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दिसंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खाक हो जाएंगे तुमको खबर होने तक.

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पूर्वांचल और बिहार में प्रसिद्ध लौंडा नाच का उद्भव कब और कैसे हुआ ? इसका कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है. नाच की विधा  अक्सर राजा महाराजाओं के मनोरंजन से हीं जुड़ी होती थी. उनके पास नर्तकियां होती थीं, जिन्हें राज नर्तकी कहा जाता था. ऐसी हीं एक नर्तकी थी -आम्रपाली . एक प्रसिद्ध राजनर्तकी ,जो बाद में बौद्ध भिक्षुणी बनीं . पौराणिक कथाओं में भी मेनका, रम्भा ,उर्वसी आदि राज नर्तकियों का उल्लेख मिलता है, जो ऋषि महर्षियों के तप भंग करने के काम आती थीं. मुगल काल में तवायफें होती थीं, जिन्हें चाहने वाले राजा, महाराजा, जमींदार व अन्य धनाढ्य वर्ग के लोग थे . बच गया मध्यम और निम्न वर्ग ,जिनके पास मनोरंजन का कोई साधन नहीं था. इन लोगों के लिए लौंडा नाच बना, जिसमें पुरूष हीं औरत बन नाच के द्वारा इस वर्ग का मनोरंजन करना शुरू कर दिया. लौंडा नाच का क्रेज नब्बे के दशक तक खूब चला. लोग लाठी व टार्च लेकर दूर दूर तक चले जाते थे. रात भर नाच देखते थे. घर आकर दिन भर लम्बी तान सोते थे. ऐसे लोग नचदेखवा के नाम से प्रसिद्ध हुए.  कई घरों में बड़े बुजुर्ग नाच देखने को सही नहीं मानते थे. वे जवानों पर नाच देखने पर प्रतिब

जहर से अब आराम हुआ है.

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पोटेशियम सायनाइड (KCN) एक यौगिक होता है, जो रंगहीन, दिखने में चीनी जैसा व  पानी में घुलनशील होता है. KCN को सोने की खदानों, आर्गेनिक सिनथेशिस और इलेक्ट्रोप्लेटिंग में इस्तेमाल किया जाता है. छोटे पैमाने पर यह आभूषणों के केमिकल gilding (सोने का पानी चढ़ाना)  और buffing (पालिश करना) के काम आता है.यह एक तीक्ष्ण जहर है. एक बार चाय पीते और साथ में काम करते समय यह जहर बहुत हीं अल्पतम मात्रा में एक कर्मचारी के पेट में चला गया . डाक्टरों की टीम ने कई घंटों के अथक प्रयास के बाद उसे बचा लिया. यह पहला मौका था कि पोटेशियम सायनाइड के जहर से प्रभावित व्यक्ति को बचाया जा सका. इसका एक कण जुबां पर रखते हीं अादमी की मौत हो जाती है. इसका मतलब कि एक कण का सौवां हिस्सा वह जहर होगा, जिसके कारण उसकी जान बची. आज तक कोई भी पोटेशियम सायनाइड का स्वाद बता नहीं पाया है. कई वैज्ञानिक इस प्रयास में अपनी जान गंवा बैठे हैं. जहर खाते समय हीं वे लिखना शुरू कर देते , पर कोई भी S से आगे नहीं लिख पाया. S से Sweet भी हो सकता है और Sour भी. वैज्ञानिकों के अकारण मौत को देखते हुए इस प्रयोग को बन्द करना पड़ा. बाद में एक भारतीय न

अब अठन्नी का रहा न कोई मोल ..

