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एक था गीदड़

 गीदड़ चूहे और खरगोश जैसे छोटे जानवरों का हीं शिकार कर पाता है । बड़े जानवरों का यह शिकार नहीं कर पाता , इसलिए शेर , बाघ , भेड़िया और लकड़बग्घों द्वारा छोड़े गये भोजन पर निर्भर करता है । देखने में यह कुत्ते और भेड़िए जैसा होता है , पर उनके जैसा यह दिलेर और साहसी नहीं होता । यह काफी डरपोक होता है । यह रात के अंधेरे में निकलता है और सुबह होते हीं अपने बिल में जा छुपता है । गीदड़ की चमड़ी ढोल बनाने के काम आती है । इसके पूंछ और खोपड़ी तांत्रिक क्रियाओं के काम आती है । इसलिए इसका अवैध शिकार होने लगा है । अरहर और गन्नों के खेतों में शिकारी बारुद से भरी चुकड़ी रख देते हैं । गीदड़ बारुद की गंध से आकर्षित होकर चुकड़ी तक पहुँचता है । चुकड़ी को सूंघता है । सूंघने के चक्कर में उसका थुथुन चुकड़ी से टकराता है और चुकड़ी फट जाती है । गीदड़ सांस न ले पाने की वजह से धराशायी हो जाता है । गीदड़ हुंआ हुंआ बहुत करते हैं । ऐसा करने से उनके नाक के ऊपर दबाव बढ़ता है । नाक के ऊपर एक बालों का गुच्छा सा बन जाता है , जो समय के साथ कड़ा होता जाता है । इसे गीदड़ सींगी कहा जाता है । गीदड़ सींगी हजारों गीदड़ों में किसी एक के पास होता है ।

टैगोर और ओंकैंपो की प्रेम कथा

 1924 में टैगोर पेरु की यात्रा पर थे । पेरु में उनकी तवियत खराब हो गयी । उन्हें दो ढाई महीने वहीं रुकना पड़ा । विक्टोरिया ओंकैंपो अर्जेंटीना की नामचीन नारीवादी लेखिका थीं । टैगोर का उनसे मिलना महज एक संयोग था । वे टैगोर की प्रशंसिका थीं । जब उन्हें पता चला कि टैगोर पेरु में ठहरे हुए हैं तो वे उनसे मिलने पहुँची। उन्होंने टैगोर की बड़े मनयोग से सेवा सुश्रुषा की । टैगोर को भला चंगा कर दिया । उस समय टैगोर की उम्र 63 और विक्टोरिया ओंकैंपो की उम्र 34 साल थी । ओंकैंपो का अपने पति से 1922 में ब्रेकप हो गया था । वे बिल्कुल हीं टूट गयीं थीं । उन्हीं दिनों उन्हें टैगोर की " गीतांजलि " का अनुवाद फ्रेंच भाषा में पढ़ने को मिला । इस काव्य संग्रह से उन्हें बहुत संबल मिला था । दरअसल उनका पति से 1912 से हीं अनबन चल रही थी , लेकिन घर वालों के दबाव में वे इस रिश्ते को किसी तरह से निभा रहीं थीं । पति और पत्नी एक छत के नीचे बेशक रह रहे थे , पर उनके सोने के कमरे अलग अलग थे । टैगोर को चित्र बनाने का भी शौक था । विक्टोरिया ओंकैंपो ने उन्हें चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया था । टैगोर चित्र बनाने लगे । उ

