बेखुदी में मेरी तन्हाइयां किस राह पर चल पड़ीं .
भारतीय उप महाद्वीप पर सड़कें लगातार 3000 ईसा पूर्व काल से बन रही हैं. ऐसी हीं एक लम्बी सड़क मौर्य काल में बनी थी, जो गंगा के मुहाने से लेकर तक्षशिला तक जाती थी. इसे उत्तर पथ कहा जाता था. इस मार्ग से बौद्ध धर्म का प्रचार गंगा के किनारे आने वाले शहरों से होता हुआ गांधार तक हुआ था.
कालांतर में शेर शाह सूरी ने इस सड़क को विस्तार दिया. उसने इस सड़क को पक्का करवाया. जगह जगह छाया के लिए पेड़ लगवाए. यात्रियों के पीने के लिए पानी के वास्ते कुएं खुदवाए. हर कोस पर कोस मीनार बनवाए. आज भी हरियाणा व पंजाब में कुछ कोस मीनार विद्दमान हैं, जिन्हें भारत सरकार ने राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है.
यह सड़क दक्षिण एशिया की सबसे लम्बे मार्गों में से एक है. इस सड़क ने दो सदियों तक पूर्व व पश्चिम को जोड़ा है. यह बंगला देश के चटगांव से शुरू हो हबड़ा, वर्दवान, दुर्गापुर ,आसनसोल होते हुए बिहार के धनबाद, औरंगाबाद, डेहरी आनसोल हो उत्तर प्रदेश के मुगलसराय शहर में पहुंचती है. फिर वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़, गाजियाबाद होते हुए राजधानी दिल्ली तक और वहां से पानीपत, कुरुक्षेत्र,अम्बाला, लुधियाना, जालंधर, अमृतसर होकर पाकिस्तान के लाहौर, रावलपिंडी, पेशावर, जलालाबाद से अफगानिस्तान की सीमा में दाखिल होती है. काबुल पहुंच इसका अंतिम पड़ाव होता है. इस मार्ग से व्यापार के साथ साथ डाक संचार व्यवस्था भी कायम की जाती थी.
इस मार्ग के बारे में पश्चिम के प्रसिद्ध लेखक रूडयार्ड किपलिंग ने सन् 1911 में लिखा था-
" ऐसा मार्ग दुनियां में कहीं भी नहीं मिलेगा, जो 1500 मील की दूरी के भारत की यातायात भीड़ से बेअसर सीधा चलता है . यहां हमें जीवन की नदी का बहाव देखने का अनुभव मिलता है. "
शेरशाह सूरी कम हीं शासन कर पाया । वह मात्र 5 साल हीं शासक रहा । वह और जिन्दा होता तो इस सड़क की बेहतरी के लिए और कुछ करता. इस सड़क को शेरशाह को समर्पित किया गया. नाम रखा "सड़क -ए - आजम ." कुछ लोग इसे बादशाही सड़क भी कहते थे. मुगल काल में इस सड़क पर कोई खास काम नहीं हुआ . मेरे ख्याल से मुगलों ने केवल इसका रख रखाव किया .इससे आगे वे नहीं बढ़ पाए .इसे और उन्नत और बेहतर बनाने का काम ब्रिटिशर्स ने किया. ब्रिटिशर्स के समय इसका नाम रखा गया - जी टी (Grand Trunk) रोड .
जब इस सड़क पर कुछ लोग तन्हाईयों के सफर पर निकलते होंगें. मंजिल दूर. कहीं गांव गिरान, मकान नहीं. फिर क्या आलम होता होगा ?
बेखुद मेरी तन्हाइयां किस राह पर चल पड़ीं,
मकां न कोई दूर तक, मंजिल न कोई दूर तक.
- इं एस डी ओझा
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