जीवन की खुशी

 उसका नाम रधिया था । वह पासवान बिरादरी की थी । दीपक पाण्डेय भी उसी गाँव के थे । वे सरयू पारीण कुलीन ब्राह्मण थे । रधिया उनके साथ हीं पढ़ती थी । वह अक्सर उन्हें छेड़ती रहती थी । कहती -

"आपके पुरखों ने रावण का श्राद्ध  किया था । फिर आप कुलीन ब्राह्मण कैसे हुए ? राम ने खुश होकर सरयू नदी के पार की जमीन आपके पुरखों को दान में दी थी । जमीन के लालच में आप लोगों ने श्राद्ध किया था ।"

रावण ब्राह्मण था । राम ने उसे मारा था । उन पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था । कोई भी ब्राह्मण रावण के श्राद्धकर्म में शामिल नहीं हो रहा था । ऐसे में  सरयूपारीण ब्राह्मण आगे आए । उन्होंने श्राद्ध निर्विघ्न सम्पन्न कराया । उनका कहना था -

" बेशक, रावण ब्राहण था , लेकिन उसकी प्रवृत्ति राक्षसी थी । उसने ऋषि और मुनियों पर बहुत अत्यचार किए थे । इसलिए राम पर ब्रह्म हत्या का पाप नहीं लगेगा ।"

यह बात रधिया को पता थी । लेकिन छेड़ना है तो कुछ भी कहा जा सकता है । यही नहीं वह दीपक पाण्डेय को महापात्र भी कहती थी । महापात्र वे ब्राह्मण कहलाते हैं, जो मरणोपरांत दान लिया करते थे । महापात्र निकृष्ट ब्राह्मण की श्रेणी में आते हैं ।

दोनों ने इण्टरमीडियट तक साथ साथ पढ़ाई की थी । उसके बाद दीपक पाण्डेय इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए शहर चले गये थे । शहर जाने से उनकी माँ को बहुत तकलीफ हुई थी । वे जी भरकर रोईं थीं । पिता सामान्य रहे , लेकिन वे भी अंदर से दुःखी थे । बेटे के कैरियर का सवाल था । इसलिए सभी ने दीपक पाण्डेय को भरे मन से विदा किया था । रधिया भी दुःखी थी । प्रत्यक्षतः उसने कहा था -

"अच्छा है गाँव से एक निकृष्ट ब्राह्मण जा रहा है । गाँव कुछ दिनों के लिए उसके बोझ से मुक्त रहेगा "। 

रधिया पासवान पास के हीं गाँव के डिग्री कालेज में पढ़ने लगी थी । 

कुछ दिनों बाद जब दीवाली की छुट्टी में दीपक घर आए तो रधिया उनसे मिली थी । वह पहले से दुबली हो गयी थी । उसने दीपक को अपनी व्यथा बताई थी -

"  तुम्हारे चले जाने के बाद सब कुछ सूना सूना सा लग रहा था, तुम्हारे घर के आगे से गुजरने का मन नहीं कर रहा था ।"

प्यार में पहले तकरार होता है , इनकार होता है , फिर इकरार होता है । रधिया अब इकरारनामे के दौर से गुजर रही थी । दीपक के भी दिल में वही आग लगी हुई थी , जो लगाने से लगती नहीं है और बुझाने से बुझती नहीं है । जब भी दीपक गाँव आते दोनों शाम  को हर रोज मिलते । 

एक शाम की दहलीज पर बैठे रहे वे देर तक                          आंखों से की बातें बहुत , मुँह से कहा कुछ भी नहीं

दीपक पाण्डेय की नौकरी लग गयी थी । वे ज्वाइन करने के लिए जा रहे थे । उनकी शादी के रिश्ते भी बहुत आने शुरू हो गये थे ।  उस शाम फिर उनकी मुलाकात हुई । रधिया ने कहा था - 

" अब तो तुम्हारे रिश्ते आने भी शुरू हो गये हैं । लेकिन मेरा कसूर क्या है ?  मैं तुम्हारी जाति बिरादरी से नहीं हूँ । तुम्हारी बिरादरी में पैदा न होने में मेरा कसूर तो नहीं है । भगवान ने जहाँ पैदा किया वहाँ पैदा हुए ।  प्रेम तो मैं तुम्हें तुम्हारी बिरादरी की किसी भी लड़की से ज्यादा करती हूँ ।"

दीपक भावुक हो गये । उन्होंने रधिया का हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर चल पड़े । शाम का धुंधलका छा रहा था । घरों से रसोई के धुएँ निकल रहे थे । दूर कहीं रेडियो पर गाना बज रहा था -

दो पक्षी दो तिनके ,                                                       लेकर चले हैं कहाँ                                                             ये बनाएँगे एक आशियाँ 



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