फेसबुक की दोस्ती जी का जंजाल

 आजकल फेसबुक पर पांच हजारी दोस्ती का आंकड़ा छूने की बड़ी कवायद चल रही है । केवल चेहरा देखकर हीं लोग फ्रेण्ड बना ले रहे हैं । दिल सच्चा हो सकता है , पर चेहरा अक्सर झूठा होता है । दिल तो दिखाई नहीं देता । हाँ , चेहरा जरुर दिखाई देता है । लोग चेहरे पर मर मिटते हैं । उसे दोस्त बनाने के लिए लालायित हो उठते हैं । फेसबुक पर बनी प्रोफाइल पिक झूठी भी हो सकती है । आप में से बहुतों के पास भी पाँच हजारी दोस्तों का भण्डार होगा , लेकिन सक्रिय होंगे केवल सौ सवा सौ । कुछेक तो पाँच हजारी के साथ साथ फालोवर भी रखते हैं । उनके पास लाइक कमेण्ट हजारों में आते हैं । मेरे भी गुड मार्निंग और गुड इवनिंग वाले दोस्त हैं , जो सुलाते हैं तो जगाते भी हैं । मेरे पास भी सौ सवा सौ के करीब आभासी दुनियां वाले दोस्त हैं , जिनसे हाय हेल्लो होती रहती है । लेकिन नजदीकी दोस्त उंगलियों पर गिने जा सकते हैं । नजदीक के दोस्त बनने में समय लगता है ।दोस्ती इम्तिहान लेती है । परीक्षा में पास होने पर हीं सच्चे दोस्त मिलते हैं । फेसबुकिया दोस्त किसी विपत्ति में रस्मी दोस्ती निभाते हैं । वे सांत्वना भी देते हैं तो डरते डरते । वे सोचते हैं

मसूरी का भूतहा महल - राधा भवन

 मुम्बई से फोन आया था । कोई हमारे आई जी नैय्यर साहब का जानकार था । वह मसूरी में किसी भूतहा फिल्म की शूटिंग करना चाहता था । इसके लिए उसे किसी पुरानी हवेली की दरकार थी । आई जी साहब ने उसे राधा भवन में शूटिंग करने की सलाह दी थी । राधा भवन मसूरी में लाइब्रेरी के नजदीक स्थित है । यहाँ से पूरी मसूरी पर एक विहंगम दृष्टि डाली जा सकती है । वैसे मसूरी का विहंगम दृश्य लाल टिब्बा से भी देखा जा सकता है । राधा भवन के जाने वाले रास्ते पर लिखा है - यह एक निजी सम्पत्ति है । यहाँ प्रवेश वर्जित है । " मैं राधा भवन 2007 में गया था । भवन की दीवारें बहुत मोटी हैं। इसकी छत गिर चुकी है । जगह जगह पानी के दाग नजर आते हैं । कई जगहों पर दीवारें गिर गयीं है । मलवे का ढेर पड़ा है । भवन से हटकर एक व्यू प्वाइंट भी है , जहाँ से मसूरी के अतिरिक्त देहरादून का भी नजारा लिया जा सकता है । कहते हैं कि यह किसी राजा का महल था । राजा का परिवार इसमें रहता था । लकड़ी की आग भड़कने से पूरा भवन जल गया था । साथ हीं इसमें रहने वाला परिवार भी जल मरा था । तब से इस महल को भूतिया महल कहा जाने लगा । ऐसा माना जाता है कि इस भवन के आस पास

दक्षिण अफ्रीका की औरतें

 दक्षिण अफ्रीका की औरतें बहुत कर्मठ होतीं हैं । वे पुरुषों के मुकाबले बहुत  काम करतीं हैं । वहाँ पानी की बहुत किल्लत है। उनको बहुत दूर से पानी लाने जाना पड़ता है । पानी की कमी के कारण ये जीवन में केवल एक बार नहातीं हैं । वह भी जब उनकी शादी होती है । शेष जीवन ये जड़ी बूटियों को उबालकर उनके धुएँ से अपने को साफ करतीं रहतीं हैं । ये एक विशेष प्रकार के लोशन का भी इस्तेमाल करतीं हैं , जो जानवरों की चर्बी और हेमेटाइट के पावडर से तैयार किया जाता है । इस लोशन की वजह से इन्हें कीड़े नहीं काटते । ये औरतें गायों को दुहती भी हैं । जिस औरत के पास जितनी अधिक गायें होतीं हैं , उसे उतना हीं सम्मान की नजर से देखा जाता है । महिलाओं के पास केवल अधोवस्त्र होता है , जो लुंगी की तरह हीं होता है ।  पुरुष मात्र गाय चराना जानते हैं । वे बहुत दूर तक गाय चराते हुए निकल जाते हैं ।  दक्षिण अफ्रीका की विधवाओं की समाज में हालत बहुत बदतर होती है । उन्हें मरे हुए पति की लाश को नहलाना पड़ता है । मृतात्मा की मुक्ति के लिए लाश के पानी को पीना पड़ता है । विधवा की अपनी कोई मर्जी नहीं होती । उनसे बगैर पूछे उनकी शादी पति के किसी न

