क्षिति जल पावक गगन समीरा.
कुम्भकारों का इतिहास वैदिक सभ्यता के पहले से है. मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से भी मिट्टी के बर्तन, खिलौने मिले हैं . मिट्टी के बर्तन बनाने का चलन कैसे हुआ, इसका कोई इतिहास नहीं है. जनश्रुति के अनुसार हाथियों के कीचड़ में नहाने से उनके मस्तक पर लगा कीचड़ जब सूखकर गिरता था तो वह एक बर्तन की शक्ल में होता था. उसे मनुष्यों ने पानी रखने के लिए इस्तेमाल किया. जब इसमें रखे पानी को गर्म किया गया तो यह बर्तन आग में तप कर और मजबूत हो गया. उसके बाद से मिट्टी के इस बर्तन को लोग आग में पकाने लगे. चूंकि यह बर्तन हाथी के सिर से बनता था, इसलिए लोग इसे कुम्भ कहने लगे. ज्ञातव्य हो कि हाथी के सिर के अग्र भाग को कुम्भ कहते हैं. बाद के दिनों में कुछ लोग इसे खुद बनाने लगे, जिन्हें कुम्भकार कहा जाने लगा.
कुम्भकार संस्कृत के तीन अक्षरों से बना है. कुम्भ, कार और आर्य. अर्थात् कुम्भ को बनाने वाला आर्य. महर्षि कुम्भज कुम्भ बनाने हेतु चाक का निर्माण करने वाले पहले वैज्ञानिक थे. सृष्टि चक्र एक ब्रह्मा के हाथ में तो दुसरा चाक के रूप में महर्षि कुम्भज के हाथ में. सृष्टि चक्र पंच तत्वों से बनता है. मिट्टी के बर्तन बनाने में भी वही पंच तत्व-मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश (शून्य, voids) , हवा होते हैं. तुलसीदास ने ठीक हीं कहा है -
क्षिति, जल ,पावक ,गगन, समीरा ;
पंच तत्व निर्मित यह अधम शरीरा.
आज हर शुभ कार्य में कुम्भ रखा जाता है. गृह प्रवेश, नवरात्र, मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा, कलश यात्रा आदि में कुम्भ की आवश्यक्ता पड़ती है. कालान्तर में कुम्भ को घड़ा कहा जाने लगा. गर्मियों में घड़े में रखा पानी फ्रिज की तरह ठंडा होता है, बल्कि यूं कहें कि फ्रिज के पानी से भी बेहतर होता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि घड़े के पानी से गला खराब नहीं होता. अतः हमें घड़ा बनाने वाले कुम्भकार के कलाकारी को दाद देनी पड़ेगी.
कुछ लोग कुम्भकारों का इतिहास दक्ष प्रजापति से जोड़ते हैं. दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र थे. उनकी सोलह पुत्रियां थीं, जिनमें से एक सती की शादी शंकर के साथ हुई. जब दक्ष ने महायज्ञ किया तो उसमें शंकर को आमंत्रित नहीं किया. शंकर के मना करने के बावजूद सती उस यज्ञ में सम्मिलित हुईं. वहां दक्ष प्रजापति ने सती के साथ उपेक्षा पू्र्ण व्यवहार किया. शंकर के लिए दुर्वचन कहे. सती यह तिरस्कार व अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाईं. वे अग्निकुण्ड में कूद गईं. सती के मरणोपरान्त शंकर ने बहुत तांडव किया. यज्ञ तहस नहस कर दिया . दक्ष प्रजापति का ब्राह्मणत्व निष्क्रिय हो गया. उन्हीं के वंशज आज कुम्भकार के रूप में विद्दमान हैं. ये नाम के बाद प्रजापति टाइटिल लगाते हैं. पूर्वांचल के कुम्भकार अपने को पड़ित (पंडित नहीं ) कहते हैं. इन्हें शाप मिला कि कलयुग में इन्हें ब्राह्मण के तौर पर नहीं जाना जाएगा.
उत्तर प्रदेश के कुम्भकार कनौजिया, हथेलिया, सुवारिया, बर्धिया, गदहिया, कस्तूरिया व चौहानी नाम से जाने जाते हैं. कर्नाटक के कुम्भकार अपने को सबसे सुपर कुम्भकार मानते हैं. कुम्भकार प्रायः वैष्णव होते हैं. उड़ीसा में इन्हें जगन्नाथी कहा जाता है. कुछ कुम्भकारों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया तो उन्हें मुस्लिम कुम्भकार कहा जाने लगा. अब क्षेत्रीय सम्प्रदायों के आधार पर इन कुम्भकारों को OBC, SC व ST में वर्गीकृत किया गया है.
पहले कुम्भकारों को मिट्टी आसानी से मिल जाती थी. अब मिट्टी भी मोल की हो गई है. धातु के बर्तनों की मांग बढ़ने से मिट्टी के बर्तनों की खरीद कम हुई है. कुम्भकार अपने काम से इतर दुसरे कामों की तरफ अपना रूख करने लगे हैं. जल का कुम्भ दुनिया के कुम्भ में मिलने लगा है. इनकी खुद की पहचान खत्म होने लगी है.
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है ; बाहर भीतर पानी.
फूटा कुम्भ, जल जलहि समाना ; यह तथ कथऊ गियानी.
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