हम उम्मीद पर नहीं अपनी जिद पर जीते हैं.
15 सितम्बर सन् 1876 को उनका जन्म हुआ था. शरतचन्द्र अपने पिता की नौ संतानों में से एक थे. वे वर्मा जाकर लोक निर्माण विभाग में क्लर्क की नौकरी करने लगे थे . बाद में नौकरी छोड़ उन्होंने स्वतंत्र रूप से लेखन को अपना पेशा बनाया. उन्होंने पंडित मोशाय, श्रीकांत ,गृहदाह, शेष प्रश्न, देवदास, विप्रदास, चरित्रहीन, शुभदा, परिणीता आदि उपन्यास लिखे थे. देवदास, चरित्रहीन और परिणिता पर तो फिल्म भी बन चुकी है. इन उपन्यासों का अंग्रेजी के साथ साथ लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.
हिंदी में प्रेमचंद के बाद शरतचन्द्र के हीं साहित्य ज्यादा पढ़े जाते हैं. भारतीय भाषाओं के ये दोनों दिग्गज साहित्यकार यदि फुटपाथ पर ज्यादा विकते हैं तो बड़ी बड़ी लाइब्रेरियों के आल्मारियों में भी सजते हैं. आक्सफोर्ड व कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुस्तकलाओं में भी इनके उपन्यास आपको मिल जाएंगे. प्रेमचंद कभी विवादित नहीं रहे, परन्तु शरतचन्द्र का हमेशा विवादों से नाता रहा है. उनके बारे में अक्सर कई अफवाहें उड़ती थीं, जिनके लिए कई बार स्वंय शरत हीं जिम्मेदार होते. यदि कोई उनसे व्यक्तिगत तौर पर जाकर पूछता तब वे कहते कि यह तो मनगढ़ंत कहानी (गल्प) है. इन मनगढ़ंत कहानियों की वजह से बांगाली समाज हमेशा उनसे बेरूखी का व्यवहार करता था. फिर भी शरतचन्द्र जन जन के लेखक थे और उनकी लोकप्रियता टैगोर से मीलों आगे थी.
आज भारतीय साहित्याकाश में तीन लेखक हैं, जिनकी लोकप्रियता निर्वादित रूप से चरम पर है. तुलसी, प्रेमचंद और शरतचन्द्र. तुलसीदास पर "मानस के हंस " लिख सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ने तुलसी की जीवनी को प्रमाणिक बना दिया. प्रेमचंद के सुपुत्र और लेखक अमृत राय ने "कलम का सिपाही " लिख प्रेमचंद की जीवनी को सर्वसुलभ किया. लेकिन शरतचंन्द्र पर लिखने को कोई तैयार नहीं था .खुद बंगला भाषी लेखक भी कन्नी काटते रहे. ऐसे में हिंदी के मूर्धन्य कथाकार विष्णु प्रभाकर आगे आए .
विष्णु प्रभाकर ने बंगाल, बिहार, वर्मा की अनेकानेक यात्राएं कीं. उन्हें जब कभी पता चलता कि अमुक जगह पर शरतचन्द्र रह चुके हैं वे वहां पहुंच जाते. विष्णु प्रभाकर ने जबलपुर की दर्जनों बार यात्रा की होगी. वहां शरतचंन्द्र की मौसेरी बहन मल्लिका रहती थीं. हजारों पत्र पत्रिकाओं को खंगाला होगा. शरतचन्द्र से सम्बन्धित सारे संस्मरण पढ़े होंगें. 1959 से 1973 तक के 14 साल के विचारणीय समय के व्यतीत हो जाने के बाद विष्णु प्रभाकर ने शरतचन्द्र की जो प्रमाणिक जीवनी लिखी उसे "आवारा मसीहा " कहते हैं.
"आवारा मसीहा " को हिंदी के नामवर मठाधीशों ने नकार दिया. पाठकों ने इस अनूठी कृति को जब हाथों हाथ लिया, भारत सरकार तथा साहित्य अकादमी ने जब इसे सर माथे पर बिठाया तो मठाधीशों की बोलती बंद हो गयी. उन दिनों यह कृति साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक के तौर पर छपी थी. उस समय उस साप्ताहिक की बिक्री दोगुना हो गयी थी. हांलाकि उस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरूष्कार भीष्म साहनी के "तमस "को मिली, पर "आवारा मसीहा " को भी नामांकित किया गया था.
जब "आवारा मसीहा " को पाब्लो नेरुदा पुरूष्कार मिला तो साहित्य अकादमी भी जागा और विष्णु प्रभाकर के "अर्द्ध नारीश्वर " को उसने साहित्य अकादमी पुरष्कार से नवाजा. "आवारा मसीहा " को कभी साहित्य अकादमी पुरष्कार नहीं मिला, लेकिन आज शरतचन्द्र की प्रामाणिक जीवनी की पुस्तक केवल "आवारा मसीहा " है. इसे बंगाली पढ़ते हैं ,देश पढ़ता है और शेष विश्व पढ़ता है. यही इस पुस्तक की उपलब्धि है. आवारा मसीहा एक ऐसी कृति है जो सालों साल विष्णु प्रभाकर को जिन्दा रखेगी. इससे बिष्णु प्रभाकर को एक बड़े हिंदी साहित्यकार का दर्जा मिला तो शरतचंन्द्र को दुबारा जीवन मिला. इसके पीछे विष्णु प्रभाकर की 14 सालों की जिद थी.
हमारे जीने का सलीका थोड़ा सा अलग है,
हम उम्मीद पर नहीं अपनी जिद पर जीते हैं.
- इं एस डी ओझा
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