पाकिस्तान में हिंदी

 अविभाजित भारत के लाहौर  , कराची , बलूचिस्तान , रावलपिण्डी और सरगोधा में हिंदी का परचम कभी शान से  लहराता था । हिंदी के यशस्वी साहित्यकार यशपाल , भीष्म साहनी , कृष्णा सोबती , देवेन्द्र सत्यार्थी , उपेंद्र नाथ अश्क और नरेंद्र कोहली जैसे साहित्यकार इन्हीं शहरों से निकले हुए हैं ।  लाहौर में राजपाल एण्ड सन्स जैसे नामचीनी प्रकाशन शिद्दत से कार्यरत थे । हिंदी प्रचारिणी सभा का योगदान भी भूले से भी नहीं भुलाया जा सकता । देश के आजाद होने के साथ साथ देश का विभाजन भी हुआ । भारत और पाकिस्तान दो देश बने । तभी से पाकिस्तान में हिंदी का दुर्दिन शुरू हो गए । पूरे पाकिस्तान में हिंदी की पढ़ाई बंद कर दी गयी । जो हिंदी राष्ट्र भाषा के नाम से कभी जानी जाती थी , अब वह दुश्मन देश की भाषा बन गयी । जिस हिंदी और उर्दू ने मिलकर देश को आजाद कराया था उनमें अब अदावत होने लगी । उर्दू ने हिंदी को पाकिस्तान से बाहर कर दिया । हिंदी पाकिस्तान की आत्मा में वास करती थी । इसे यूँ पाकिस्तान से बाहर कर देना न तो तर्कसंगत था और न हीं न्यायस॔गत । लेकिन आश्चर्य की बात यह कि पाकिस्तान में हिंदी बोलचाल में जमी रही । इसे सरकार न

फटी जींस

 उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीर्थ सिंह रावत ने कहा है कि वे महिलाएँ अपने बच्चों को क्या संस्कार देतीं होंगीं , जो खुद फटी जींस पहनतीं हैं । वैसे सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने निजता के आधार को मौलिक अधिकार माना है । कौन क्या खाता है ? क्या पीता  है ? क्या पहनता है ? यह उसका निजी मामला है । इसके लिए संविधान है , जो लोगों की निजता की रक्षा करता है । तीर्थ सिंह रावत के इस बात से हड़कम्प मच गया है । लोग पक्ष विपक्ष के खेमे में बंट गये हैं । मैं भी इस पर अपनी बात रखना चाहता हूँ । जहाँ तक खाने पीने का प्रश्न है । यह हर किसी का निहायत हीं निजी मामला है । जिसे जो पसंद आए खाए पिए । हमें उससे कोई मतलब नहीं है , क्योंकि वह जो खाएगा पिएगा , उसका स्वाद भी वही लेगा । हम उसके स्वाद से अनभिज्ञ होंगे । इसलिए जो खाता पीता है , वह उसकी निजी पसंद होती है ।  लेकिन पहनावा उसका निजी मामला नहीं है । कारण ,  कोई क्या पहनता है , कैसे पहनता है ; उसे हम देखते हैं । उस पर अपनी पसंद नापसंद जाहिर करते हैं । फिर वह उसका निजी मामला कैसे हो गया ? यदि आपकी घर की बेटी बहू शालीन कपड़े पहने तो आप उसे पसंद करते हैं । यदि वह