हब्शियों की दुनियां भारत में
हब्शियों को भारत में सबसे पहले अरबी लोगों ने लाया था । यहाँ ये बतौर गुलाम लाए गये थे । हब्शी फारसी का शब्द है , जो अबीसीनिया से बना है । अबीसीनिया एक जगह है , जो हब्शियों का मूल स्थान है । अबीसीनिया से अब्सी बना और फिर यही अब्सी हब्शी में तब्दील हो गया । अरबी लोगों के बाद ब्रिटिशर्स और पुर्तगाली भी पीछे नहीं रहे । वे भी हब्शियों को बतौर दास भारत लाए थे । कुछेक हब्शी नाविक , भाड़े के सैनिक और व्यापार करने के नियत से भी भारत आए थे । अधिकांश हब्शी पूर्वी अफ्रीका से आए थे । ये बंतू समाज के लोग थे ।
ये हब्शी भारत में आकर भारत के हीं हो गये । वे कभी भी लौटकर अपने मुल्क नहीं गये । 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के मध्य जब दास प्रथा का समापन हुआ तो ये भागकर भारत के जंगलों में जा छुपे । वे यहाँ रहकर शेष भारत से कटे कटे रहे ।ये मेहनत मजूरी कर अपना पेट पालन करते रहे ।
भारतीय हब्शियों को सिद्दी नाम से जाना जाता है । सिद्दी शब्द सैय्यद से लिया गया है । चूँकि सर्वप्रथम इनको भारत लाने वाले अरबी सैय्यद थे , इसलिए उनके दास भी सैय्यद की तर्ज पर सिद्दी कहलाए । सातवीं सदी से इनको गुलाम बनाकर भारत में लाना शुरू हुआ था । आज 21 वीं सदी में आकर इनकी संख्या 50, 000 के करीब हो गयी है । ये कर्नाटक , महाराष्ट्र और गुजरात के जंगलों में अमन चैन से रह रहे हैं । बहुत से हब्शी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में भी रह रहे हैं ।
इन हब्शियों का रहन सहन , भाषा , खान पान आम भारतीयों जैसा हीं हो गया है । लेकिन ये अब भी समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाए हैं । ज्यादातर हब्शी लोग सूफी मुसलमान है । कर्नाटक में कुछेक ईशाई भी हैं । इन लोगों ने अहमदाबाद में एक शानदार मस्जिद भी बनाई है । यह मस्जिद सिद्दी मस्जिद के नाम से मशहूर हैं ।
भारतीय हब्शियों में कुछेक हब्शी अपने मेहनत के बल पर बहुत ऊंचे पदों पर भी पहुँचे हैं । इनमें मलिक अम्बर और याकूत का नाम सर्वोपरि है । मलिक अम्बर दक्षिण भारत में बहुत सक्रिय रहा था । उसने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए थे । याकूत रजिया सुल्तान के दिल पर राज करता था । लेकिन समाज के डर से दोनों ने अपने प्यार का इजहार सार्वजनिक तौर पर कभी नहीं किया था । रजिया सुल्तान का पति अल्तुनिया था , पर वह प्यार याकूत को हीं करती थी । रजिया सुल्तान और याकूत को मार दिया गया था । आज भी दोनों की कब्र साथ साथ है ।
बगावत, रंजिशे उफ्फ ये खून-खराबा, आ चल ऐसी दुनिया में जहां सिर्फ मोहब्बत , मैं और तुम हो
मार्गेट अल्वा ने इनको खेल क्षेत्र में लाने का सफल प्रयास किया था । अब ये खेल क्षेत्र में अच्छा कर रहे हैं । लेकिन इनको राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का यह प्रयास ऊंट के मुँह में जीरे के समान है । हालाँकि इन्हें आदिवासियों की कैटेगरी में रखा गया है , फिर भी इन्हें इसका पूरा लाभ नहीं मिल रहा है । कारण है शिक्षा की कमी । शिक्षा के क्षेत्र में इनके लिए बहुत कुछ करना शेष है । वैसे राष्ट्र की मुख्यधारा में इनको लाना अभी दूर की कौड़ी साबित हो रही है ।
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