पाकिस्तान में हिंदी

 अविभाजित भारत के लाहौर  , कराची , बलूचिस्तान , रावलपिण्डी और सरगोधा में हिंदी का परचम कभी शान से  लहराता था । हिंदी के यशस्वी साहित्यकार यशपाल , भीष्म साहनी , कृष्णा सोबती , देवेन्द्र सत्यार्थी , उपेंद्र नाथ अश्क और नरेंद्र कोहली जैसे साहित्यकार इन्हीं शहरों से निकले हुए हैं ।  लाहौर में राजपाल एण्ड सन्स जैसे नामचीनी प्रकाशन शिद्दत से कार्यरत थे । हिंदी प्रचारिणी सभा का योगदान भी भूले से भी नहीं भुलाया जा सकता ।

देश के आजाद होने के साथ साथ देश का विभाजन भी हुआ । भारत और पाकिस्तान दो देश बने । तभी से पाकिस्तान में हिंदी का दुर्दिन शुरू हो गए । पूरे पाकिस्तान में हिंदी की पढ़ाई बंद कर दी गयी । जो हिंदी राष्ट्र भाषा के नाम से कभी जानी जाती थी , अब वह दुश्मन देश की भाषा बन गयी । जिस हिंदी और उर्दू ने मिलकर देश को आजाद कराया था उनमें अब अदावत होने लगी । उर्दू ने हिंदी को पाकिस्तान से बाहर कर दिया ।

हिंदी पाकिस्तान की आत्मा में वास करती थी । इसे यूँ पाकिस्तान से बाहर कर देना न तो तर्कसंगत था और न हीं न्यायस॔गत । लेकिन आश्चर्य की बात यह कि पाकिस्तान में हिंदी बोलचाल में जमी रही । इसे सरकार निकाल नहीं पाई । गाँव गिरान के लोग अरबी और फारसी के दुरुह शब्द न बोलकर साधारण हिंदी के शब्द बोलते थे । पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू अपने धर्मग्रंथों को संस्कृत से हिंदी में अनुवाद कर पढ़ा करते थे । यह भी एक वजह थी जिस कारण पाकिस्तान में हिंदी पल्लवित व पुष्पित होती रही ।

पाकिस्तान में हिंदी फिल्मों व टी वी धारावाहिकों का बहुत पहले से क्रेज चला आ रहा है । संजय दत्त के हिंगलिश डायलाॅग यहाँ अब भी धड़ल्ले से बोले जाते हैं - टेंसन लेने का नहीं देने का , मेरी तो वाट लग गयी आदि । फिल्मों और धारावाहिकों से नए नए शब्द पाकिस्तानी लोगों ने सीख लिया है और इनका आपसी बात चीत में धड़ल्ले से प्रयोग भी करते हैं । रामायण , महाभारत और किस्सा हातिमताई जैसे धारावाहिकों ने पाकिस्तान में भी धूम मचाए हैं । लोगों की बोली में आदर्श , पत्नी , विश्वास और आशीर्वाद जैसे शब्द इस तरह से घुल मिल गयें हैं जैसे दूध में शक्कर ।

पाकिस्तान के लोग भारत के बारे में बहुत कुछ जानना चाहते हैं। वे जानना चाहते हैं कि उनके पड़ोसी मुल्क में क्या चल रहा है । इसके लिए वे भारतीय न्यूज चैनल देखते हैं । इन भारतीय चैनलों से वे हिंदी सीखते हैं । फिर इनका प्रयोग अपनी भाषा में करते हैं । पाकिस्तानी बच्चे हिंदी में डब किए गये अंग्रेजी कार्टून देखते हैं । इसलिए उनकी भाषा में विशाल , मुक्ति , शांति और अधिकार जैसे शब्द जगह पा रहे हैं । माताएं परेशान हैं कि उनके बच्चे ये कौन से शब्द बोल रहे हैं ।

पाकिस्तानी और भारतीय दोनों रोजगार की तलाश में खाड़ी देशों में जाया करते हैं । वे आपस में मिलते हैं । बातें करते हैं । सियासत उन्हें दूर करती है । भाषा साथ रखती है । वे साधारण भाषा में बात करते हैं । ऐसी भाषा जो न संस्कृत होती है न अरबी न फारसी । इसमें ऐसे शब्द होते हैं जो संस्कृत , अरबी और फारसी से आकर यहाँ घुल मिल गए हैं , जिन्हें चाहकर भी अलग नहीं किया जा सकता है । ऐसे हीं शब्दों का आदान प्रदान होता है और दोनों की बोलचाल की भाषा समृद्ध होती रहती है । जब पाकिस्तानी अपने मुल्क को लौटते हैं तो अपने देश को कुछ नए शब्दों की सौगात देते हैं । इसी तरह से भारतीय भी नए शब्द लाते हैं । ऐसे शब्द पाकिस्तान के लिए हिंदी और हमारे लिए उर्दू होती है ।

2012 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री राजा परवेज ने किसी संदर्भ में अपने सुप्रीम कोर्ट से कहा था -" मेरा विश्वास कीजिए"। विश्वास शब्द पर वहाँ के कट्टरपंथी भड़क गए । टी वी एंकर प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाने लगे । वे नाराज इस बात पर हो रहे थे कि उन्होंने दुश्मन देश की भाषा का शब्द क्यों बोला ? इसलिए बोला कि विश्वास शब्द वहाँ की भाषा में रच बस गया है । इसी तरह की गल्ती कराची के एक मौलवी ने की थी । उन्होंने कहा था - " विश्वास कीजिए , चाँद दिखा है और हम आज ईद मना रहे हैं ।"  मजहबी लोग हैरान परेशान हो गए थे कि कैसे एक मुस्लिम त्यौहार के लिए एक मौलवी संस्कृत शब्द का इस्तेमाल कर रहा है । लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं है । हम " विश्वास कीजिए " और " यकीन कीजिए" दोनों कहना जानते हैं ।

पाकिस्तान में बड़े लोगों के लिए नेशनल जियोग्राफिक , एनीमल प्लेनेट , हिस्ट्री चैनल और डिस्कवरी चैनल अपने प्रोग्राम हिंदी में डब करके दिखाते हैं । वहाँ के लोग हिंदी के नए शब्दों से वाकिफ होते हैं । ग्लोबलाइजेशन के दौर में लोग इण्टरनेट के माध्यम से हिंदी सीख रहे हैं । इस्लामाबाद स्थित नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ माॅडर्न लांग्वेज में हिंदी की कक्षाएं शुरू की गयीं हैं । यहाँ हिंदी में डिप्लोमा करने से लेकर पी एच डी तक करने की सुविधा है । हांलाकि हिंदी की पढ़ाई करने वाले गिने चुने लोग हैं । लेकिन आगाज हुआ है तो अंजाम भी अच्छा हीं होगा ।

जो लोग आजादी के बहुत बाद पाकिस्तान गए हैं वे हिंदी बोलते , लिखते और पढ़ते हैं । वे अपने स्तर पर वहाँ के आवाम को हिंदी पढ़ा लिखा रहे हैं । पाकिस्तान के ब्रिटिश भारत में भी हिंदी बोली , पढ़ी और लिखी जाती है । अंत में इसी संदर्भ पर एक शे'र अर्ज है - 

किताब ए जीस्त से मुझे मिटा न पाओगे                                  वरक वरक पर मेरा इक्तिवास रहता है ।


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