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वजन बढ़ाती मशीन

 डायटीशियन का दिया डाईट चार्ट पढ़ा था । इतना कम खाकर आदमी पतला होगा कि नहीं यह तो पता नहीं  , मगर यह खाना खाकर उसे चार कंधों पर सवारी करने से कोई भी रोक नहीं सकता । मैंने उस डाइट प्लान का मजबूरी में हूबहू पालन किया था । कहते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी है । मैं मजबूर था वह वेस्वाद खाना खाने के लिए । जिस भोजन में तेल घी न हो उसे तो बीस फीट लम्बे बाँस से भी छूने का मन नहीं करता । एक महीने के बाद जब मैं मगन मन होते हुए वजन वाली मशीन पर चढ़ाई की तो मशीन ने बेवफाई कर दी । उसकी सुई ने वही दिखाया जो मैं देखना नहीं चाहता था । वजन पहले की अपेक्षा बढ़ गया था । वजन मशीन मेरे चढ़ने पर डरती है , इसलिए वजन बढ़ाकर बताती है ताकि मैं थक हारकर उस पर चढ़ना बंद कर दूं और वह मौज करे ।  लेकिन " तू डाल डाल तो मैं पात पात " की रश्म निभाने में रमा था । मैं पार्क में जाकर जाॅगिग करता , दौड़ लगाता , अनुलोम विलोम , कपाल भाँति करता , कमरे में आकर फिर एक्सरसाइज़ करता । खान पान में सही से परहेज करता । जब वजन लेने की बारी आती तो मशीन मोहतरमा दगा दे जाती थी ।  वजन मशीन पतले लोगों के हक में होती है । उनक

सांझे बोले चिरई बिहाने बोले मोरवा

 मुरारपट्टी गाँव मुरार बाबा ने बसाया था । मुरार बाबा पाठक ब्राह्मण थे । वे लखनऊ के नजदीक के किसी गाँव से यहाँ आकर बस गये थे । आज उनके वंशज इस गाँव में तकरीबन 300 परिवार हो गये हैं। कहने को तो कुछ तिवारी परिवार भी हैं , लेकिन इस गाँव में पाठक ब्राह्मणों का हीं वर्चस्व है । मेरे पिता को सभी कमासुत पाठक के नाम से जानते थे । वे कमाई धमाई कुछ नहीं करते थे । इसलिए घर और बाहर वाले उन्हें व्यंग्य से " कमासुत " कहते थे । वे केवल आस पास के गाँवों में भ्रमण किया करते थे । खाने पीने की कहीं कमी नहीं होती  । हर कोई उनको अपने यहाँ भोजन के लिए बुलाना चाहता था । मेरे पिता खा पीकर बड़ी तेज आवाज में जयकारा लगाते थे । मेरी माँ मुझे बचपन में छोड़कर चली गयी थी । पिता का परिवार पर बहुत दबदबा था । हम सभी भाई उनसे बहुत डरा करते थे । बहुएं भी बहुत डरतीं थीं । वे कभी कभार डंडा लेकर आंगन में घुस जाते थे । बहुओं को भागकर घरों में छिपना पड़ता था । ऐसे में डोकटी गाँव में सुमेर सिंह का नाच आया । सुमेर सिंह उस दौर के बी ए पास थे । उनका मन नाट्य मंडली में रमा था । इसलिए उन्होंने नौकरी नहीं की । वे सबसे पहले मुक

स्पर्श तुम्हारा

 हर स्पर्श कुछ न कुछ कहता है । कंधे पर दोस्त का स्पर्श विना लाग लपेट के कहता है - मैं हूँ न। माँ का सिर पर हाथ " जुग जुग जियो मेरे लाल " का आशीर्वचन कहता है । बच्चों के छोटे हाथ माँ का स्पर्श कर वात्सल्य रस की रचना करते हैं  । एक जादू की झप्पी आपको एक झटके में परमानंद की प्राप्ति करा देता है । हर स्पर्श का स्वाद व आन्नद अलग अलग होता है । स्पर्श उतना हीं जरुरी है जितना कि हवा , पानी,  भोजन व सांस ।  स्पर्श सक्रिय और निष्क्रिय दोनों तरह के होते हैं । इसका अनुभव स्पर्श से हीं हो जाता है । कुछ लोग ऐसे हाथ मिलाते हैं जैसे बेगार टाल रहे हों । कुछेक गर्मजोशी से हाथ मिलाते हैं । गर्मजोशी से हाथ मिलाने वाले लोग जल्दी हीं गले भी मिलने लगते हैं । हाथ मिलाने व गले मिलने के बीच एक बड़ा बखवा होना चाहिए । हाथ मिलाने से लेकर गले मिलने की बीच की दूरी लम्बी होनी चाहिए । वशीर बद्र कहते हैं-  कोई हाथ भी न मिलाएगा,  जो गले मिलोगे तपाक से । स्पर्श अच्छा व बुरा दोनों तरह का होता है । बच्चों को बुरे स्पर्श से बचाकर रखना चाहिए । जिस तरह से माँ को फिक्र होती है कि बच्चे ने स्कूल में लंच खाया कि नहीं ।

