मन लागा मेरे यार फकीरी में.

गुरूदयाल भाई ने अपनी मां को नहीं देखा था. उनकी बेबस मां ने जन्म लेते हीं रात के अंधेरे में उन्हें अरहर के खेतों में फेंक दिया था. दैव योग से वे रात भर सियार कुत्तों से बचे रहे .दो विधवा बहनों ने मिलकर उन्हें पाला .एक बहन का नाम अशरफा और दुसरी का सधुनी था. बाद के दिनों में सधुनी की मौत हो गई . अशरफा के ऊपर हीं गुरूदयाल भाई की पूरी जिम्मेदारी आ पड़ी.
कहते हैं कि अशरफा मेरे गांव की बेटी थीं ,जो पाण्डेय बिरादरी से थीं. पास के गांव में उनका ब्याह हुआ था. हमारे गांव में प्राइमरी स्कूल नहीं था. हम उन्हीं के गांव में पढ़ने जाया करते थे. हमारे गांव की थीं,इसलिए हम उन्हें अशरफा फुआ कहते थे. और उन्हीं के नाते उनके दत्तक पुत्र गुरूदयाल को भइया कहते थे .चूंकि स्कूल हमारे घर से दूर था, इसलिए हम चार बच्चे धूप से बचने के लिए दोपहर के खाने पर घर नहीं जाते .गर्मियों में कुछ न कुछ लाया करते और अशरफा फुआ के घर मिल बैठ बांट कर खा लेते. कभी कभार अपने घर भी चले जाते.
गुरूदयाल भाई के मां बाप का कुछ पता नहीं था. इसलिए उनकी शादी में अड़चन आई. गांव के हीं हलवंत पाण्डेय ने फैजाबाद के किसी गरीब ब्राह्मण लड़की से उनका ब्याह करा दिया. हम गुरूदयाल भाई की पत्नी को भइया ब (भाभी) कहा करते .जब भी हम अशरफा फुआ के घर जाते, भइया ब हंसती हुई मिलतीं. बड़े प्रेम से हमें खिलातीं. उनका चेहरा हमें आज भी याद है. उन्नत नासिका और बड़ी बड़ी आंखों से परिपूर्ण भरा भरा चेहरा . रंग गोरा था. यदि मैं कहूं कि उस समय तक मैंने उतनी सुंदर औरत नहीं देखी थी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. खाना खिलाकर भइया ब हमारे जूठे बर्तन भी मांज दिया करती थीं.
भइया ब की उम्र उस समय तीस के आस पास होगी. गुरूदयाल भाई की तकरीबन चालीस. बहुत कम उम्र में हीं अशरफा फुआ उनको ब्याह कर लाईं थीं. गुरूदयाल भाई का मन वैरागी हो चला था. वे भगवत भजन में लगे रहते थे. खेती बारी बटाई पर थी. घर में एक भैंस थी. दूध दही की कमी नहीं थी. कभी कभार हमें भी मट्ठा मिल जाया करता था. एक कमी थी. शादी के इतने सालों बाद भी गुरूदयाल भाई को कोई संतान नहीं हुई. दोष भइया ब पर मढ़ा जाता. अशरफा फुआ अक्सर अपनी भड़ास भइया ब पर निकालतीं.
एक दिन भावावेश में आकर भइया ब ने अशरफा फुआ को खरी खरी सुना दी. खुद आपका लड़का बैरागी बन गया है. दोष मुझे दे रहीं हैं. यदि यही हालत रही तो आप कभी पोते का मुंह नहीं देख पाओगी. अशरफा फुआ चौंक गईं. उन्हें सांप सूंघ गया. उन्हीं के नाक के नीचे बैराग की कहानी चलती रही और उन्हें पता तक नहीं ? फुआ ने गुरूदयाल भाई की लानत मलामत की. वंश वेलि आगे न बढ़ने का उन्हें जिम्मेदार ठहराया, पर गुरूदयाल भाई टस से मस नहीं हुए. उनका मन तो " मन लागा मेरे यार फकीरी में " था.
भइया ब की मां को भी इस बात का पता चला. फिल्मी स्टाइल में उन्हें भगा ले जाने का ताना बाना बुना गया. उनकी मां फैजाबाद से हमारे गांव आईं. एक बढ़ई परिवार के घर ठहरीं. गांव के साधु महेश दास को दूत बनाकर भइया ब के पास भेजा गया. उस समय अशरफा फुआ घर पर नहीं थीं. महेश दास ने भइया ब को पूरी रणनीति समझाई और वापस चले आए.
दुसरे दिन कोहराम मचा. भइया ब अपनी मां के साथ पलायन कर गईं. साधु महेश दास भी  गांव छोड़ कर जा चुके थे. अशरफा फुआ ने उनके सात पुश्तों को मोटी मोटी गालियां देकर अपना जी हल्कान किया. कुछ दिनों बाद जब बात आई गई हो गयी तो साधु महेश दास गांव में वापस आ गये . अब घर में अशरफा फुआ और गुरू दयाल भाई रह गये. जब तक बन पड़ा फुआ ने उनकी रोटी पानी का जिम्मा उठाया. थक हारकर वो भी परलोक सिधार गयीं .
गुरूदयाल भाई अब अकेले पड़ गये. उपलों की आग पर वे मोटे मोटे टिक्कड़ सेंक लेते. कभी हरी मिर्च व गुड़ के साथ कलेवा कर लेते तो कभी पड़ोस से उदारता वश आई सब्जी के साथ उन टिक्कड़ों का सेवन करते. घर की मरम्मत नहीं हुई तो वह भी एक दिन साथ छोड़ गया.  गुरूदयाल भाई गांव के पशु चिकित्सालय में शरण लिए हुए थे. उसके बाद उनका क्या हुआ ? पता नहीं चला. वही हुआ होगा, जो गोस्वामी तुलसीदास ने कभी लिखा था -
होइएं जो राम रचि राखा,
को कहि तरक बढा़वहिं शाखा.
                   -
Er S D Ojha
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