जलुआ रोएले, केकरी दुअरिया लेके जाऊं.
पूर्वांचल की शादियों की अनेक रश्मों में से एक रश्म होती है - डोमकच. डोमकच उस दिन मनाया जाता है, जिस दिन बारात जाती है. इसे वर पक्ष की औरतें मनाती हैं. बेटा बहू लाने बारात लेकर गया है तो हर्षोल्लास में औरतें नाचती हैं, गीत गाती हैं और तरह तरह के स्वांग करती हैं. यह हर्षोल्लास रात भर चलता है. डोमकच में केवल महिलाएं हीं भाग लेती हैं. कुछ पुरूष तांक झांक करते हुए पकड़े जाते हैं तो महिलाएं उन्हें अच्छा सबक सिखाती हैं .महिलाएं हीं पुरूषों के कपड़े पहन पुरूषों का भी रोल निभाती हैं. किसी स्वांग में कृष्ण का रूप धर कोई औरत गोपियों का रास्ता रोकती है तो गोपियां समवेत स्वर में गा उठती हैं ..
दहिया बेचन जाए द ए मोहन.
इस रतजगा एक फायदा यह होता है कि चोर उचक्के गांव में नहीं आ पाते. गांव के लगभग 80% पुरूष बारात में गये होते हैं. इसलिए गांव में चोरी, डकैती न हो - इस लिहाज से भी डोमकच का रिवाज प्रचलन में है. महिलाएं दरोगा, पंडित, लेखपाल, पाटवारी, राधा कृष्ण का रोल निभाती हैं. इसी भेष में ये रात को किसी सोये हुए पुरूष को जगाकर आवाज मोटी कर छकाती हैं. मसलन ये सोए आदमी से कहती हैं, "उठो, दरोगा जी आए हैं. उनके लिए एक और चारपाई लगाओ, " तभी कोई कम उम्र की लड़की हंस पड़ती है. भेद खुल जाता है.
महिलाएं जोर जोर से गांव के किसी गण्यमान व्यक्ति का नाम लेती हैं और गाती हैं, " छोड़ रे, कुब्जा ! दिदिया के बानि, बहुअवा कहि बोलावहु रे ! ". ये बातें उन महाशय के कान में भी पड़ती है. वे अपनी जगह पर पड़े पड़े मुस्कराते रहते हैं. रात भर रात जगती है . सारा आलम बेखौफ जगता है. नींद पलकों से कोसों दूर होती है. नींद नहीं अाती . सुबह आती है .
सुबह होने से पहले एक और स्वांग रचा जाता है-जलुआ. जलुए का जनम होता है. अचानक जलुआ की तबियत खराब हो जाती है. वह लगातार रोए जा रहा है .लाचार, बेबस मां बच्चे के लिए तड़प उठती है. घर में कोई पुरुष नहीं है. जलुए को किस डाक्टर या वैद्द के पास ले जाया जाय, मां को पता नहीं चलता. वह आहत परेशान हो कह उठती है -
जलुआ रोऐले , केकरी दुअरिया ले के जाऊं ?

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