँ । जहाँ तक खाने पीने का प्रश्न है । यह हर किसी का निहायत हीं निजी मामला है । जिसे जो पसंद आए खाए पिए । हमें उससे कोई मतलब नहीं है , क्योंकि वह जो खाएगा पिएगा , उसका स्वाद भी वही लेगा । हम उसके स्वाद से अनभिज्ञ होंगे । इसलिए जो खाता पीता है , वह उसकी निजी पसंद होती है ।  लेकिन पहनावा उसका निजी मामला नहीं है । कारण ,  कोई क्या पहनता है , कैसे पहनता है ; उसे हम देखते हैं । उस पर अपनी पसंद नापसंद जाहिर करते हैं । फिर वह उसका निजी मामला कैसे हो गया ? यदि आपकी घर की बेटी बहू शालीन कपड़े पहने तो आप उसे पसंद करते हैं । यदि वह

औड़िहार का नाम पहले हूणहार था

 पूर्वांचल में भेड़िया को हुणार कहा जाता है । हुणार शब्द की व्युत्पति हूण शब्द से हुआ है । हूण एक बर्बर जाति थी , जो कि बहुत लड़ाकू थे । वे जिस देश पर आक्रमण करते थे , उस देश का समूल विनाश करके छोड़ते थे । वे उस देश के बच्चों तक को भी जीवित नहीं छोड़ते थे । उन्हें भी मार देते थे । भेड़िया भी बच्चों को उठाकर ले जाते थे । इसलिए पूर्वांचल में भेड़िए हुणार कहे जाने लगे । माताएं रोते हुए बच्चों को चुप कराने के लिए कहा करतीं थीं - चुप हो जाओ , बरना हुणार आ जाएगा । बनारस के नजदीक गाजीपुर जनपद का औड़िहार नगर स्थित है । यहीं पर पाटलिपुत्र का राजा स्कंद गुप्त ने आगे बढ़कर हूणों का सामना किया था । जब वह हूणों से समर ले रहा था तब उसके पिता कुमार गुप्त मृत्यु शय्या पर थे । दुःखी मनःस्थिति में होते हुए भी स्कंदगुप्त ने हूणों से डटकर लोहा लिया था । वह युद्ध भूमि में जमीन पर सोता था । सेना राजा को अपने बीच पाकर एक नयी ऊर्जा से लवरेज थी । दो लाख की हूण सेना को गाजर मूली की तरह काटकर फेंक दिया था स्क॔दगुप्त की सेना ने । उसके पास चतुरंगिणी सेना थी । हूण हार गये थे । इसलिए इस जगह का नाम " हूणहार " रखा

हाथ का साथ हमेशा रहना चाहिए

 बहुत से लोगों ने हाथ धोना सीख लिया है । इस सीख में कोरोना का हाथ है । लोग हाथ धोने के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं । इस हाथ धोने में हाथ के साथ साथ पानी और साबुन का भी बंटाधार हो रहा है । 24 घंटे में केवल 8 घंटे हीं हाथ को आराम मिलता है । वह भी तब जब हम सो रहे होते हैं । कहते हैं कि जल हीं जीवन है । इस जीवन को हम हाथ धोकर बरबाद कर रहे हैं । साबुन और सेनेटाइजर्स का खर्चा अलग से हो रहा है । हाथ न धोने पर घर वाले हीं आड़े हाथों ले लेते हैं । उनका कहना है कि जान से हाथ धोने से बेहतर है हाथ धोना । कोरोना काल में लोगों ने हाथ मिलाना भी बंद कर दिया है । गले मिलना तो दूर की बात है । अभी पिछले महीने सेवानिवृत्त अधिकारियों की मीटिंग थी । अधिकांश अधिकारी कुहनी मिला रहे थे । कुछ मुक्के से मुक्का मिला रहे थे । कोरोना काल में कुछ कांग्रेसी भाजपा में जा मिले हैं । वे भी हाथ नहीं मिला रहे हैं । डर तो कोरोना का है , पर बहाना है कांग्रेस के चुनाव चिन्ह हाथ का । उनका कहना है कि हाथ मिलाने से उन्हें कांग्रेस के हाथ की याद आ जाती है ।  कोरोना काल में पेट्रोल का दाम सौ पार कर गया है । सरकार ने हाथ खड़े कर दिए है

