गुमशुदा की तलाश

स्वदेश दीपक ने जो भी लिखा दिल से  लिखा ।  ‘अहेरी’, ‘अश्वारोही’, ‘क्योंकि मैं उसे जानता नहीं’, ‘किसी एक पेड़ का नाम लो’, ‘क्योंकि हवा पढ़ नहीं सकती’, ‘क्या कोई यहां है’, ‘मसखरे कभी नहीं रोते’ आदि कहानियां स्वदेश दीपक ने एक अलग अंदाज में लिखी । उनके नाटक "कोर्ट मार्शल " का मंचन पूरे भारत में सैकड़ों  बार हो चुका है । दीपक स्वदेश की दूसरी रचनाओं  ‘सबसे उदास कविता’, ‘जलता हुआ रथ’, ‘बाल भगवान’  पर आधारित कई नाटक भी खेले जा चुके हैं ।  

बाल भगवान’ पर काफी विवाद भी हो चुका है । हुआ यह था कि उत्पलेंदु चक्रवर्ती की रचना ‘देव शिशु’ की कहानी  '" बाल भगवान " से काफी मिलती जुलती थी । स्वदेश दीपक ने  उत्पलेंदु चक्रवर्ती पर अपनी कहानी चुराने का आरोप लगा दिया था । उन्होंने उत्पलेंदु चक्रवर्ती को अदालत में घसीटने की भी धमकी दी थी । विवाद इस कदर बढ़ा कि हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव को बीच में आना पड़ा । 


किसी तरह से बात सुलझी थी । दोनों कहानियाँ बाद में हंस में छपीं थीं । वैसे स्वदेश दीपक का नाम तब तक कहानीकार के रूप में स्थापित हो चुका था , जबकि उत्पलेंदु चक्रवर्ती को उस समय तक कोई जानता भी नहीं था ।  बाद में भी वे अपनी कोई रचनात्मकता नहीं दिखा पाए थे । हांलाकि उत्पलेंदु की " देव शिशु " को कई पुरस्कार मिले थे ।


 ‘क्या कोई यहां है’ कहानी स्वदेश दीपक ने 1976 में लिखी  थी । आपातकाल का दौर था । ‘धर्मयुग’ के सम्पादक धर्मवीर भारती ने इस कहानी को छपने से पहले इसे सेंसर के अधिकारियों को दिखाई थी । कहानी उनके समझ में नहीं आयी । उन्हें कहानी में स्थित सत्ता के खिलाफ धारदार व्यंग्य और बगावती तेवर नजर नहीं आए । उन्होंने कहानी प्रकाशित करने की हरी झण्डी दे दी । प्रकाशित होने के बाद यह कहानी काफी चर्चित हुई थी , जिससे सेंसर अधिकारियों की काफी किरकिरी हुई थी ।


स्वदेश दीपक को बाईपोलर सिंड्रोम नाम की मानसिक बीमारी थी । यह बीमारी लोगों को अतिसंवेदनशील बना देती है । उनका इलाज पी जी आई चण्डीगढ़ में सात सालों तक चला था । सात साल (1990 - 97 ) तक वे अज्ञात वास में रहे थे । ठीक होने के बाद उन्होंने परिवारजनों का खासकर अपनी पत्नी गीता जी का शुक्रिया अदा किया था ।  इस पुनरागमन पर उनके पाठक और साथी लेखक बहुत खुश हुए थे । 


इन सात सालों का विशद् विवरण स्वदेश दीपक ने दिया था । यह संस्मरण "खंडित जीवन का कोलाज " शीर्षक से कथादेश में कई खण्डों में प्रकाशित हुआ था । इस संस्मरण ने धूम मचाकर रख दिया था । कई मनोचिकित्सकों ने इसे मानसिक रोगों को समझने का एक जरुरी दस्तावेज माना था । उनका एक और संस्मरण आया था " मैंने मांडू नहीं देखा’' । इन संस्मरणों को पढ़ने से पता चलता है कि उनका चेतन मन मरना चाहता है , पर उनके अवचेतन में अभी भी जीने की तमन्ना है ।


7 जून, 2006 की सुबह वे हमेशा की तरह सुबह की सैर के लिए अपने अम्बाला स्थित घर से निकले थे । रोजाना की यह सैर केवल अम्बाला छावनी से माल रोड तक हीं होती थी । यह सैर दो घंटे से ज्यादा की कभी नहीं हुई थी , पर उस दिन स्वदेश दीपक काफी देर तक घर लौटकर नहीं आए तो उनकी खोज बीन शुरु हुई । 


उनको अब तक ढूंढ़ने के तमाम प्रयास भी निष्फल रहे हैं । इन 14 सालों मे आज तक उनकी कोई खोज खबर नहीं मिल पाई है । उनके अपहृत किए जाने या मार दिए जाने के कोई सुराग भी आज तक नहीं मिल पाए हैं । इसके पहले वे आत्म हत्या के कई प्रयास कर चुके थे । पर उस समय वे मानसिक रुप से वीमार थे । वैसे आत्म हत्या का भी कोई सुराग नहीं मिला है । 


स्वदेश दीपक के मित्र और पाठक आज भी उनके लौट आने की प्रतीक्षा में हैं ।

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