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आज सुबह की सैर के बाद शर्मा जी की दूकान पर पहुंचा. शर्मा जी ने एक सज्जन को एक रुपए के बदले में दो अठन्नियां दीं. अपनी रौ में वे सज्जन चल पड़े. वे कुछ दूर जाकर वापस लौटे. बोले, " अब अठन्नियां प्रचलन में नहीं रहीं. मुझे तो आप एक रुपया हीं दे दो. " शर्मा जी ने उन्हें एक रूपया दिया. उन अठन्नियों को कूड़े के ढेर पर यह कहकर फेंक दिया कि ये दो बार मुझे लौटाई जा चुकी हैं. इनकी असली जगह यहीं है. वित्त मंत्रालय चाहे जो कहे, पर आम जनता ने अठन्नी का चलन बन्द कर दिया है. भिखारी भी अठन्नी देख घूरते हैं ,मानों कह रहे हों,"क्या तेरी औकात अठन्नी भर की है? " भाइयों रुपए का अवमूल्यन हो रहा है तो अठन्नी की औकात भी घट रही है. जो अठन्नी का साथ देगा उसकी औकात अठन्नी भर रह जाएगी. अब हमें मुहावरों में भी रद्दोबदल करना पड़ेगा. एक मुहावरा है, "आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपैया ". कहीं भला अठन्नी की गिनती आमदनी में होनी चाहिए ? अठन्नी कोई आमदनी होती है ? ये तो सरासर आमदनी की तौहीन है. अब नया मुहावरा गढ़ा जाना चाहिए ,जो रुपए के अवमूल्यन के परिपेक्ष्य में हो. कभी बिस्मिल्ला खां बनारस के पंच ग

छमियो चूक हमारी.

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रामानन्द अपनी जिन्दगी में हीं मिथ बन गये थे. उनकी शोहरत बलिया के रेवती कस्बे से दूर दूर देहात व सरयू के कछार तक फैली हुई थी. कहते हैं कि रामानन्द पारम्परिक चिकित्सक नहीं थे. उनके पास शायद आर एम पी की भी डिग्री थी या नहीं , मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता. उनके सीने में जो दिल धड़क रहा था, वह बन्दर का था. उन दिनों जहां पांच दस आदमी बैठते, वहां डाक्टर रामानन्द के चर्चे हुआ करते थे. बन्दर का दिल होने के कारण वे ज्यादा दूर तक चल नहीं पाते थे. जो भी उन्हें अपने यहां बुलाता उनके लिए पालकी का अवश्य इन्तजाम करता. बाद के दिनों में आम जनता की पालकी का खर्च वहन न कर पाने के सबब से वे फटफटिया (मोटर साइकिल) पर चलने लगे थे. हम मोटरसाइकिल को फटफटिया कहा करते थे. एक बार उनका फटफटिया हमारे गांव में हीं खराब हो गयी .उन्हें फटफटिया वहीं छोड़ रेवती तक पैदल जाना पड़ा. बाद में हमारे गांव के उनके रिश्तेदार लक्ष्मी बढ़ई उस फटफटिया को उनके घर छोड़ आए थे. एक सज्जन राम वृछ यादव,  जो बंगाल पुलिस में हवालदार के पद पर नियुक्त थे, को तपेदिक हो गया. उस समय तपेदिक एक जानलेवा बीमारी थी. कलकत्ता के डाक्टरों ने जवाब दे

कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया.

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बैल गाड़ी एक प्राचीन परम्परागत यातायात का साधन है. इसका डिजाइन सरल है. पहले लकड़ी के पहियों  पर लोहा चढ़ा होता था । लकड़ी, भूसा, ईंट, सवारी सब कुछ ढोने वाली यह बैल गाड़ी हर गांव में प्रति तीन या चार घर बाद एक घर में जरूर होती थी. इस  आदिम युग के गाड़ी के डिजाइन में देश काल परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं. आधुनिक काल में टायर वाली गाड़ी का चलन हुआ है. टायर की वजह से जहां इसकी गति में बढ़ोत्तरी हुई है वहीं दो की जगह एक हीं बैल से काम चलने लगा है. मेले ठेले में लोग अपने अपने बैलों को सजा संवार के ले जाते थे. उनके सिघों में तेल लगा रंगीन धागे बांधा करते थे .गाड़ियों में रंग विरंगे कपड़े लगे होते थे . बैलगाड़ियों की दौड़ की प्रतियोगिता होती थी. जीतने वालों को शील्ड प्रदान किया जाता था. कई गाड़ीवान तो पूरे साल भर से इस प्रतियोगिता की तैयारी करते थे. बैलों के खान पान में खली, बिनोला व उत्तम कोटि के भूसा रखते थे. जिस दिन प्रतियोगिता होती थी उस दिन तो जीने मरने का प्रश्न खड़ा हो जाता था. आज फिर जीने की तमन्ना है. आज फिर मरने का इरादा है. पुरानी फिल्मों में काफी आंचलिकता होती थी. दो बीघा

मेरी सांसों में तेरी महक बाकी है.

