जी रया, जागि रया.

हरेला उत्तराखंड में श्रावण संक्रान्ति को मनाया जाने वाला एक हरियाली का त्योहार है. यह हरियाली के स्वागत में मनाया जाता है. हर साल अक्सर 16 जुलाई को श्रावण संक्रान्ति पड़ती है. एक टोकरी में मिट्टी की एक परत विछा सरसों, गहत, मक्की, गेहूं, जौ, मूंग, उड़द आदि अनाज बो कर लगातार नौ दिन तक उसकी सिंचाई की जाती है. इन अनाजों की पौध लहलहा उठती है, जिसे हरेला कहते हैं. जिसकी जितनी हरेला लहलहाएगी, उसकी कृषि उतनी हीं उत्तम होगी. ऎसी मान्यता है.
दसवें दिन घर के बड़े बुजुर्ग या पंडित जी इस हरेला की कटाई करते हैं. सबके कान पर हरेला जनेऊ की तरह रखा जाता है. कुछ सिर पर भी रखा जाता है. पूजा होती है. कुअांरी कन्याएं अक्षत रोली से सभी परिवारी जनों को टीका करती हैं.
महिलाएं मिट्टी की डिकार (मूर्ति) बनाती हैं, जिसमें शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी आदि शिव का पूरा परिवार होता है. डिकार को मन चाहे रंगों में रंगा जाता है .जनश्रुति के अनुसार इस दिन को हीं शिव पार्वती का विवाह हुआ था. इसलिए इस दिन की पूजा घर में सुख,शान्ति और समृद्धि लाती है. इस दिन वृक्षारोपण भी होता है.
यदि हरेला वाले दिन परिवार में कोई मृत्यु हो जाती है तो उस परिवार में तब तक हरेला नहीं मनाया जाता है, जब तक कि उस घर में हरेला वाले दिन कोई बच्चा पैदा न हो जाय. यदि इस दिन उस परिवार की गाय भी बछड़ा दे दे तब भी हरेला मनाने की शुरूअात उस परिवार में हो जाती है.
इस शुभ दिन को बड़े बूढ़े जवानों को आशिर्वाद देते हैं - जियो, जागो, दूब की तरह फलो फूलो.
जी रया, जागि रया.
दूब जस फैलि जया.
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