हब्शियों की दुनियां भारत में

 हब्शियों को भारत में सबसे पहले अरबी लोगों ने लाया था । यहाँ ये बतौर गुलाम लाए गये थे । हब्शी फारसी का शब्द है , जो अबीसीनिया से बना है । अबीसीनिया एक जगह है , जो हब्शियों का मूल स्थान है । अबीसीनिया से अब्सी बना और फिर यही अब्सी हब्शी में तब्दील हो गया । अरबी लोगों के बाद ब्रिटिशर्स और पुर्तगाली भी पीछे नहीं रहे । वे भी हब्शियों को बतौर दास भारत लाए थे । कुछेक हब्शी नाविक , भाड़े के सैनिक और व्यापार करने के नियत से भी भारत आए थे । अधिकांश हब्शी पूर्वी अफ्रीका से आए थे । ये बंतू समाज के लोग थे । ये हब्शी भारत में आकर भारत के हीं हो गये । वे कभी भी लौटकर अपने मुल्क नहीं गये । 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के मध्य जब दास प्रथा का समापन हुआ तो ये भागकर भारत के जंगलों में जा छुपे । वे यहाँ रहकर शेष भारत से कटे कटे रहे ।ये मेहनत मजूरी कर अपना पेट पालन करते रहे ।  भारतीय हब्शियों को सिद्दी नाम से जाना जाता है । सिद्दी शब्द सैय्यद से लिया गया है । चूँकि सर्वप्रथम इनको भारत लाने वाले अरबी सैय्यद थे , इसलिए उनके दास भी सैय्यद की तर्ज पर सिद्दी कहलाए । सातवीं सदी से इनको गुलाम बनाकर भारत में लाना शुरू

ब्रिटिश राजघराने की रवायतें अभी नहीं बदली हैं ।

 मेगन मार्केल के पिता काकेशियन प्रजाति के थे । मेगन का रंग अपने पिता पर पड़ा था । वह धप धप गोरी थी । माँ अफ्रीकन मूल की थी । इसलिए उसका रंग काला था । आम तौर पर गोरे और काले का कम्बिनेशन कम हीं होता है । लेकिन मेगन मार्केल के पिता और माता का कम्बिनेशन बना । दोनों में प्यार पनपा । दोनों ने शादी की । मेगन मार्केल उस शादी के परिणाम स्वरुप इस दुनियां में आई । जब भी मेगन मार्केल अपनी माँ के साथ बाहर निकलती , लोग उसकी माँ को उसकी दाई समझते थे । माँ को दाई समझना मेगन को बहुत पीड़ा देता । एक काली औरत को एक गोरी बेटी की माँ होना लोगों को अचम्भित कर देता । दुनियां में रंगभेद उस समय भी कायम था । आज भी कायम है । कोई खास फर्क नहीं है कल और आज में । मेगन मार्केल को बाॅबी डाॅल से खेलना अच्छा लगता था । पिता से उसने जिद की थी बाॅबी डाॅल लाने की । उसे बाॅबी डाॅल ऐसे परिवार की चाहिए थी , जिसमें पिता गोरा हो , माँ काली हो और डाॅल गोरी हो । पिता ने पूरा मार्केट छान लिया था , पर बाॅबी डाॅल की ऐसा परिवार कहीं नहीं मिला । कहीं पूरा परिवार काला था तो कहीं पूरा परिवार गोरा । कहीं भी हाफ गोरा और हाफ काला बाॅबी डाॅल