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पीनाज मसानी. अस्सी के दशक में यह नाम बहुत चमका था. उन दिनों गजल की दुनियाँ में यह नाम काफी जाना पहचाना था. दूरदर्शन पर पीनाज मसानी के गजलों ने धूम मचा दी थी. हालांकि पीनाज मसानी ने संगीत की दीक्षा प्रसिद्ध गजल गायिका मधुरानी से ली थी, पर उनके कैरियर को चमकाने वाले थे -संगीतकार जयदेव. सन् 1978 में संगीत के एक प्रतिस्पर्धा में पीनाज मसानी नम्बर वन चुनी गईं. उस प्रतिस्पर्धा के जज थे संगीतकार जयदेव. जयदेव ने पीनाज की आवाज की जादूगरी से प्रभावित हो उनसे कुछ फिल्मों में पार्श्व गायिकी करवाई थी. अस्सी का दशक गजलों के लिए जाना जाता है. उन दिनों जगजीत सिंह, भूपेन्दर सिंह, पंकज उदास, अनूप जलोटा,राजकुमार रिजवी और तलत अजीज आदि भारतीय गजल गायकों का दौर था. यदि इस दशक को गजल का स्वर्णिम काल कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. गजल गायकों में गोल्डेन व प्लेटिनम डिस्क की होड़ मची थी. इस होड़ में पीनाज मसानी भी शामिल हो गईं. पीनाज को भी प्लेटिनम डिस्क मिला. नब्बे के दशक तक गजल का जल्वा उतार पर पहुंच गया. पीनाज मसानी ने भी गजलों से तोबा कर ली. आजकल वे स्टेज पर लटके झटके वाले फिल्मी गीत गाकर अपना वजूद ब

टूटता विखरता परिवार, कौन जिम्मेवार.

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पहले संयुक्त परिवार का कांसेप्ट था. मनोविश्लेषकों के अनुसार जिस तेजी से लोग शिक्षित हुए हैं उतनी हीं तेजी से उनकी मानसिक स्थिति में भी बदलाव आया है.पहले एक आदमी कमाता था, दस बैठकर खाते थे. अब सभी को कमाना पड़ता है. नतीजा एकल परिवार का चलन हो गया. एकल परिवार में होने लगे हैं पति पत्नी और बच्चे. चाचा चाची, ताऊ व ताई को अलग कर दिया गया. इस एकल परिवार में मां बाप पेण्डुलम की तरह हो गये. कभी किसी बेटे बहू के साथ तो कभी किसी और बेटे बहू के साथ. एकल परिवार और भी विघटित होने लगा है. बाज दफा पति पत्नी भी एक दुसरे से अलग रहने लगे हैं . पति पत्नी के बीच अब बच्चे पेन्डुलम बन गए हैं. ये एकल परिवार हीं आज परिवार के बिखराव के जिम्मेवार हैं. पहले पति पत्नी में तनाव, मनमुटाव होता था तो संयुक्त परिवार ऐसा करने से रोकता था. घर के बड़े बुजुर्ग हस्तक्षेप करते थे, समझाते थे. परिवार टूटने से बच जाता था. अब बड़े बुजुर्ग हीं हाशिए पर चले गये हैं. उनके प्रति मान सम्मान में कमी कर दी गई है. बुजुर्ग ऐसे मामले में अब दूर हीं रहते हैं. आज की बहुएं अपने कर्तब्य के प्रति समर्पित न हो अपने अधिकार के प्रति सचेत हो गईं

महुए की बातें रह जाएंगी कहानी बनकर.

