म से माचिस

 हमारे जमाने में चूल्हे की आग भी बहुत मंहगी होती थी । किसी किसी के घर हीं  माचिस खरीदने की कूवत होती थी । एक के घर चूल्हे की आग जलती थी तो पूरे गाँव में बंटती थी । औरतें और बच्चे शाम का धुंधलका होने से पहले हड़ियां में उपले की आग मांगकर घरों को ले आते थे । उस आग से उनके घर के चूल्हे  जलते थे । पेट की आग बुझती थी । 

पहले आग दो पत्थरों को रगड़कर लगाई जाती थी । फिर चकमक पत्थर का आविष्कार हुआ । चकमक पत्थर ने आदि मानव को पका मांस खाना सिखलाया । पके भोजन से आदमी स्वाद और सुगंध से परिचित हुआ । उसने मांस के अतिरिक्त अनाज को भी अपने भोजन में शामिल किया । अनाज उत्पादन के लिए उसने खेती किसानी की ।

माचिस का आधुनिक रुप कई तरह के प्रयोग/  अनुप्रयोग के बाद प्राप्त हुआ है । आजकल लाल फास्फोरस,  पिसा हुआ ग्लास और चिपकने वाले गोंद से माचिस की तिल्ली बनाई जाती है । इसकी डिबिया कार्ड बोर्ड या पतली लकड़ी से बनती है । इस डिबिया में कितनी तिल्लियां आतीं हैं,  मुझे मालूम नहीं । इतना मालूम है कि तिल्ली को डिबिया के साईड में रगड़ने से आग जलती है । डिबिया की साईड घर्षण युक्त बनाई जाती है ।

एक आग सीने में भी जलती है । वह आग किस माचिस से जलती है ? यह भी पता नहीं । हाँ,  दुष्यंत कुमार कह गये हैं - "मेरे सीने में न सही , तेरे सीने में हीं सही ; हो कहीं भी आग , तो आग जलनी चाहिए ।" आग जलनी चाहिए । क्रांति का बिगुल बजना चाहिए । अपने हक की लड़ाई जरुर लड़नी चाहिए । हक मांगते हैं अपने पसीने का अधिकार हमें भी है जीने का ।

हमारे समय में टेका माचिस होती थी । टेका माचिस की तिल्लियां काफी मजबूत होतीं थीं । टेका का बाजार भी बहुत मजबूत था । पता नहीं टेका बाजार से क्यों गायब हो गया ? कुछ का कहना है कि टेका का रुप बदल कर उसे नया नाम दिया गया है - होम लाइट । होम लाइट भी ठीक माचिस है , पर हमारे समय की टेका माचिस अद्भुत व अद्वितीय थी । हम कहा करते थे - " साबुन में सनलाइट,  माचिस में टेका ; उत्पाती में नाम कमइले फलाने के बेटा " ।

माचिस को दियासलाई भी कहते हैं । दिया जलाने की सलाई ।सलाई स्वेटर बुनने के काम भी आती है । वह बड़ी होती है। सलाई संस्कृत के शलाका से बनी है । कुछेक लोग सलाई को अग्नि दण्डिका भी कहते थे । लेकिन यह आम जन की भाषा में समाहित नहीं हो पाई । यह कल भी मजाक में कही जाती थी , आज भी मजाक में हीं कही जाती है ।

दियासलाई भी कालातीत हो गया है । अंग्रेजी के " मैच बाॅक्स " से अभिप्रेरित हो हम इसे माचिस हीं कहते हैं । माचिस का उपयोग भी अब कम होने लगा है । सिगरेट व गैस जलाने के लिए लाइटर का प्रयोग होने लगा है । लाइटर में स्टील और चकमक पत्थर होता होगा । अगर यह बात सही है तो हम अपने पूर्वजों के दौर का अनुशरण करने लगे हैं । वैसै बच्चों के खिलौने में स्टील व चकमक पत्थर का अच्छा तालमेल होता है । अच्छी भली चिंगारी निकलती है ।

माचिस अब बीड़ी पीने वाले हीं इस्तेमाल करते हैं । माचिस से दिया भी जलता है । दिया और बाती का नाम होता है । माचिस का कोई  नाम नहीं लेता । भवन की सुंदरता पर सभी रीझते हैं,  पर उसके नींव की कोई बात नहीं करता ।


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