छींट के कपड़ों पर बैन लगा था कभी यूरोप में

 छींट हजारों साल पहले से भारत में बनाया जा रहा है । यह एक सूती वस्त्र होता है , जिस पर फूल पत्तियाँ , बेल बूटे काढ़े जाते हैं । पहले भारत की छींट अरब व्यापारियों के मार्फत यूरोप में पहुँचता था । अरबी लोग पहले अपना कमीशन काट  कर तब छींट को युरोपीय लोगों को बेचते थे । ऐसे में छींट महंगी पड़ती थी । छींट को सस्ती करने के लिए समुद्र मार्ग से भारत की खोज की गयी । बास्को डिगामा ने 15वीं शताब्दी में समुद्र मार्ग से भारत के दक्षिणी भाग पर कदम रखा था । वह यहाँ से मसालों और  कपड़ों की पहली खेप लेकर यूरोप पहुँचा था । चूँकि कपड़े कालीकट से ले जाए गए थे , इसलिए इन कपड़ों को कलिको कहा गया । ये कपड़े फूल पत्तियों वाले थे , इसलिए इनके भारतीय नाम छींट की तर्ज पर इन्हें chintz भी कहा गया ।  सुप्रसिद्ध उपन्यासकार जार्ज इलियट ने अपनी बहन को चिट्ठी लिखी थी - " छींटदार कपड़े सबसे अच्छे हैं , पर इनका असर चिंटजी होता है ।"  उस समय तक पूरे यूरोप के बाजारों में ढेर सारे नकली छींट आ गये थे । भारत से भेजे जाने वाले छींट के कपड़े कम पड़ने लगे थे । इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए व्यापारियों ने नकली छींट बाजार म

लेफ्टी होने का दर्द

 दुनियां में 10 प्रतिशत लोग लेफ्टी हैं । 3 प्रतिशत क्रास वायर्ड हैं । शेष सभी राईटी हैं । लेफ्टी राईटी का निर्धारण माँ के गर्भ में हीं हो जाता है । यदि किसी के दिमाग का दायां हिस्सा ज्यादा सक्रिय है तो वह लेफ्टी होता है । लेफ्टी होना शरीर की आम प्रक्रिया होती है । यह जेनेटिक , लर्निंग थ्योरी , मस्तिष्क की बनावट और दूसरे अन्यान्य कारणों से भी हो सकती है । इसके लिए जीन भी जिम्मेदार हो सकता है । जीन पर अभी शोध चल रहा है । देर सबेर कोई न कोई नतीजा जरुर निकलेगा। कुछ बच्चे सीखने के दौरान भी लेफ्टी बन जाते हैं । यदि बच्चे का आदर्श कोई लेफ्टी सेलेब्रेटी है तो वह उसी के अनुसार हीं बनना चाहेगा । ऐसे में वह उसी सेलेब्रेटी की तरह महान बनना चाहेगा । वह लेफ्टी बनने की भी कोशिश करेगा । महात्मा गाँधी , बराक ओसामा , अमिताभ बच्चन , बिल गेट्स, रतन टाटा , सचिन तेंदुलकर , ब्रायन लारा , सौरभ गांगुली , निकोल किडमैन , एंजेलिना जाॅनी और करण जौहर ये सभी लेफ्टी थे । गाँधी जी तो दोनों हाथों से लिखते थे । सचिन तेंदुलकर दाएं हाथ के बैट्समैन थे , पर वे लिखा करते थे बाएं हाथ से ।  लेफ्टी लोगों का आई क्यू लेबल ज्यादा

हे चमगादड़ मेरे !