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अजब कहर बरपा है भाई महुए के मद का. महुए से जो शराब बनती है, वह वाकई बेमिशाल होती है. इस शराब को संस्कृत में मध्वी और आम बोल चाल की भाषा में ठर्रा कहते हैं. आदिवासी महुए की शराब को अपने पितरों और ईष्ट देवताओं को समर्पित करते हैं. शादी व्याह या गमी हो आदिवासियों में शराब पानी की तरह बहाया जाता है. ठर्रा और रेड वाइन में साम्यता यह है कि दोनों में पानी या सोडा वाटर नहीं मिलाया जाता है. दोनों को नीट पिया जाता है. अंतर यह है कि रेड वाइन को पीते समय चीयर्स बोला जाता है तो वहीं महुए की शराब में अंगुली डुबोके पहले जमीन पर छिड़का जाता है मानो कह रहे हों "तारीफ उस मृदा की, जिसने महुआ बनाया. " रही बात गुणवत्ता की तो यह वही बता सकता है, जिसने दोनों का रसास्वादन किया हो. संसार में किसी भी वृक्ष के फूलों से इतने व्यंजन नहीं बनते, जितने कि महुए से. महुए को उबालकर चने के सत्तू के साथ खाया जाता है. इसे सुखाकर रख लिया जाता है और पूरे साल भर इसका इस्तेमाल किया जाता है. महुए की रोटी, पूरी, ठेकुआ, लाटा, लपसी आदि व्यंजन बनाए जाते हैं. महुए से बने व्यंजन को "महुअरि "कहा जाता है .इसका फल पर

ये भी जीना हुआ किसी के लिए.

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जानवरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए, इसके लिए यथोचित अवेयरनेस लाने की जरूरत है. कई बार घने जंगलों में लोगों का साबका हिंसक जानवरों से हो जाता है. जो लोग धैर्य का परिचय देते हैं वे बच जाते हैं. विड़ाल प्रजाति के जानवर जैसे बाघ, शेर, चीता, गुलदार आदि की निगाहों में निगाहें न मिलाएं. आप कनखियों से देखते हुए सतर्क रहें. हो सकता है कि आपके द्वारा इग्नोर किए जाने से वह वहां से चला जाय. यदि वह आप पर आक्रमण करने का उपक्रम करे तो आप दोनों हाथ ऊपर उठा अपना आकार ज्यादा से ज्यादा बढ़ाएं. साथ हीं मुंह से तेज आवाज निकालें. विड़ाल प्रजाति के लिए तैयार यह नुस्खा मैंने कुत्तों पर भी आजमाया. वह भी एक बार नहीं दो बार. पहली बार मसूरी और दूसरी बार चंडीगढ़ में. ऐसा करने से कुत्तों ने भौंकना बन्द कर दुम हिलाना शुरू कर दिया. मैंने विड़ाल प्रजाति के जानवरों को भी इस नुस्खे के आजमाइस के दौरान डिसकवरी चैनल पर विल्कुल पानी पानी होते हुए देखा है. ऐसा क्यों होता है?  शायद उनको लगता होगा कि शेर को सवा शेर मिल गया है । यदि बाघ या कोई विड़ाली जानवर हमला कर दे तो विल्कुल सरेंडर न करें. आप जी जान से भिड़ ज

चल मेरी गदनी मिंजरा दे मेले ..

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हिमाचल प्रदेश के रावी नदी के किनारे स्थित चम्बा एक प्रमुख नगर है. समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 996 मीटर है. विख्यात कला पारखी और डच विद्वान डा. बोगला ने इस नगर की खूबसूरती से प्रभावित हो इसे Wonder (अचम्भा) कहा है. यहां की चम्बा रूमाल, चम्बा चप्पल, चम्बा चुख (मिर्च का अचार) जग प्रसिद्ध है. यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से प्रभावित हो देश विदेश के सैलानी आते हैं और यहां की यादें अपने कैमरों में कैद कर ले जाते हैं. राजा मारू भरमौर का शासक था. जब साहिल वर्मन (असली नाम शैल वर्मन) ने सत्ता सम्भाली तो उसकी पुत्री चम्पावती को भरमौर के इलाके से बेहतर एक और जगह लगी. उसने अपने पिता से उस जगह पर राज्य की राजधानी बनाने का अनुरोध किया. साहिल वर्मन अपनी बेटी चम्पावती की हर बात मानता था. उसने वहां राजधानी बनाने की सहर्ष अनुमति दे दी. वह जगह ब्राह्मणों के कब्जे में थी. महाराज साहिल वर्मन ने उन ब्राह्मणों को मनमाफिक कीमत देकर वह जगह खरीद ली. भरमौर से राजधानी उस जगह स्थानान्तिरत हुई. राजकुमारी चम्पावती के नाम पर उस जगह का नाम चम्बा रखा गया. चम्बा के शासक सूर्यवंशीय क्षत्रिय थे. इनके सम्बन्ध अयोध्या के सूर्यवंशी