लोहे के गोड़ बना द राम.
रेवती बाजार तक का सफर पहले कितना दुश्वार था. अब कितना आसां हो गया है. रेवती से हमारे गांव तक पक्की सड़क हो गई है. जीपें चलती हैं. भुगतान कीजिए और आनन फानन में पहुंच जाइए अपने गन्तव्य पर .पहले हमारे गांव से चलिए तो झरकटहां गांव पहुंचिए .अब इस गांव के बीचो बीच से चलिए.जगह जगह जान पहचान के लोग मिलेंगें.एक दुसरे को दण्ड प्रणाम करिए. बातें करिए .फिर चलिए .जब दो बहरे लोग मिलते हैं तो सुनने वाले लोगों का काफी मनोरंजन होता है. एक बार ऐसे हीं दो लोग टकर गये. दण्ड प्रणाम के बाद पहला बोला -
' बाजार से आ रहे हैं ?'
दूसरा - 'ना, बाजार से आ रहा हूं '
पहला -'हमने तो सोचा कि आप बाजार से आ रहे हैं '.
दूसरा -' ना, ना, बाजार से आ रहा हूं. '
झरकटहां गांव से निकल कर डाक्टर रमाकांत सिंह की फुलवारी पड़ती है. जहां ' दम लेले घड़ी भर ये छईंया पाएगा कहां? ' की तर्ज पर क्षणिक विश्राम कीजिए. वहां का ठंडा पानी पीजिए. फिर आगे जाकर जटहवा बाबा से मिलिए. जटहवा बाबा एक बरगद का पेड़ है. कहते हैं कि जमीन के लिए दो दलों में मार पीट हुई. उसमें एक शख्स की जान चली गई. जहां पर जान गई, वहां पर एक बरगद का पेड़ उग आया. उस पेड़ की टहनियों से निकलने वाली जटाएं जमीन में धंसकर फैलती गयीं. फैलते फैलते उस पूरी जमीन को ढंक दिया, जो की विवादित थी. इस प्रकार से वह जमीन किसी के काम नहीं आई .माना गया कि उस पेड़ पर उस मृत शख्स की आत्मा बसती है. पेड़ की जटाओं की वजह से उस आत्मा का नाम पड़ा - जटहवा बाबा. सभी वहां से गुजरते वक्त जटहवा बाबा को प्रणाम करते हैं.
जटहवा बाबा के ठीक विपरीत राम तली राय का आमों का एक बाग है. पेड़ बहुत हीं सघन हैं . राम तली राय एक दबंग थे. उस बाग से किसी को आम चुराते समय सौ बार सोचना पड़ता. एक बार रात को चोर उस बाग में आपस का बंटवारा कर रहे थे. तभी राम तली राय के लोगों ने उन्हें धर दबोचा. पुलिस को सूचना दी गई. राम तली राय का बड़ा नाम हुआ था.
आगे चलकर एक परित्यक्त घर. इस घर पर कभी गिद्ध बैठ गया था. चूंकि गिद्ध अशुभ होते हैं, इसलिए गृहस्वामी ने उस मकान को छोड़ दिया और आगे थोड़ी दूर जाकर एक टोले में बस गया .रेवती बाजार जाने वाले लोग बारिश होने पर इसी घर में शेल्टर लेते थे. यह घर अब अस्तित्व में नहीं है. यहां खेती होने लगी है.
आगे एक टोला नजर आता है. टोला गांव का एक छोटा रूप होता है, जिसमें अधिकतम चालीस पचास घर होते हैं. इस टोले को 'भरवा का टोला 'कहा जाता है. 'भर ' पूर्वांचल की एक विरादरी होती है, जिनका पहले मुख्य पेशा ऊंची जाति वालों के यहां पानी भरना होता था. यहां तनिक विश्राम कीजिए.' भर ' विरादरी की औरतें कुएं पर पानी भरती रहती हैं. उनसे मांगकर ठंडा पानी पीजिए. फिर आगे चलिए.
पीपल, पाकड़ के पेड़ों के छाए में विश्राम करते हुए आगे बढ़ते चलिए. इन पेड़ों को कभी बिल्लर गोंड़ ने लगाया था. वे झरकटहां गांव से कांवर पर पानी ढोकर इन पेड़ों को सिंचित करते थे. मेरे ख्याल से इस रोड का नाम 'बिल्लर गोंड़ ' मार्ग रख देना चाहिए. बिल्लर के त्याग व तपस्या को देखते हुए यह बिल्लर गोंड़ के लिए एक छोटी सी श्रद्धांजलि होगी.
आगे एक ईनार ( कुआं ) आता था. इस ईनार को लोग 'कनिया का ईनार ' कहते थे . कनिया दुल्हन को कहते हैं. ये कनिया हमारे वंश परम्परा से आती थीं. जब ये शादी करके आईं थीं तो परिवार की बड़ी / बूढ़ियां उन्हें कनिया कहती थीं ,जो आगे चलकर उनका नाम हीं हो गया. कनिया बड़ी धार्मिक महिला थीं. उन्होंने रेवती वाले इस मार्ग पर लोगों के पीने के लिए एक ईनार खुदवाया, जो मेरे सामने तक था. जब सड़क पक्की होने लगी तो इसे पाट दिया गया. शायद कनिया को कुआं खुदाने का फलाफल इतना हीं मिलना था.
कनिया के ईनार से आगे धोबी घाट आता था, जहां धोबी और धोबन कपड़े धोते और उनके बच्चे घाट के ऊपर खेला करते . धोबी कपड़े धोते समय 'ओछ्छ 'की आवाज निकालते. कपड़े पत्थर पर पटकने के बाद वे दुबारा उन कपड़ों को पानी में डालते थे. अबकी बार उनकी आवाज आराम से भरपूर होती थी. जैसे कह रहे हों, ' उठा के बोतल घूंट भरा तो अब जरा आराम है. '
धोबी घाट के बाद कलवार ( बनिया) लोगों का घर और उसके बाद रेवती बाजार. रेवती बाजार, जहां से राशन, सब्जी, मसालें और कपड़े तो आते हीं ; साथ हीं हम बच्चों के लिए खुटकी, पेड़ा, टिकरी, पटऊरा ,अनरसा, मनरसा आदि मिठाइयां भी अातीं. लोग पैदल चलकर यहां आते पूरे रास्ते का रस लेते हुए और जब जाते तो मोटरियों की शक्ल में खुशियां भर कर ले जाते. इन मोटरियों से लोगों के घरों के चूल्हे जलते. बच्चों की आंखों में खुशियों की चमक जगती.
उस रास्ते को पक्की कर उसे महज पंद्रह/ बीस मिनट का रास्ता बना दिया गया. पहले रास्ता चलते हुए महिलाएं राम से प्रार्थना करती हुईं चलतीं कि हे राम हमारे पांव लोहे का बना दो ताकि रास्ते की तकलीफें वे सह सकें. धूप से बचाव के लिए उनके सिर पर कुदरती छत्र बना दो. अब कौन जानेगा कि कभी इस राह पर भी दुश्वारियां थीं, जिसे कम करने के लिए बिल्लर गोंड़ ने पेड़ लगाए थे. कनिया ने कुआं खुदवाए थे.
पिछली बार जब बिजन चौबे की XYLO गाड़ी में इस पक्की सड़क पर मैं अपने गांव जा रहा था तो रास्ते में औरतों के गाने की आवाज कानों में झांय झांय आ रही थी-
लोहे के गोड़ बनाई द राम.
सिर पर छत्र धराई द राम.
- ई एस डी ओझा
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