कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया.

बैल गाड़ी एक प्राचीन परम्परागत यातायात का साधन है. इसका डिजाइन सरल है. पहले लकड़ी के पहियों  पर लोहा चढ़ा होता था । लकड़ी, भूसा, ईंट, सवारी सब कुछ ढोने वाली यह बैल गाड़ी हर गांव में प्रति तीन या चार घर बाद एक घर में जरूर होती थी. इस  आदिम युग के गाड़ी के डिजाइन में देश काल परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं. आधुनिक काल में टायर वाली गाड़ी का चलन हुआ है. टायर की वजह से जहां इसकी गति में बढ़ोत्तरी हुई है वहीं दो की जगह एक हीं बैल से काम चलने लगा है.
मेले ठेले में लोग अपने अपने बैलों को सजा संवार के ले जाते थे. उनके सिघों में तेल लगा रंगीन धागे बांधा करते थे .गाड़ियों में रंग विरंगे कपड़े लगे होते थे . बैलगाड़ियों की दौड़ की प्रतियोगिता होती थी. जीतने वालों को शील्ड प्रदान किया जाता था. कई गाड़ीवान तो पूरे साल भर से इस प्रतियोगिता की तैयारी करते थे. बैलों के खान पान में खली, बिनोला व उत्तम कोटि के भूसा रखते थे. जिस दिन प्रतियोगिता होती थी उस दिन तो जीने मरने का प्रश्न खड़ा हो जाता था.
आज फिर जीने की तमन्ना है.
आज फिर मरने का इरादा है.
पुरानी फिल्मों में काफी आंचलिकता होती थी. दो बीघा जमीन, गोदान और तीसरी कसम आदि फिल्मों में आंचलिकता भरी पड़ी है. फिल्म तीसरी कसम तो बैलगाड़ी से शुरू हुई और बैलगाड़ी पर हीं (तीसरी कसम खाने के बाद )खत्म हुई. इस फिल्म के शीर्ष तीन चार गाने बैलगाड़ी पर हीं फिल्माए गये हैं. बलिया के केशव प्रसाद मिश्र की कहानी पर आधारित फिल्म "नदिया के पार " में भी एक गीत बैलगाड़ी पर फिल्माया गया है-
कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया ...
बाद में नदिया के पार को विस्तृत विस्तार दे ब्लाक बस्टर फिल्म " हम आपके हैं कौन? " बनाई गई. इस फिल्म में बैलगाड़ी की जगह कार दिखाई गई है, जो कि इरादतन इसकी आंचलिकता पर कुठाराघात है.
जब से देश में ट्रेक्टर का चलन हुआ है, तब से हल चलाने के लिए बैलों की जरूरत नहीं पड़ती. इसी ट्रेक्टर में ट्राली लगा दी गई तो सामान ढोने, सवारी ले जाने के लिए भी बैलगाड़ियों की आवश्यक्ता नहीं रह गई . ट्रेक्टर ट्राली की रफ्तार के आगे बैलगाड़ी की रफ्तार कम हो गई . बैलों के मार्फत हल चलाना एक श्रमसाध्य कार्य था, पर उसमें एक इंच भी जमीन छूटने की गुंजाइश नहीं होती थी. खेतों में बैलों के रहने से उनका गोबर सहज सुलभ हो खाद के काम आता था. बैलगाड़ी अब तो घूमंतू जन जातियों के पास हीं रह गयी है, जो घूम घूम कर लोहे के सामान बनाते और बेचते हैं.
बैलगाड़ी अब बनने बंद हो गये हैं. बैलगाड़ी बनाने वाले अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ अन्य मेहनत मजूरी वाले काम करने लगे हैं. अब बैलगाड़ी इतिहास की बात होकर रह जाएगी . बैल बेले (खाली) हो गये हैं. अब उनकी तस्करी होने लगी है . मांस के ग्लोबल व्यापार में बैलों को असमय हीं काल कवलित होना पड़ा है. इन्हें बेरहमी से ट्रकों में ठूंस दिया जाता है. बेचारगी, लाचारगी में इनकी आंखें किसी ऐसे संकट मोचक को देखती हैं, जो इनका उद्धार कर सके. इनकी बेबस आंखें एक हीं सवाल पूछतीं हैं -
कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया ..
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