बुला रहे हैं डल झील के उन्मुक्त किनारे.

तकरीबन 18 वर्ग कलोमीटर के दायरे में फैली डल झील श्रीनगर का प्रमुख आकर्षण है. यह तीन दिशाओं से पहाड़ों से घिरी हुई है. नेहरू पार्क, कानुटुर खाना , चार चिनार आदि छोटे छोटे इस झील के बीच में जमीनी द्वीप हैं, जहां सैलानी शिकारे के मार्फत पहुंचते हैं. कश्मीर घाटी के कई अन्य झीलें भी इससे जुड़ी हुई हैं. चार प्रमुख जलाशय -गगरीबल ,लोकुट डल, बोड डल तथा नागिन इससे आकर जुड़ते हैं. पहले डल झील 40 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली हुई थी. धीरे-धीरे इसका एरिया घटता गया. लोगों ने इसे पाटकर रिहायशी मकान बना लिए हैं.
हाउस बोट और शिकारे डल झील की जान हैं. आज डल झील में तकरीबन 1200 हाउस बोट हैं , जिनमें सैलानी आ कर ठहरते हैं. शिकारे डल झील में घूमने के काम आते हैं. इसके अलावे कुछ डोंगियां भी होती हैं, जिससे हाउस बोट वाले अपनी जरूरत के सामान लाते हैं. हाउस बोटों की शुरूआत मजबूरी में हुई. जम्मू कश्मीर के डोगरा राजाओं ने कश्मीर की खूबसूरती बरकरार रखने के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यहां जमीन या कोई अचल सम्पति खरीदने पर बैन लगा दिया था. अंग्रेज अधिकारी मजबूर हो डल झील में अस्थाई आवास लकड़ियों के बना कर रहने लगे. यही अस्थाई आवास बाद में प्रचलन में आ गये . स्थानीय लोग भी इस तरह के आवास बनाने लगे और सैलानियों को किराए पर देने लगे. ये हाउस बोट होटलों से सस्ते होते थे. डल झील में रात गुजारना सैलानियों में एक अलग थ्रिल पैदा करने लगा. शुरूआती दौर में ये हाउस बोट छोटे होते थे, पर बाद में ये काफी लग्जरी होने लगे. टू रूम सेट, अटैच्ड वाश रूम, ड्राइंग कम डायनिंग रूम, ऊपर खुली डेक ,कालीन विछे हुए ये हाउस बोट काफी कीमत पर किराये पर उठाए जाने लगे. इन हाउस बोटों में लग्जरी के सारे साधन मौजूद रहते.
सर्दियों में डल झील जम जाती है. बच्चे इस पर क्रिकेट खेलते हैं. कुछ लोग स्केटिंग भी करते हैं. स्केटिंग के दौरान कई बार हादसे हो जाते हैं. जहां नरम बर्फ होती है, वह स्केटिंग के दौरान टूट जाती है और बन्दा सीधे 6 मीटर गहरे ठंडे पानी में चला जाता है. फिर शोर मचाएं, फायर ब्रिगेड मंगाएं तो इवोक्यूसन होता है. बन्दे की जान पर बन जाती है. सर्दियों में शिकारे या डोंगियां आराम फरमाती हैं. आपको हाउस बोट तक पैदल जाना पड़ेगा . समुझ समुझ पग धरना, ए हरना ; वाली बात जेहन में रख आपको हाउस बोट तक जाना होता है. जरा भी पांव बर्फ पर फिसला नहीं कि आप चारों खाने चित्त हो सकते हैं. इसमें दो बातें होंगीं. या तो आपको मामूली चोट लगेगी या गम्भीर. मामूली चोट लगी तो कोई बात नहीं. यदि गम्भीर लगी तो फिर एम्बुलेंस बुलाना, हस्पताल का चक्कर लगाना पड़ सकता है.
डल झील में अब जगह जगह फाउंटेन (फव्वारे) लगा दिए गये हैं. शाम को रोशनी में ये फव्वारे चलते हैं तो बहुत हीं अद्भुत नजारा पेश होता है. वाई फाई की सुविधा भी है. पहले डल लेक में फिल्मों की शूटिंग भी हुआ करती थी. जब से आतंकवाद यहां पनपा, निर्माता यहां शूटिंग से बचने लगे. डल झील में तरह तरह की वनस्पतियां उगती हैं. कमल के फूल भी उगाए जाते हैं,जिनके डंठल की सब्जी बनती है .स्थानीय लोग कमल के डंठल को कमल ककड़ी या नद्रू कहते हैं.छोटे-छोटे स्थानीय बच्चे इन फूलों को हाउस बोट व शिकारों में रहने /घूमने वाले सैलानियों को देते हैं. सैलानी एवज में जो कुछ देते हैं उसे लेकर ये बच्चे खुश हो जाते हैं. रात में डल झील में कुमुदिनी के फूल बहुत हीं मोहक लगते हैं. ये तब और मोहक लगते हैं, जब आकाश में कुमुदिनी नाथ (चन्द्रमा) हों. महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इन्हीं किन्हीं आह्लादित क्षणों में लिखा होगा -
उदित कुमुदिनीनाथ प्राची में ऐसे.
सुधा कलश रत्नाकर उठता हो जैसे.
डल झील में नौका बिहार, पानी में सर्फिंग व मछली पकड़ना आदि सैलानियों के प्रमुख शगल हैं. डल झील की मछली पकड़ स्थानीय लोग अपनी जीविका भी चलाते हैं. इसमें तैरते हाउस बोट, तैरते सब्जी के खेत, तैरते बाजार, तैरता पोस्ट आफिस आदि हैं. सब्जी के खेत साल की लकड़ी  के फट्टों पर मिट्टी डाल के बनाई जाती है .इसके मालिक इन खेतों को अपने-अपने हाउस बोटों से बांध कर रखते हैं. कभी कभार आपसी रंजिश के चलते ये खेत चोरी भी हो जाते हैं.
शाम के समय यह झील रोशनी में नहा जाती है. अच्छी खासी भीड़ होती है. सूर्यास्त के आकाश का नीला प्रतिविम्ब झील में उतर जाता है. तारों भरी रात की एक अलग हीं छटा होती है. डल झील को श्रीनगर का गहना कहते हैं. कभी श्रीनगर की सर्वांगीड़ खूबसूरती देख के मुगल बादशाह ने कहा था - यदि जमीन पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं हैं,यहीं हैं, यहीं हैं!
"अगर फिरदौस बर रूए जमीनस्त, हमीनस्त -ओ, हमीनस्त. "
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