छमियो चूक हमारी.
रामानन्द अपनी जिन्दगी में हीं मिथ बन गये थे. उनकी शोहरत बलिया के रेवती कस्बे से दूर दूर देहात व सरयू के कछार तक फैली हुई थी. कहते हैं कि रामानन्द पारम्परिक चिकित्सक नहीं थे. उनके पास शायद आर एम पी की भी डिग्री थी या नहीं , मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता. उनके सीने में जो दिल धड़क रहा था, वह बन्दर का था. उन दिनों जहां पांच दस आदमी बैठते, वहां डाक्टर रामानन्द के चर्चे हुआ करते थे. बन्दर का दिल होने के कारण वे ज्यादा दूर तक चल नहीं पाते थे. जो भी उन्हें अपने यहां बुलाता उनके लिए पालकी का अवश्य इन्तजाम करता. बाद के दिनों में आम जनता की पालकी का खर्च वहन न कर पाने के सबब से वे फटफटिया (मोटर साइकिल) पर चलने लगे थे. हम मोटरसाइकिल को फटफटिया कहा करते थे. एक बार उनका फटफटिया हमारे गांव में हीं खराब हो गयी .उन्हें फटफटिया वहीं छोड़ रेवती तक पैदल जाना पड़ा. बाद में हमारे गांव के उनके रिश्तेदार लक्ष्मी बढ़ई उस फटफटिया को उनके घर छोड़ आए थे.
एक सज्जन राम वृछ यादव, जो बंगाल पुलिस में हवालदार के पद पर नियुक्त थे, को तपेदिक हो गया. उस समय तपेदिक एक जानलेवा बीमारी थी. कलकत्ता के डाक्टरों ने जवाब दे दिया . बंगाल पुलिस ने भी उनको मेडिकल बोर्ड आउट कर दिया. गांव आकर वे अपनी जिन्दगी की घड़ियां गिनने लगे,पर उनके घर वाले चुप नहीं बैठे. वे उन पर जोर देने लगे कि वे एक बार डाक्टर रामानन्द को दिखा लें.राम वृछ जाने को तैयार नहीं. उनका मानना था कि जब कलकत्ता के बड़े बड़े डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए तो रामानन्द किस हैसियत से उनका इलाज करेंगें. उनके पास तो कोई डिग्री भी नहीं है. परन्तु घर वालों के जिद के सामने राम वृछ यादव को समर्पण करना पड़ा .
डाक्टर रामानन्द ने राम वृछ का मुआइना किया. कहा, "आप ठीक हो जाएंगे. आपको छः माह तक दवाई खानी पड़ेगी ." राम वृछ मुंह घुमाकर बुड़ बुड़ करने लगे -"जब कलकत्ता के डाक्टर इलाज नहीं कर सके तो ये क्या खा कर इलाज करेंगे. सब को पता है कि तपेदिक (टी बी ) का कोई इलाज नहीं होता". डाक्टर रामानन्द ने उनका बड़बड़ाना सुन लिया. बोले, " आपको टी बी नहीं है. आपकी छाती में कफ सूख गया है. इसीलिए खांसते समय बलगम से खून आ रहा है. " इलाज चला. रामवृछ ठीक हो गये.
मेरे पिता एक दिन अपने मुलाजिमियत के दौरान बोटानिकल गार्डेन, हबड़ा में साइकिल से राउण्ड मार रहे थे. उन्होंने देखा कि डाक्टर रामानन्द एक और आदमी के साथ सामने से चले आ रहे थे. पिता साईकिल से उतर पड़े. उनको विश किया, पर डाक्टर पहचान नहीं पाए. एक डाक्टर को हर दिन पचासों मरीज से साबका होता है. डाक्टर हर मरीज को याद नहीं कर सकता,पर मरीज के जेहन में डाक्टर याद रहेगा. वैसे भी डाक्टर रामानन्द एक प्रामिनेन्ट चेहरा थे - हमारे जवार के लिए. पिता ने कहा, "अाप डाक्टर रामानन्द हो. आपका घर रेवती है. मैं भी उसी क्षेत्र का रहने वाला हूं .आपसे कई बार इलाज करवा चुका हूं. " डाक्टर खुश हो गये. दूर दराज में कोई जानने वाला मिल जाय तो अवर्चनीय खुशी होती है. रामानन्द वहां बन्दूक का लाइसेंस लेने आए थे . बंगाल में उन दिनों लाइसेंस आसानी से मिल जाता था . जो बंगाल जाता था ,वह एशिया का सबसे बड़ा बोटानिकल गार्डेन अवश्य घूमता था .पिता ने उन्हें बंगाल का रसगुल्ला विशेष तौर पर खिलाया.
