मैं किसी ख्वाब की तरह से हूं.

शिमला और मसूरी दोनों को पहाड़ों की रानी कहते हैं.
मैं मसूरी में पोस्टेड था, इसलिए मसूरी देख लिया था. शिमला नहीं देखा था, पर कोई मलाल नहीं था. क्योंकि  रिटायरमेंट के बाद मैं यह मानकर चल रहा था कि एक रानी को देखा तो दुसरी रानी को भी देखा हीं समझो. शिमला में भी तो वही पहाड़ी, वही हरियाली, वही चढ़ाई और वही बारिस होगी. एक दिन श्रीमती जी आईं और कहने लगीं -"बड़े बेटे ने पूरे परिवार के लिए शिमला की ट्वाय ट्रेन की सीटें आरक्षित करा रखी हैं. आप अपने आई टी बी पी के गेस्ट हाउस की बुकिंग करा दें " .मैं वास्तव में जाना नहीं चाहता था .इसलिए टरकाने की गरज से मैंने कहा, "आजकल सीजन चल रहा है. गेस्ट हाउस में जगह नहीं होगी. " श्रीमती जी का त्रिया हठ जारी रहा, "एक बार बात करने में हर्ज क्या है? "
मैंने क्षेत्रीय मुख्यालय, आई टी बी पी, शिमला में पोस्टेड अपने मित्र श्री एस सी गुप्ता ,सेनानी (अभियंता) को फोन मिलाया . उनसे गेस्ट हाउस आरक्षित करने का अनुरोध किया . साथ में यह भी जोड़ दिया कि मैं यह फोन काफी दबाव में आकर कर रहा हूं. मैं समझ रहा था कि वे मेरा मंतब्य समझ जाएंगे और कह देंगे कि गेस्ट हाउस में जगह नहीं है, परन्तु उधर से आवाज आई, 'पंडी जी आप सिर्फ इतना बता दो कि कब और कितने कमरों का आरक्षण करवाना है? आपका काम हो जाएगा. " जब ऐसे दोस्त हों तो दुश्मनों की जरूरत क्या है ?
बाद में अपने पोतों का उत्साह देखते हुए मुझे भी सरेंडर करना पड़ा. 18 अगस्त की अलसुबह कुल हम एक दर्जन प्राणी दो गाड़ियों में भरकर कालका रेलवे स्टेशन पहुंचे. वहां जाकर पता चला कि ट्रेन ढाई घंटे लेट है. जमाने के सबसे मरहूम शब्द का नाम है इंतजार. इंतजार वह भी इतना लम्बा. इस दौरान तीनों पोतों ने मिलकर मेरी खटिया खड़ी कर दी . एक इधर भागे तो दुसरा उधर .अचानक एक पोते की ढूंढ शुरू हुई. पता चला कि वह अपने बड़े पापा के साथ अपनी मन पसंद चीजें खरीद रहा है.
ट्रेन में सवार हुए. अब सबसे छोटे पोते ने कहा, ' दिल थाम के बैठो, अब मेरी बारी आई है '. जब जब ट्रेन सीटी दे तब तब वह रोना शुरू कर दे.  11 माह का बच्चा ट्रेन की सीटी से डर जा रहा था. श्रीमती जी  से लेकर तीनों बहुएं तक उसे चुप कराती रहीं. बाज दफा मुझे भी उसे गोद में लेकर पुचकारना पड़ा. यही क्रिया तीनों बेटों ने भी की, पर वह आधे रास्ते तक बदस्तूर रोता रहा. बाद में वह ट्रेन की उस सीटी का अभ्यस्त हो गया और सो गया. शिमला से एक स्टेशन पहले 'समर हिल ' पर हम उतर गये. उतरते हीं मैंने यह शेर पढ़ा -
तेरी मंजिल पर पहुंचना इतना आसां न था,
सरहद-ए -अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे.
