अब अठन्नी का रहा न कोई मोल ..
आज सुबह की सैर के बाद शर्मा जी की दूकान पर पहुंचा. शर्मा जी ने एक सज्जन को एक रुपए के बदले में दो अठन्नियां दीं. अपनी रौ में वे सज्जन चल पड़े. वे कुछ दूर जाकर वापस लौटे. बोले, " अब अठन्नियां प्रचलन में नहीं रहीं. मुझे तो आप एक रुपया हीं दे दो. " शर्मा जी ने उन्हें एक रूपया दिया. उन अठन्नियों को कूड़े के ढेर पर यह कहकर फेंक दिया कि ये दो बार मुझे लौटाई जा चुकी हैं. इनकी असली जगह यहीं है.
वित्त मंत्रालय चाहे जो कहे, पर आम जनता ने अठन्नी का चलन बन्द कर दिया है. भिखारी भी अठन्नी देख घूरते हैं ,मानों कह रहे हों,"क्या तेरी औकात अठन्नी भर की है? " भाइयों रुपए का अवमूल्यन हो रहा है तो अठन्नी की औकात भी घट रही है. जो अठन्नी का साथ देगा उसकी औकात अठन्नी भर रह जाएगी. अब हमें मुहावरों में भी रद्दोबदल करना पड़ेगा. एक मुहावरा है, "आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपैया ". कहीं भला अठन्नी की गिनती आमदनी में होनी चाहिए ? अठन्नी कोई आमदनी होती है ? ये तो सरासर आमदनी की तौहीन है. अब नया मुहावरा गढ़ा जाना चाहिए ,जो रुपए के अवमूल्यन के परिपेक्ष्य में हो.
कभी बिस्मिल्ला खां बनारस के पंच गंगा घाट पर मंदिर के बाहर अठन्नी में शहनाई बजाया करते थे. ये वो दौर था जब एक, दो, पांच और दस पैसों का बाजार में चलन था. एक छेद वाला पैसा होता था, जो अक्सर बच्चों की करधनी में बंधा होता था. इस पैसे के दस लेमचूस आते थे. लेमचूस के लालच में एक बड़े बच्चे ने एक छोटे बच्चे की करधनी खुरपी से काट डाली थी. जल्दीबाजी में कमर के कुछ हिस्से भी छिल गये. दोनों बच्चों के परिवारों में काफी तू तू मैं मैं हुई थी. उन दिनों एक पैसे में दस लेमचूस ? आज एक अठन्नी में ठन ठन गोपाल ? बहुत ना इन्साफी है.
पहले चवन्नी गई. अब अठन्नी पर आफत है. खोमचे वाले, सब्जी वाले और ग्राहकों ने एक अघोषित रोक अठन्नी पर लगा दी है. सवाल पर जवाब, "अब अठन्नी में क्या आता है? " बाजार में अफवाहों के पंख लगे हैं कि जाने कब अठन्नी का चलन बन्द हो जाय ? भारत सरकार ने अठन्नी पर रोक नहीं लगाई है, परन्तु बाजार में एक स्वर में सबका कहना है कि अब अठन्नी कोई नहीं लेता.
30 जून सन् 2011 को चवन्नी की वैधता समाप्त कर दी गई थी. अब "राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के " जैसे चवन्नी छाप टपोरी गाने नहीं बजते. कभी महात्मा गांधी ने एक चवन्नी में कांग्रेस की सदस्यता शुरू की थी. गांधी के लिए उन दिनों नारा लगता था, " खरी चवन्नी चांदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की. " मेले के लिए बुजुर्ग अपने नाती पोतों को एक चवन्नी दिया करते थे. एक चवन्नी में एक पाव जलेबी मिला करती थी. उस महान चवन्नी की बिदाई हो गई. दिल तो दुःखेगा न ?
चवन्नी के बाद अब अठन्नी की बारी है. देश में बीते कुछ सालों से एक रुपए, दो रुपए, पांच रुपए और दस रुपए का चलन बढ़ा है, पर अठन्नी का कद दिन ब दिन घटा है.
चवन्नी बाजार से हुई गोल.
अठन्नी का न रहा कोई मोल.
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