जज्बातों के खेल में मोहब्बत के सबूत न मांग मुझसे.
हमारा समाज पुरूष प्रधान है. प्रधानता पुरूष की होगी तो बात बे बात औरत के चरित्र पर अंगुली उठेगी ; क्योंकि पुरूष यह मानकर चलता है कि अहम ब्रह्मास्मि . ब्रह्म निष्कलंक होता है.संस्कृत की एक सूक्ति का बहुधा जिक्र होता है, जिसे कि पुरूष समाज अक्सर कोट करता रहता है -
नृपस्य चितं, कृपणस्य वित्तं,
त्रिया चरित्रं , पुरूषस्य भाग्यं,
देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ।
(अर्थात् राजा का चित्त (मन) , कजूंस का धन, औरत का चरित्र और पुरूष के भाग्य के बारे में देवता तक नहीं जानते तो पुरूष कैसे जान पाएगा ?).
बचपन से मैं इस सूक्ति का आधा हिस्सा हीं सुनता आ रहा हूं- त्रिया चरित्रं..........कुतो मनुष्यः . नृप के चित्त और कृपण के वित्त से पुरूष समाज को कोई मतलब नहीं है. मतलब है तो अपने भाग्य से और औरत के चरित्र से. इसीलिए अक्सर अाधा सूक्ति हीं उद्धृत की जाती है.
औरत का चरित्र देवता नहीं जानते ? कैसे जानेंगे? जब खुद उनका राजा इंद्र हीं चरित्र हीन है. उसने अहिल्या समेत कितनी स्त्रियों का शील भंग किया है. इसीलिए पाणिनी ने इंद्र की तुलना श्वान से की है. ज्ञातब्य हो कि श्वान का काम पर वश नहीं रहता. यदि औरत चरित्रहीन है तो पुरूष तो उससे सौ गुना चरित्र हीन होगा, क्योंकि अधिकांश पुरूष ' पत्नी घर में, प्रेमिका मन में' वाली कहावत चरितार्थ करते हैं.
स्त्रियों ने हीं प्रथम सभ्यता की नींव डाली है. बन बन डोलते पुरूष को स्त्री ने हीं घर में रहना सिखाया है. पुरूष की हमेशा स्वछंद प्रवृति उसे' बाबा मौज करेगा' से ऊपर नहीं उठने दिया . यह औरत हीं है, जो हमेशा घर के बारे में सोचती है. घर के बारे में सोचने वाली कोई गृहिणी घर से इतर कैसे सोच सकती है? स्त्री की दुनियां उसके पति व बच्चे होते हैं. घर घरनी का तो बिनु घरनी सब सूना हीं होगा न ? कौन औरत अपने घरौंदे को सूना करना चाहेगी? कहा जाता है -बिन घरनी, घर भूत के डेरा.
त्रिया चरित्र की बात करने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारे ग्रन्थों में तो यह भी कहा गया है -'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता '. जब त्रिया चरित्र को देवता तक नहीं जानते तो वे वहां वास क्यों करने लगे ? मैत्रेयी, गार्गी, लोपमुद्रा और अनसूइया आदि महान स्त्रियां क्या चरित्र हीन थीं, जिन्होंने शास्त्रार्थ में पुरूषों को हराया था. हां, कुछ मामलों में त्रिया चरित्र वाली बात सही हो सकती है, पर इस बिना पर यह तोहमद आधी आबादी पर लगा दिया जाय -यह कहां का न्याय है ?
मेरे ख्याल में त्रिया चरित्र से तात्पर्य औरत के उलझे हुए चरित्र से है. मैं मानता हूं कि औरत का चरित्र काम्पलिकेटेड होता है. इसका खुलासा मैं जयशंकर प्रसाद की दो कहानियों का दृष्टांत देकर बताऊंगा . कहानी 'आकाशदीप 'की नायिका, नायक की मदद से आजाद होती है. वह उससे प्यार करती है. वह जानती है कि नायक उसके पिता का हत्यारा है,इसलिए वह उससे नफरत भी करती है. वह उसके प्रेम प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है. फिर भी जब वह समुद्र में वाणिज्य के लिए जाता है तो वह उसकी मंगल कामना हेतु आकाशदीप जलाती है. बिल्कुल अपनी मां की तरह, जो वह उसके पिता के लिए जलाती थी. अब एक और कहानी 'पुरस्कार ' की बात की जाय. नायिका नायक को प्यार करती है. जब उसे पता चलता है कि नायक उसके राज्य पर चढ़ाई के उद्देश्य से आया हुआ है तो उसका राष्ट्र प्रेम उसके प्यार पर भारी पड़ता है. वह नायक को पकड़वा देती है. नायक को प्राण दण्ड की सजा होती है. जब नायिका को पुरस्कार देने की बात आती है तो वह नायक का हाथ पकड़ कहती है, ' मुझे भी प्राण दण्ड दो,.'
तुलसीदास ने "पवित्र किए कुल दोऊ " कह जिस औरत का मान बढ़ाया है, उस औरत को राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम ने गर्भावस्था में वनवास भी दिया है, जबकि इसके पहले अग्नि परीक्षा भी ली थी । और उसी औरत को त्रिया चरित्र के परिपेक्ष्य में हम लाछिंत करते समय यह भूल जाते हैं कि स्त्री एक मां,बहन और बेटी भी होती है, जिससे हम भावनात्मक रूप से अनादि काल से जुड़ते
चले आ रहे हैं ।
तुम अपने शिकवे की बातें,
न खोद खोद पूछ हमसे.
जज्बातों के खेल में मोहब्बत के,
न कोई मांग सबूत हमसे.
- ई एस डी ओझा
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