वृद्धाश्रम , जहां बसते हैं अपनों से चोट खाए हुए वृद्ध.
वृद्धावस्था वह अवस्था होती है, जिसमें आपके पास काम का अनुभव तो बहुत होता है, पर काम करने की ताकत चुक गई होती है. ऐसे में टोका टोकी, मीन मेख निकालने के सिवा आपके पास कुछ नहीं रह जाता. इसीलिए हमारे पूर्वज उम्र के इस पड़ाव में आकर सन्यास ले लेते थे. सन्यास वह जिसमें आप अपनों से दूर हो जाते हैं. बीमार पड़े तो कोई देखभाल करने वाला न हो. किसी को इस अवस्था में भी एक आनन्द की अनुभूति होती है .वह तीमारदारी नहीं चाहता.
पड़िए बीमार तो हो न कोई तीमारदार.
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी वृद्धावस्था आने से पहले हीं सन्यास ले लिया था. राज्य की जिम्मेदारी अपने पुत्र विम्बसार को सौंप वह एक जैन मुनि बन गया था.उसने अन्न जल त्याग कर अपनी इहलीला समाप्त की थी. कमोबेश यही हालत महाराज अज की थी. उन्होंने अपने पुत्र दशरथ को राज काज सौंपा और गंगा व सरयू के संगम स्थल पर मरण व्रत धारण कर लिया. इस तरह की मौत को क्या कहा जाय, जिसमें अपनों के रहते हुए भी प्राण निर्जन में त्यागने पड़े. यह तो वही बात हुई -"सब दिन सेवे काशी, मरे तो मगह के वासी".
यही हालत आज की भी है. फर्क इतना है कि पहले वृद्ध सन्यास लेते थे. निर्जन में जा तप करते . वहीं प्राण त्याग देते . अब वृद्ध वृद्धाश्रम में जाने लगे हैं. जहां उनकी यथोचित देख रेख होती है. उन्हें भावनात्मक सम्बल मिलता है. एक खास उम्र के लोग आपस में मिल बैठकर अपना सुख दुःख एक दूसरे से कहते सुनते हैं. केवल वहां अपनों का साथ नहीं होता है. अपने बच्चे बेगाने हो जाते हैं. कहावत है, "मां बाप दस बच्चों की परवरिश कर सकते हैं ; पर दस बच्चे मिलकर मां बाप की परवरिश नहीं कर सकते. "
आजकल विदेश जाने का भी ट्रेंड तेजी से पनप रहा है. मां बाप खुद रूचि लेकर अपने बच्चों के कैरियर की खातिर उन्हें विदेश जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. बेटा जाकर वहीं का हो जाता है. पैसा तो भेजता है, पर वह प्यार कहां? , जो साथ में रहने से मां बाप को मिलता . शनैः शनैः बेटे के फोन आने कम होने लगते है. वह अपनी दुनिया में रमने लगता है. हां, पैसा बदस्तूर भेजता रहता है. लेकिन पैसा सब कुछ नहीं है. बुजुर्गों की देख रेख की आवश्यकत्ता पड़ती है. अतः बेटा विदेश से वर्षों बाद आता है और मां बाप को वृद्धाश्रम में भर्ती करा जाता है. साथ में फिर जल्दी आने का वादा भी कर जाता है.
वो बरसों बाद आ कर, कह गया जल्दी आने को;
पता मां बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है.
जिन बुजुर्गों के बच्चे साथ रहते हैं, वे बुजुर्गों के साथ रहकर भी साथ नहीं रहते. एक साथ, एक छत के नीचे रहकर भी उनके बीच अबोलापन पसरा रहता है. बेटे की स्थिति मां बाप और पत्नी के बीच पेंडुलम की तरह होती है. उसकी गति सांप छछूंदर की भांति हो जाती है. कहते हैं कि बेटियां अपने मां बाप के दुःख दर्द को समझती हैं. वे कहीं भी रहें, मां बाप के तकलीफ में दौड़ी चली आती हैं. वही बेटी जब बहू होती है तो अपने पति के मां बाप के लिए उसका वह प्यार क्यों नहीं उमड़ता. यही बात सास पर भी लागू होती है. अपनी धिया के लिए जो प्यार उमड़ता है, वह प्यार पराई धिया के लिए कहां लोप हो जाता है ? इस तरह से प्यार में आई कमी, मान सम्मान की घटताई मां बाप को वृद्धाश्रम ले जाती है.
जब फूलों में हो जाता है, डाली के प्रति आदर कम.
तब खुलते हैं गांव, गली और नगर नगर में वृद्धाश्रम .
कहीं बच्चे साथ नहीं रहना चाहते तो कहीं बुजुर्ग बच्चों के साथ नहीं चाहते. फिर क्लेश होता है. ऐसी बात नहीं कि हर बार बच्चे हीं गलत होते हैं. कई बार बड़े भी गलत होते हैं. शाब्दिक भूकम्प भी कम खतरनाक नहीं होता है. परिवार का विशाल वट वृक्ष अपनी जड़ों से हिल जाता है. बुजुर्गों को वृद्धाश्रम जाने की वजाय अपने मन में वृद्धाश्रम लाना चाहिए. अनावश्यक टोका टोकी से बचना चाहिए. मौन रहें तो सबसे बेहतर. मौन भी मुखर होता है. मौन के वृद्धाश्रम में आपको शिकायत का मौका कम मिलेगा. आप पोते पोतियों के सुख से भी आह्लादित होंगें. बच्चे भी आपकी कदर करेंगें. शायद हीं कोई ऐसा बेटा होगा, जो अपने मां बाप को वृद्धाश्रम में भेजकर सुखी होगा.
कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगीं ,
यूं हीं कोई बेवफा नहीं होता.
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