 हे चमगादड़ मेरे ! जब तुम उल्टा लटकते हो तो तुम्हें लगता है कि तुमने पूरी कायनात को पलट दिया है । तुम अपने को केवल सीधा मानते हो । इस बार तो तुमने सचमुच हीं पूरी कायनात पलट दी है । भयंकर तबाही मचा रखी है । लोगों को घरों में कैद कर दिया है । जो बाहर निकलते हैं , वे मास्क पहनकर निकलते हैं । तुम्हारे चलते एक नयी बीमारी ईजाद हुई है । इसे कोरोना कहते हैं । हे चमगादड़ मेरे ! तुम्हारा सूप पीकर जब चाइनीज लोग परमानंद की तृप्ति पा रहे थे । तब उन्हें तुमने उनकी औकात दिखा दी , लेकिन दुःख की बात है कि तुम्हारी दी हुई बीमारी हमारे देश में भी आ गयी । इसका कारण ढूंढने पर पता चला कि तुम एक सामाजिक प्राणी हो । मनुष्यों से तुम्हारी घनिष्टता है । तुम उनके घर के पास के पेड़ों पर उल्टा लटकते हो । किसी बीरान घर को आबाद करते हो । ऐसे में तुम्हारी यह बीमारी भी सामाजिकता से अछूती नहीं रही । हे चमगादड़ मेरे ! कोरोना महामारी की तरह फैल रहा है । इसे सबसे मिलने की बीमारी है । यह बीमारी तुलसीदास की तरह सबसे मिलती जुलती है । इसे भी नर के माध्यम से नारायण से मिलने की जल्दी मची रहती है - तुलसी इस जग में आय के सबसे मिलिए धा

बेचारे पेट का सवाल है

 पेट है तो हम हैं । हम हैं तो दुनियां हैं । पेट में भोजन पहुँचने के उपरांत पूरे शरीर को ऊर्जा मिलती है । पेट की वजह से हीं आदमी का हाथ कमाता है । पैर चलता है । दिमाग हर अंग को निर्देश देता है । किडनी , लीवर आदि अंग पेट की वजह से हीं काम करते हैं । पेट हीं से दुनियां भर के दंद फंद हैं । पेट की वजह से हीं कई तरह के पाप करने पड़ते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि पापी पेट का सवाल है । पेट कभी नहीं भरता । यह एक ऐसा गड्ढा है , जो कभी नहीं भरता । इस गड्ढे को भरने के लिए आदमी को कई तरह के काम करने पड़ते हैं । बाॅस की गाली से लगायत पत्नी के ताने भी सुनने पड़ते हैं । परिवार का मुखिया अपने साथ साथ पूरे परिवार का पेट पालता है । फिर भी परिवार के मुखिया को "लतमरुआ " की संज्ञा दी जाती है । लतमरुआ घर की दहलीज होती है , जिस पर सभी लात मारकर आते जाते हैं । लात मारने से याद आया कि पेट पर लात मारना किसी को भी पसंद नहीं है । भले हीं कोई पीठ पर लात मार दे ।  पेट पर लात मारने से पूरी कायनात हिल जाती है । जीने का मकसद हीं खत्म हो जाता है । जो कहते हैं कि पेट पापी होता है , वो गलत होते हैं । पेट पूरे शरीर क

आजानुबाहु

 आम तौर पर लोगों के हाथ कमर और घुटनों के बीच होते हैं ।कई लोगों के हाथ घुटनों तक या घुटनों के नीचे तक पहुँच जाते हैं । ऐसे लोगों को अजानुबाहु कहा जाता है । जानु का मतलब घुटना होता है । बाहु मतलब हाथ । आ मतलब तक । आ+जानु + बाहु । अर्थात् जिनके घुटनों तक पहुँचते हैं, उनको आजानुबाहु कहा जाता है । ऐसे लोग करोड़ों अरबों में एक होते हैं । राम भी आजानुबाहु थे । आजानुबाहु होने के कारण हीं वे श्रेष्ठ धनुर्धर थे । वे धनुष पर वाण चढ़ाकर जब प्रत्य॔चा खींचते थे तो शर्तिया तौर पर लक्ष्य का भेदन होता था। राम के आजानुबाहु होने के बारे में बहुत लोगों को पता नहीं है । वाल्मिकी रामायण में इसका जिक्र किया गया है - " अजानुबाहु : , सुशिरा , सुललाट , सुविक्रमः ।" राजा रवि वर्मा ने भी अपने चित्रों में राम को सामान्य हीं दिखाया है । अर्जुन भी आजानुबाहु थे । उनको " महाबाहो " कहा गया है । महाबाहो का मतलब लम्बी भुजाओं वाला होता है । अर्जुन भी श्रेष्ठ धनुर्धर थे । उनको भी आजानुबाहु होने के कारण धनुष चलाने में विशिष्ट प्रवीणता प्राप्त थी । उनको दोनों हाथों से धनुष चलाने में महारथ हासिल थी । इसलिए