शराब चीज हीं ऐसी है

 चिकना मतलब तला हुआ । हाँ  जो घी तेल युक्त हो । इसी चिकना से चकना बना होगा । और कालांतर  में इसे चखना कहा जाने लगा । चखना को स्नैक भी कहा जाता है । शराब पीने से पेट में अम्लता बढ़ती है । इस अम्लता को कम करने के लिए चखना क्षारीय होना चाहिए  । आम तौर पर चखना के रुप में  मूंगफली, मूंग दाल , अण्डे की भुर्जी  इस्तेमाल किया जाता है । अक्सर लोग डाक्टर के पास यह पूछने के लिए जाते हैं कि वे शराब के साथ चखने के रुप में क्या खाएं कि कम से कम नुकसान हो । मेरा मानना है कि शराब को पचाने के लिए लीवर को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है । ऐसे में आप चखना के तौर पर तली हुई चीजों को इस्तेमाल कर रहे हैं तो लीवर को और अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ेगा । बेहतर है कि आप चखना के रुप में  गाजर,  टमाटर,  पपीता , प्याज और खीरा का इस्तेमाल करें । लीवर को खट्टे फल बहुत पसंद है । संतरा ,मौसमी व नीबू के रस से लीवर की सफाई हो जाती है । फैटी लीवर में भी खट्टे फल बहुत मुफीद होते हैं । यदि आप कम शराब का सेवन कर रहे हैं तो यह बहुत कम मायने रखता है कि आप चखना में क्या खा रहे हैं । यदि चखने में केवल नमक हो तो भी चलेगा ।  आपको एक दिन मे

ये नयन डरे डरे,,

 पांतछुक मेरी पहली पोस्टिंग थी । पांतछुक में तकरीबन मैं चार साल से ज्यादा रहा हूँ । यहीं पर मेरी मुलाकात अशरफ से हुई थी । रंग उसका काला था । काश्मीरियों की तरह वह भी फिरन पहनता था । बोली भी कश्मीरी थी , लेकिन कुछ बात तो ऐसी थी जो उसे कश्मीरी लोगों से अलग रखती थी । जी हाँ,  उसका अगले टोन था । वह हिंदी बोलते समय भी लहजा बिहारी हीं  रखता था । आम तौर पर कश्मीरी  हिंदी या उर्दू बोलते समय एक खास लहजे में बात किया करते थे ।  अशरफ एक दिन मेरे दफ्तर में किसी काम से आया था । मैंने उससे पूछा था -  "तुम रहने वाले कहाँ के हो ? रंग रुप और बोलने के लहजे से तो तुम किसी भी तरह से कश्मीरी नही लगते ।" अशरफ हँसा था -  "सर,  मैं आपके पड़ोस के जिले छपरा का रहने वाला हूँ ।" बातों हीं बातों में पता चला था कि वह जेवन गाँव में रहता है । पहले ट्रक पर खलासी का काम करता था । धीरे धीरे अब ट्र्क चलाना भी सीख लिया है । अब वह ट्रक ड्राइवर बन गया है । साथ हीं अपने मालिक की बेटी के दिल का मालिक भी बन बैठा है । मैंने पूछा था -  " क्या लड़की के घर वालों को पता है कि तुम उनकी लड़की को प्यार करते हो ?&

अंतराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस

 साल 1952 की तारीख 21 फरवरी थी । आज के हीं दिन बांग्लादेश के ढाका विश्वविद्यालय में बांग्ला भाषा के लिए एक प्रदर्शन आयोजन किया गया था । इस प्रदर्शन का समर्थन समाजिक कार्यकर्ताओं ने भी किया था । पाकिस्तान सरकार बांग्लादेशियों पर उर्दू थोप रही थी । प्रदर्शन उग्र हुआ तो पाकिस्तानी सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी । इस प्रदर्शन में  ढेर सारे छात्र और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मौत हुई थी । बाद में  जब अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाने की बात उठी तो 21 फरवरी का चयन किया गया । यह दिवस 21 फरवरी  2000 से आज तक लगातार मनाया जा रहा है  मातृभाषा को दूधबोली भी कहा जाता है । आजकल दूध बोली अतीत की बात होती जा रही है। कारण, कोई भी दूध बोली बोलने में अब शर्म महसूस करता है । यही हाल रहा तो एक दिन आपकी मातृ भाषा मर जाएगी । हर घर में लोग हिंदी बोलने लगे हैं । कुछ लोग तो हिंदी को हीं मातृ भाषा कहने लगे हैं । अगर हिंदी मातृ भाषा है तो सम्पर्क भाषा किसे कहेंगे  ? कुछ लोग कहते हैं कि हम अपनी मातृ भाषा समझ लेते हैं, पर बोल नहीं पाते । तो बोलने के लिए क्या किराए के आदमी अाएंगे ?  जब आप मातृ भाषा को बोले

जेमिनी स्टूडियो

मेरी उम्र तब 6 वर्ष की थी । हबड़ा ,बंगवासी सिनेमा हाल में "घराना " पिक्चर लगी थी । पिक्चर की शुरूआत में दो जुड़वा बच्चों को विगुल बजाते हुए दिखाया गया था । जिस प्लेटफार्म पर वे खड़े थे , उस पर लिखा था -GEMINI . मतलब कि यह फिल्म जेमिनी स्टूडियो द्वारा बनाई गयी है ।  जेमिनी स्टूडियो के संस्थापक एस एस वासन थे । उन्होंने इसकी स्थापना सन् 1940 में किया था । उससे पहले यह स्टूडियो MPPCS (Motion Picture Producers' Combines ) के नाम से जानी जाती थी । एस एस वासन ने यह स्टूडियो 86 हजार से कुछ ऊपर रूपए देकर इसे नीलामी में खरीदी थी । इसका  नया नाम रखा - जेमिनी स्टूडियो । 1941 में वासन ने मदन कामराजन , के रामनाथ ( कैमरामैन ) , ए के शेखर (आर्ट डायरेक्शन ) के साथ मिलकर इस स्टूडियों में कई परिवर्तन किए । जेमिनी स्टूडियो में तमिल , तेलगू , हिंदी व मलयालम भाषाओं की फिल्में बनती थीं । सबसे पहली फिल्म " जीवन मुक्ति " (1942) थी , जो तेलगू में बनी थी । 1948 में जेमिनी के बैनर तले फिल्म " कल्पना" बनी थी , जिसमें सुप्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर का नृत्य दर्शाया गया था । दिलीप कुमार और र

सर्द रात का पहाड़ी सफर

 श्रीनगर लेह राजमार्ग आधिकारिक तौर पर बंद हो गया था । ट्रक वाले और निजी वाहनों वाले अपने अपने रिस्क पर आ जा रहे थे । ट्रक वाले श्रीनगर से फल , सब्जियाँ , हार्डवेयर और अन्य किराने का सामान लेह लाते थे । जाते समय वे खाली जाते थे । ऐसे में एक दो सवारी बिठा लेते थे । उनके रास्ते का खर्च निकल जाता था ।  मुझे भी मसूरी कोर्स के लिए जाना था । यह कोर्स पदोन्नति के लिए था । इसलिए जाना जरुरी था । मैं फ्लाइट पकड़ना चाहता था , पर सीट नहीं मिली । सैलानियों ने बुक कर लिया था । ठंड की शुरुआत हो चुकी थी । इसलिए कोई सैलानी लेह में टिकना नहीं चाहता था । अब मेरे लिए ट्रक का हीं सहारा रह गया था । वैसे लेह से कारगिल तक बसें चल रहीं थीं । मैंने लेह से कारगिल का सफर बस से पूरा किया । कारगिल में आई टी बी पी का ट्रांजिट कैम्प था । रात्रि विश्राम वहीं किया । सुबह कारगिल से श्रीनगर के लिए ट्रक की सवारी की । ट्रक में ड्राइवर , खलासी  के अतिरिक्त एक लड़की भी सफर कर रही थी । लड़की श्रीनगर की रहने वाली थी । वह कारगिल के किसी प्राइमरी स्कूल में टीचर थी । उसे भी जाना जरुरी था । उसकी माँ को हार्ट अटैक आया था । माँ श्रीनगर

