म्यांमार (बर्मा) में बड़ी मात्रा में लाए गये थे गिरमिटिया मजदूर.
म्यांमार में भारत से लाए गये गिरमिटिया मजदूर ,जिन्हें एग्रीमेंट खत्म होने पर भी स्वदेश नहीं भेजा गया. इन गिरमिटिया मजदूरों की सन्तानें आज भी म्यांमार की नागरिकता पाने के लिए दर-ब-दर हो रहीं हैं. गिरमिटिया मजदूरों के अतिरिक्त म्यांमार में अतिरिक्त रोजगार व व्यापार की तलाश में कुछ भारतीय आए थे ,जो कि बाद में यहीं बस गए .
4 जनवरी सन् 1948 को वर्मा ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्त हुआ था. यहां 1962 तक लोकतांत्रिक सरकारें शासन करती रहीं. 2 मार्च सन् 1962 में म्यांमार की सेना ने तख्ता पलट कर सत्ता पर अधिकार कर लिया. 1989 में बर्मा का नाम बदल कर इसे म्यांमार नाम दे दिया गया. ब्रिटिश शासन व लोकतांत्रिक सरकारों के समय में म्यांमार दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे धनी देश था. उस समय यह दुनियां का सबसे चावल निर्यातक देश था. म्यांमार में चांदी, टंगस्टन, टीन व शीशा आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे. सैनिक सरकार के दौरान अब म्यांमार सबसे गरीब देशों की पंक्ति में आ खड़ा है ,क्योंकि सैनिक सरकार के खिलाफ अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ ने कई तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं. अब सू की के रिहा होने व अन्य दुसरे लोकतान्त्रिक सुधारों की वजह से यह आशा बंधी है कि ये देश प्रतिबन्ध हटा लेंगे.
सू की भारत में रहीं हैं. उनकी पढा़ई भी यहीं पर हुई है. सू की के पिता आंग सान के भारतीय नेताओं से अच्छे सम्बन्ध थे. उनकी मां खी की लम्बे समय तक भारत में बर्मा की राजदूत रहीं थीं. भारत ने सू की के संघर्ष का हमेशा समर्थन किया है. अब जब कि वे म्यांमार की संसद में हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि 4 लाख भारतीयों को वे उनका वाजिब हक दिला पायेंगीं .गौरतलब है कि म्यांमार में कुल 29 लाख भारतीयों में से 4 लाख भारतीयों के पास म्यांमार की अभी भी नागरिकता नहीं है.
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