दुआओं में याद रखना

 आयशा अहमदाबाद बाद की रहने वाली थी । उसकी ननिहाल जालौर राजस्थान में थी । वह अक्सर छुट्टियों में अपनी ननिहाल जाया करती थी । एक बार आरिफ के घर भी उसे जाना पड़ा था । शायद आरिफ के घर कोई गमी हो गयी थी । वह वहाँ मातमपुर्सी के लिए गयी थी । वहीं पर आयशा की आंखें आरिफ से चार हुईं थीं ।" प्यार का फसाना , बना ले दिल दीवाना , कुछ तुम कहो , कुछ मैं कहूँ " की तर्ज पर उनकी प्यार भरीं बातें शुरू हो गयीं थीं । 6 जुलाई 2018 को आरिफ और आयशा परिणय सूत्र में बध गये थे । आयशा अपना पीहर छोड़ जालौर आ गयी । वह जालौर जहाँ उसके मामा रहते थे । उसके मामा एक नामी वकील थे । समय का पंख लगाकर उड़ रहा था । कहते हैं कि समय के एक पंख का रंग उजला और दूसरे पंख का रंग काला होता है । उजला रंग शांति व सौहार्द का प्रतीक है तो काला रंग दुःख का । आयशा के जीवन में कुछ दिनों बाद हीं दुःख का पहाड़ शामिल हो गया । आयशा के पति के जीवन में एक दूसरी लड़की आ गयी । वह उस लड़की के साथ आयशा के सामने वीडियो चैट करता था ।यही नहीं वह उस लड़की पर अपनी दौलत भी लुटाने लगा । आरिफ खान राजस्थान के ग्रेनाइट फैक्ट्री में सुपरवाइजर था । उसके पास इत

जीवन की खुशी

 उसका नाम रधिया था । वह पासवान बिरादरी की थी । दीपक पाण्डेय भी उसी गाँव के थे । वे सरयू पारीण कुलीन ब्राह्मण थे । रधिया उनके साथ हीं पढ़ती थी । वह अक्सर उन्हें छेड़ती रहती थी । कहती - "आपके पुरखों ने रावण का श्राद्ध  किया था । फिर आप कुलीन ब्राह्मण कैसे हुए ? राम ने खुश होकर सरयू नदी के पार की जमीन आपके पुरखों को दान में दी थी । जमीन के लालच में आप लोगों ने श्राद्ध किया था ।" रावण ब्राह्मण था । राम ने उसे मारा था । उन पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था । कोई भी ब्राह्मण रावण के श्राद्धकर्म में शामिल नहीं हो रहा था । ऐसे में  सरयूपारीण ब्राह्मण आगे आए । उन्होंने श्राद्ध निर्विघ्न सम्पन्न कराया । उनका कहना था - " बेशक, रावण ब्राहण था , लेकिन उसकी प्रवृत्ति राक्षसी थी । उसने ऋषि और मुनियों पर बहुत अत्यचार किए थे । इसलिए राम पर ब्रह्म हत्या का पाप नहीं लगेगा ।" यह बात रधिया को पता थी । लेकिन छेड़ना है तो कुछ भी कहा जा सकता है । यही नहीं वह दीपक पाण्डेय को महापात्र भी कहती थी । महापात्र वे ब्राह्मण कहलाते हैं, जो मरणोपरांत दान लिया करते थे । महापात्र निकृष्ट ब्राह्मण की श्रेण