मेरे पिता बड़े हीं धार्मिक प्रवृति के थे. इसलिए साधु समाज उनका आर्थिक दोहन करता था. एक बार सन् 1964 -65 के संधि काल में साधुओं की मंडली प्रयाग स्नान के लिए चली. पिता को भी साथ ले लिया.सारा खर्च उन्हीं को वहन करना था. जाड़े का समय था. जगह जगह स्नान करने से उनका दमा बिगड़ गया. जब हालत नाजुक हो गई तो साधु समाज उन्हें गांव छोड़ गया. पिता का इलाज डाक्टर रामाकांत सिंह से होने लगा. वे हमारे पड़ोस के गांव झरकटहां के थे. इनके पास बी ए एम एस (BAMS) की डिग्री थी. पर ज्यों ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता हीं गया. पिता का दमा बिगड़ता हीं गया. एक दिन उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई कि गऊ दान तक करना पड़ गया. पिता ने मुझे बिठाकर सारी लेनदारी /देनदारी लिखा दी. भागकर हमारे पट्टीदारी के परशुराम ओझा रेवती से डाक्टर रामानन्द को बुला लाए. फटफटिया से उतरते हीं उनका पहला वाक्य था, " इहां के रसगुल्ला खियावल हमरा मन परता. " ( मुझे याद है कि इन्होंने मुझे रसगुल्ला खिलाया था. ) पिता उनके इलाज से चाक चौबन्द हो गये. उसके बाद वे 21 साल और जिन्दा रहे.
मुझे याद है कि मै दस साल की उम्र में किस तरह दौड़ कर कोस भर रेवती कस्बे जाता था और डाक्टर रामानन्द से पिता के लिए दवाई लाता था. पिता का यह कहना कि इतनी तेजी से तो कोई साइकिल से भी नहीं आ सकता -मेरे लिए किसी पारितोषिक से कम नहीं था. उसके बाद मैं स्कूल जाता था. पिता ने ठीक होते हीं अपनी ड्यूटी ज्वाइन कर ली.
मैं छः सात साल का था. मुझे अचानक बुखार हो जाता था. सीना तेज तेज धड़कना शुरू हो जाता था. लगता था कि कोई धारदार हथियार से दिल को जख्मी कर रहा है. पिता बोटानिकल गार्डेन के हस्पताल में दिखाते. डाक्टर नार्मल चेक अप कर दवाईयां लिख देता. कुछ फर्क नहीं पड़ा . इसी बीच मैं गांव आ गया. एक बार फिर सीने में बुखार के साथ दर्द उठा. दर्द इतना तेज कि लगे कि अब जीना मुश्किल है. मां रो रही थी .मेरे हम उम्र दोस्त हसरत से मुझे देख रहे थे. डाक्टर रामानन्द को बुलाया गया. उन्होंने इंजेक्शन लगाया. उन्हीं दिनों डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद की हार्ट अटैक से मृत्यु हुई थी. साल 1963 का होगा. तब से आज तक मुझे कभी भी सीने में तकलीफ नहीं हुई.
हबड़ा से स्कूल फाइनल ( 10th पास)करने के बाद मैंने गांव में पी डी इंटरकालेज,गायघाट में दाखिला ले लिया. कभी कभार मैं डाक्टर रामानन्द से साधारण सर्दी खांसी आदि के लिए मिलता रहता था. उन दिनों मैं काफी दुबला पतला था. एक बार मैं अपने दुबले पतले फिगर के लिए उनसे मिला. उन्होंने मुझे समझाया कि जब आपको कोई परेशानी नहीं है तो यह दुबलापन आपके लिए आगे चलकर बरदान साबित होगा. आपको कभी भी गठिया, शूगर व ब्लण्ड प्रेशर नहीं होगा. एक टानिक लिखकर उन्होंने मुझे चलता किया. वे रेवती गांव के प्रधान भी रहे. हमारे कालेज में जब भी कोई फंक्सन होता,उन्हें सादर आमंत्रित किया जाता.
बहुत दिनों बाद नौकरी के दौरान जब एक बार गाँव गया तो पता चला कि डाक्टर रामानन्द पंच तत्व में विलीन हो गये हैं. वे डाक्टर न होते हुए भी उस इलाके के सर्वमान्य डाक्टर थे .सबको जिन्दगी बांटने वाले डाक्टर रामानन्द अपनी मृत्यु से बेखबर रहे .वे अब वहाँ पहुंच गये थे, जहां से कोई वापस नहीं आता. मृत्यु प्रकृति का शाश्वत नियम है. कबीर कहते हैं -
कहें कबीर सुनो भाई साधो !
छमियो चूक हमारी.
अबकी गवना, बहुरि नहीं अवना .
मिल लेहू भेंट अकवारी.
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