सांझे बोले चिरई बिहाने बोले मोरवा

 मुरारपट्टी गाँव मुरार बाबा ने बसाया था । मुरार बाबा पाठक ब्राह्मण थे । वे लखनऊ के नजदीक के किसी गाँव से यहाँ आकर बस गये थे । आज उनके वंशज इस गाँव में तकरीबन 300 परिवार हो गये हैं। कहने को तो कुछ तिवारी परिवार भी हैं , लेकिन इस गाँव में पाठक ब्राह्मणों का हीं वर्चस्व है ।

मेरे पिता को सभी कमासुत पाठक के नाम से जानते थे । वे कमाई धमाई कुछ नहीं करते थे । इसलिए घर और बाहर वाले उन्हें व्यंग्य से " कमासुत " कहते थे । वे केवल आस पास के गाँवों में भ्रमण किया करते थे । खाने पीने की कहीं कमी नहीं होती  । हर कोई उनको अपने यहाँ भोजन के लिए बुलाना चाहता था । मेरे पिता खा पीकर बड़ी तेज आवाज में जयकारा लगाते थे । मेरी माँ मुझे बचपन में छोड़कर चली गयी थी ।

पिता का परिवार पर बहुत दबदबा था । हम सभी भाई उनसे बहुत डरा करते थे । बहुएं भी बहुत डरतीं थीं । वे कभी कभार डंडा लेकर आंगन में घुस जाते थे । बहुओं को भागकर घरों में छिपना पड़ता था । ऐसे में डोकटी गाँव में सुमेर सिंह का नाच आया । सुमेर सिंह उस दौर के बी ए पास थे । उनका मन नाट्य मंडली में रमा था । इसलिए उन्होंने नौकरी नहीं की । वे सबसे पहले मुकुंदी भाड़ की नाच मण्डली में काम करते थे । बाद में खुद की एक मण्डली बनाई ।  सुमेर सिंह एक कुशल नर्तक थे । वे थाली की किनारी पर बखूबी नाच लेते थे ।

तय किया गया कि सुमेर सिंह का नाच जरुर देखने जाएंगे । पिता को इस बात का पता न चले इस बात का भी ख्याल रखा गया । चारपाई पर उपले  बिछा दिए । उन उपलों पर चादर डाल दिए गए । लगने लगा कि इन चापाइयों पर कोई न कोई सोया है । पूर्ण इत्मीनान हो जाने के बाद हम गाँव से निकल पड़े थे । 

मुरारपट्टी गाँव के बाहर हीं धोबियों का मोहल्ला था । उनके घरों के आगे गधे बंधे थे । बेगदू तिवारी ने सलाह दी कि इन गधों का सदुपयोग किया जाए ।  गधे खूंटे से खोले गये । एक एक गधे पर एक एक सवार बैठे । मैं और मेरे भाई एक हीं गधे पर सवार हुए । गधों का कारवाँ दोकटी की तरफ चल पड़ा । दो तीन कोस की दूरी तय करने पर हमें ट्यूब लाइट की रोशनी दिखाई देने लगी । हम रोमांचित हो उठे । हमने पहली बार ट्यूब लाइट की रोशनी देखी थी । हमारे घरों में ढिबरी जला करती थी । गाँव में बिजली का आगमन तो बहुत दिनों बाद हुआ था ।

हमारे पहुँचने से पहले नाच शुरू हो गया था । सुमेर सिंह की नाच मण्डली में एक बाई जी थीं । वह बहुत कमसीन थीं । लोग प्यार से उसे चुनमुनिया कहते थे । चुनमुनिया उस समय का मशहूर गीत " सांझे बोले चिरई बिहाने बोले मोरवा कोरवा छोड़ द बलमू " गा रही थी । लोग झूम रहे थे । हम भी गाने के साथ साथ झूमने लगे । गाना खत्म हुआ । चुनमुनिया पर्दे के पीछे चली गयी । लोगों का तिलिस्म टूट गया ।

मंच पर अबकी सुमेर सिंह आए । उन्होंने आते हीं अपने नाच से दर्शकों का दिल जीत लिया । उन्होंने अभी एक हीं गीत गाया था कि दोकटी गाँव के एक कुख्यात डकैत तेजन सिंह अपने दल बल के साथ पधारे । उन्होंने आते हीं " सांझे बोले  चिरई ,,,, " गाने की फरमाइश कर दी । सुमेर सिंह ने कहा -

" यह गीत गाया जा चुका है । आप लोग दूसरे अन्य दो चार गीत सुनिए । फिर इस गीत को भी सुनाएंगे । "

सुमेर सिंह पहले अपनी पसंद के दो चार गीत सुनाते थे , फिर जनता की पसंद के गीत सुनाते थे । तेजन सिंह ने इसे अपनी अवमानना माना । उसने अपनी बंदूक की नली सुमेर सिंह की तरफ कर दी । सुमेर सिंह भी राजपूत थे । उनके खून में भी उबाल आ गया । उन्होंने भी साड़ी में छिपाकर रखी अपनी पिस्टल निकाल ली । दोनों तरफ से हवाई फायर खूब हुए । शामियाना छलनी हो गया । उसे मच्छरदानी बनते देर नहीं लगी । जेनरेटर बंद कर दिया गया । ट्यूब लाइट की रोशनी अंधेरे में तब्दील हो गयी ।

हम सभी भागे । रोशनी न होने के कारण हम सभी बबूल के जंगल में फंस गये । अनगिनत कांटे शरीर में चुभ गये थे । भागते हुए घर पहुँचे । कमासुत जाग रहे थे । फायर की आवाज वे सुन चुके थे । उनके पास एक मोटा दुःखहरन  (डंडा ) हमेशा रहता था । उससे हमारी खूब मरम्मत की । नाच भी नहीं देख पाए । मार से अलग से पड़ी ।

इस भागमभाग में गधे वहीं छूट गये  थे ।

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