वहीं से ऊपर की तरफ आई टी बी पी के गेस्ट हाउस पहुंचे. खाना खाया. थकान उतारी. फिर आस पास के इलाके से रूबरू हुए. गेस्ट हाउस से ऊपर बस स्टैण्ड था, जहां से शिमला के लिए बसें मिलती हैं. वहीं आस पास शिमला यूनिवर्सिटी भी है . उसके बाद सेनानी (अभियंता)  को फोन मिलाया. उनसे कल अर्थात्19 अगस्त को एक गाड़ी भेजने को कहा ताकि मैं तारा देवी कैम्प में जाकर उनसे मिल सकूं.
दुसरे दिन नहाते धोते, नाश्ता करते हुए 10 बज गए . 11 बजे गुप्ता साहब ने गाड़ी भिजवाई. मैं और श्रीमती जी उस गाड़ी में बैठकर कैम्प के लिए रवाना हुए तो बाकी के बेटे, बहू और पोतों की फौज बस से शिमला के लिए . कैम्प में सेनानी (अभियंता) एस सी गुप्ता बड़ी गर्मजोशी से मिले. वे मेरे ट्रेनिंग फेलो थे. कुछ पुरानी, कुछ नई यादें साझा हुईं. गुप्ता जी थे तो मेरे ट्रेंनिंग फेलो, पर उम्र में मुझसे थे पांच साल छोटे. इसलिए एक रैंक में होते हुए, बाद में उनके सीनियर हो जाने पर भी मैंने उन्हें हरदम तू हीं कहा. इस बात का शायद उन्होंने भी कभी बुरा नहीं माना. इसलिए इस बार भी मैंने उन्हें कभी तुम तो कभी आप कहा - कभी विस्मिल कभी खुदा की तर्ज पर. फिर उन्होंने मेस में हम दोनों के लिए खाने के लिए बताया. श्रीमती जी ने बगैर प्याज, लहसन का खाना खाया. हम फिर शिमला के लिए चल पड़े. लिफ्ट से ऊपर की टाप पहाड़ी पर पहुंचे, जहां परिवार के बाकी सदस्यों से मुलाकात हो गई . इस यात्रा का यह फायदा हुआ कि मेरी मुलाकात बरसों बाद श्री एस एल नेगी डिपुटि कमांडेंट,अभियंता से भी हो गई.
शिमला की पहाड़ियों पर बच्चों ने काफी ऊधम मचाया. फोटे लिए गये. दो छोटे पोतों चुन्नु और मुन्नु ने कभी भी फोटो के लिए मनोवांछित पोज नहीं दिए. देंगे भी कैसे?  ये अपने मन के राजा जो ठहरे. शाम होते होते हम गेस्ट हाउस में आ गए . इस बीच हमारा सामना कई बार बारिस से हुआ . कपड़े गीले हुए. कपड़े चेंजकर काफी पी गई. तरोताजा हो हमने अपने छोटे बेटे रोहित का जन्म दिन मनाया. छोटे उस्ताद लोग अपने चाचू के जन्म दिन पर संगीत की स्वर लहरियों पर फुदक रहे थे.
अगले दिन चलन की बेरिया आ गई. मेस का हिसाब चुकता कर हीं रहे थे कि डिपुटि कमांडेंट श्री एस एल नेगी आ गये. वे तब तक रहे जब तक हम रवाना न हो गये. पूरी फेमिली का उनके साथ फोटोग्राफ हुआ.
चलते समय मन भारी हो गया . इस आई टी बी पी ने हमें बहुत कुछ दिया  . अब रिटायर्ड होने के बाद भी कुछ न कुछ इससे मिल हीं रहा है. हम एक दिन ख्वाब हो जाएंगे, पर आई टी बी पी एक हकीकत की तरह रहेगी और हमेशा अक्षुण्ण रहेगा उसका वह शौर्य, दृढ़ता और कर्मनिष्ठा. 
मैं किसी ख्वाब की तरह से हूं,
तुम इसी ख्वाब की हकीकत हो.
               - ई एस डी ओझा

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