महुए की बातें रह जाएंगी कहानी बनकर.

अजब कहर बरपा है भाई महुए के मद का. महुए से जो शराब बनती है, वह वाकई बेमिशाल होती है. इस शराब को संस्कृत में मध्वी और आम बोल चाल की भाषा में ठर्रा कहते हैं. आदिवासी महुए की शराब को अपने पितरों और ईष्ट देवताओं को समर्पित करते हैं. शादी व्याह या गमी हो आदिवासियों में शराब पानी की तरह बहाया जाता है. ठर्रा और रेड वाइन में साम्यता यह है कि दोनों में पानी या सोडा वाटर नहीं मिलाया जाता है. दोनों को नीट पिया जाता है. अंतर यह है कि रेड वाइन को पीते समय चीयर्स बोला जाता है तो वहीं महुए की शराब में अंगुली डुबोके पहले जमीन पर छिड़का जाता है मानो कह रहे हों "तारीफ उस मृदा की, जिसने महुआ बनाया. " रही बात गुणवत्ता की तो यह वही बता सकता है, जिसने दोनों का रसास्वादन किया हो.
संसार में किसी भी वृक्ष के फूलों से इतने व्यंजन नहीं बनते, जितने कि महुए से. महुए को उबालकर चने के सत्तू के साथ खाया जाता है. इसे सुखाकर रख लिया जाता है और पूरे साल भर इसका इस्तेमाल किया जाता है. महुए की रोटी, पूरी, ठेकुआ, लाटा, लपसी आदि व्यंजन बनाए जाते हैं. महुए से बने व्यंजन को "महुअरि "कहा जाता है .इसका फल परवल के आकार का होता है, जिसमें से गुठली निकालकर अवशेष की सब्जी बनाई जाती है. गुठली को "कोईना" कहते हैं, जिससे तेल निकाला जाता है. पके फल का गूदा मीठा होता है, जिसे बड़े चाव से खाया जाता है. कोईना से तेल निकाला जाता है, जो सब्जी बनाने और मालिश के काम आता है. महुए के फूल में विटामिन ए बहुतायत में होता है, जिसे खाने से लोगों के चश्मे उतर जाते हैं. महुए की तासीर ठंडी होती है. यह वात, पित्त, कफ नाशक होता है. यह आदिवासियों का कल्प वृक्ष कहा जाता है. वैशाख, जेठ के महीनों में जब महुआ चूता है तब आदिवासियों के घर महुए के व्यंजन के अतिरिक्त अन्य कोई भोजन नहीं बनता है. महुआ तूरन, महुआ बोरन और महुआ हीं पियन होता है.
महुआ भारतवर्ष के हर जगह पाया जाता है. पहाड़ों में भी तीन हजार फुट की ऊंचाई तक यह पाया जाता है.पंजाब के अलावा यह हर जगह अपने आप उग जाता है. पंजाब में लोग इसे अपने बागों में लगाते हैं. इसकी ऊंचाई लगभग 20 मीटर होती है. इसके पत्ते पूरे वर्ष भर हरे रहते हैं. इसके पत्तों के दोने, पत्तल बनाए जाते हैं. एक पेड़ सालाना 200 किलो के लगभग बीज का उत्पादन करता है, जिनसे तेल निकाला जाता है. तेल निकालने के बाद उसके अवशिष्ट को जानवरों को खिला दिया जाता है. महुआ जानवरों के लिए भी पौष्टिक आहार है, जिसे किसान अपने मवेशियों की थकान उतारने के लिए खिलाते हैं. महुआ औषधीय गुणों से भी भरपूर है. आयुर्वेद में इसे बसंत ऋतु का अमृत फल कहा जाता है. इसके फूल को मद्धम आंच में रात भर पानी में पकाए जाने पर सुबह वह छुहारे की तरह हो जाता है. इसीलिए इसे गरीबों का मेवा कहा गया है. महुआ लगभग पच्चीस साल में फल, फूल देने लगता है. हमारे पूर्वांचल में एक कहावत प्रसिद्ध है -
पांचे आम, पच्चीसे महुआ,
तीस बरीस में इमली के फहुआ.
छत्तीस गढ़ सरकार महुए से डीजल व पेट्रोल बनाने की तैय्यारी कर रही है. महुए के तेल को डीजल के साथ मिलाकर दुपहिया वाहन आसानी से चलाए जा सकते हैं. महुए से सरकार को अरबों रुपए का राजस्व प्राप्त होता है ,परन्तु सरकार महुए के संरक्षण व संवर्धन के लिए कृत संकल्प नहीं है. हजारों हजारों की संख्या में  जंगलों से इमारती लकड़ी के तौर पर महुए के पेड़ काटे जा रहे हैं. कटे हुए पेड़ों की जगह नये पेड़ नहीं लगाए जा रहे हैं. जब महुआ हीं नहीं रहेगा तो सरकार किससे पेट्रोल, डीजल बनाएगी ? अब लोग चावल गेहूं की बहुतायत होने पर महुए के व्यंजन पसन्द नहीं करते. सरकार भी उदासीन है, फिर महुए का क्या होगा ? वह तो सिर्फ और सिर्फ कहानी बन कर रह जाएगा.
अब दिन बीत जाएंगे यादें सुहानी बनकर.
महुए की बातें रह जाएंगी कहानी बनकर.
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Er S D Ojha
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