बदमिया

 जब से मैंने होश सम्भाला बदमिया को गाँव में हीं देखा था । छोटे कद की थी बदमियां । रंग सांवला । चेहरे पर चेचक के दाग थे । चलती ऐसे जैसे फुदक रही हो । मेरे घर के पास हीं कुंआ था । वह गगरा लेकर पानी भरने आती थी । कई बार वह हमारे घर भी आती । उसके पास बातों का खजाना होता था । बातों में मशगूल हो वह भूल जाती थी कि वह पानी भरने आई थी । जब बाप चिल्लाता तो वह जल्दी जल्दी पानी लेकर भागती हुई घर जाती । कई बार मेरे घर के सामने से बाप गुजरता तो वह हमारी कोठरी में छिप जाती । कहते हैं कि बदमिया की शादी भी हुई थी । वह ससुराल में कुछेक महीने हीं रही थी । पता नहीं बदमिया को ससुराल पसंद नहीं आई या ससुराल को बदमिया पसंद नहीं आई । एक बार ससुराल से बदमिया घर आई तो फिर कभी ससुराल नहीं गयी । ससुराल वालों ने भी कभी बदमिया की सुधि नहीं ली । शायद उन लोगों ने अपने बेटे की शादी कहीं अन्यत्र कर दी थी । बदमिया दूसरी दूसरी बातें करती थी । कभी भूले से भी अपने ससुराल का जिक्र नहीं करती । बदमिया अक्सर परामनोविज्ञान की बातें किया करती थी । दशहरा चढ़ते हीं वह भूत दूत की बातें करनी लगती। वह हमें आगाह करती । रास्ते में फूल स

औरत मार्च

 आज भी रुढवादियों का कहना है कि औरत की जगह चादर और चारदिवारी में है । हमारे गाँव में भी जवान औरतें चारदिवारी में हीं कैद रहतीं रहीं हैं । जब कभी वे बाहर निकलती तो एक मध्यम आकार का चादर ओढ़कर हीं बाहर निकलतीं । साथ में घूंघट भी काढ़ लेतीं थीं । अब जब महिला दिवस मनाया जाने लगा है तो कुछेक लोगों की आंखें आश्चर्य से फैलने लगीं हैं । पहली बार न्यूयार्क की सड़कों पर 15 हजार महिलाओं ने धरना प्रदर्शन किया था । उनकी मांग थी कि उन्हें भी वोट का अधिकार मिलना चाहिए । उनके काम करने के घण्टे कम किए जांए , लेकिन वेतन पुरुषों के बराबर मिलें । उन्हें घर पर भी काम करना होता है । औरतें आज  घर और बाहर दोनों जगह काम करतीं हैं । उनके काम करने का समय पुरुषों के बराबर हीं है , पर वेतन उनसे कम मिलता है । वैसै औरतें घर आकर भी काम करतीं हैं । उस काम का कोई मूल्यांकन नहीं होता । घर उनका है तो घर का काम भी उनका हीं है । उसमें घर के किसी पुरुष सदस्य ने मदद कर दी तो यह उनका बड़ा एहसान माना जाता है ।  पिछले तीन सालों से पाकिस्तान में महिला दिवस के मौके पर " औरत मार्च " का आयोजन होने लगा है । इस आयोजन से रुढिव

औरतों का दिमाग उनके घुटनों में होता है

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 जब औरतों ने लिखना शुरू किया तो उन्हें बहुत डर लगा था । उनका डर वाजिब था । उस दौर में पुरुष लेखक औरतों को कोई भाव नहीं देते थे । उन्हें कोई गम्भीरता से नहीं लेता था । यही कारण था कि फ्रांस की कोलेत ने जो भी लिखा अपने पति के नाम से लिखा । कोलेत के पति बैठे बिठाए एक बड़े लेखक बन गये । कोलेत बेचारी आजीवन नेपथ्य में रही । मेरी इन इवान ने भी पुरुष नाम से लिखा था । जार्ज इलियट एक काल्पनिक पुरुष नाम था । मेरी इन इवान ने मइस नाम से एक उपन्यास लिखा था । उपन्यास का नाम " मिडिल मार्च " था । उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ । बाद में इस उपन्यास पर " लिटिल गर्ल " नाम से एक फिल्म भी बनी थी । एल्काट भी ए एम वर्नाड के नाम से लिखतीं थीं । औरत खुद लिखे तो लोग विश्वास नहीं करते थे । उस समय की मान्यता थी कि औरतों के पास दिमाग नहीं होता । होता भी है तो वह उनके घुटनों में होता है । प्रेमचंद की पत्नी थीं शिवरानी देवी । जब शिवरानी देवी ने अपने नाम से लिखना शुरू किया तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ । लोगों ने कहा कि लिखते प्रेमचंद हैं और नाम होता है शिवरानी देवी का । शिवरानी देवी ने " प्रेमचंद घर

स्वागत गान करेगा कौन ?

 राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर जिलों की सीमा पर एक गाँव है देवड़ा । इस गाँव में लड़कियों को पैदा होते हीं मार दिया जाता है । मारने के तरीक़े भी बड़े लोम हर्षक हैं । नवजात शिशु से निजात पाने के लिए उसके मुंह में नमक ठूस दिया जाता है ।उसका गला दबा दिया जाता है या उसके मुँह पर भारी भरकम तकिया रख दिया जाता है । ये तरीके बड़े हीं निर्दयी हैं । इसमें बच्ची तड़प तड़प कर मरती है । एक और भी तरीका है , जिसमें बच्ची को जरा भी तकलीफ नहीं होती है । बच्ची को अफीम की डोज ज्यादा मात्रा में दे दी जाती है । बच्ची नींद में हीं  चल बसती  है ।                                                                         जैसलमेर और बाड़मेर  इलाके में लिंगानुपात  क्रमशः 897 व 791है । इतनी कम संख्या होने के कारण बहुत से पुरूषों को कुंआरा रहना पड़ रहा है । राजस्थान में बहुत से ऐसे गाँव हैं, जहाँ लड़कियों का दीदार बड़ी मुश्किल से होता है । ऐसे गाँव  के लोग कभी बड़े फक्र से कहा करते थे कि हमारे गाँव में बारात नहीं आती है । हरियाणा में भी लड़कियों की बहुत कमी है । पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है । ऐसे में लो

खांटी घरेलू औरत

 राजेंद्र यादव ने कभी अपनी पत्नी को खांटी घरेलू औरत कहा था । इसका प्रतिकार खुद मन्नू भण्डारी ने किया था । और बहुत से साहित्यकार और पाठकों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी । ममता कालिया ने तो इस पर कविता भी लिख मारी थी -  उसका दिन कतर ब्यौंत में                                              निकल जाता है                                                              और रात उधेड़बुन में  अगर ऐसा है तो वह सोती कब है ? इस तरह से किसी को महिमामण्डित करना उसकी प्रशस्ति गाने के सिवा कुछ भी नहीं है । मेरा मानना है कि हर औरत घर में एक खांटी घरेलू औरत है । कहते हैं कि घर घरवाली का होता है । गृह से गृहिणी बना है । गृह से गृहणा बनते कभी नहीं देखा है । हां इसलिए घर के साम्राज्य पर घरवाली का दखल होता है । वह नहीं चाहती कि घर पर किसी और का नियंत्रण हो ।  औरत घर में रहकर भाव खाती है । चाहे बाहर वह डाक्टरनी , मास्टरनी या साहित्यकार कुछ भी हो । उसके हुकुम के बिना घर में पत्ता भी नहीं खड़कता । यदि पत्ता खड़कता है तो क्लेश होता है । यह क्लेश जब रौद्र रुप धारण करता है तो भी औरत टस से मस नहीं होती है । वह समझौतावाद

बाद मुद्दत के उन्हें देखकर यूँ लगा

 बीटीसी भानु आई टी बी पी से फोन था । पता चला कि आई जी पी एस पपटा ने डिनर पर सेवानिवृत्त अधिकारियों को बुलाया था । सुनकर बहुत अच्छा लगा । जिंदगी एक ढर्रे पर चल रही थी । अब सर्विस के दौरान के नये/पुराने दोस्तों से मिलकर जीवन में कुछ हलचल होगी । बीती बातों की कहानियाँ बीटीसी भानु की फिजाओं में तैरेंगी । हम जैसे बुजुर्गों के नीरस जीवन में सरसता का उद्भव होगा । शांत पड़े जीवन सरोवर में कुछ तो हलचल होगी । सेवानिवृत्त लोगों के जीवन पर बालसरुप राही का ये शे'र बहुत कुछ कह जाते हैं - बुजुर्गों में हमारा नाम भी शामिल हुआ शायद                        पड़े हैं एक कोने में गजब फुर्सत के दिन आएं चलो " राही " आज पुराने दोस्तों के पास हो आएं                  कुछ तो तस्सली दिल की हो बड़ी आफत के दिन आएं तय हो गया कि जाना है । 5 फरवरी को 6 बजे आई टी बी पी की गाड़ी आई । मैं तो तैयार था , पर श्रीमती जी तैयार होने में समय लगा रहीं थीं । मुझे कान में बहुत ठंड लगती है । एक अदद टोपी की दरकार थी । लेकिन श्रीमती जी से टोपी मांगना बर्रे के छत्ते पर हाथ लगाने के बराबर था । एक पुरानी टोपी मिली । उसी को पहनक