सोरठी बृजभार ~ आँचलिक मिट्टी की सुगन्ध .

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  एक राजा थे . नाम था उदय भान . राज्य का नाम था सोरहपुर . राजा की सात रानियाँ थीं , फिर भी राजा निःसन्तान थे . पंडितों की सलाह पर
राजा ने घोर तपस्या की . फलस्वरूप राजा को कन्या धन की प्राप्त हुई . सोरहपुर की राजकन्या का नाम सोरठी रखा गया . ज्योतिषियों ने जब सोरठी की कुंडली बनाई तो वह पितृघातिनि निकली . लिहाजा उसे एक बड़े सन्दूक में बन्द कर पानी में बहा दिया गया .
सन्दूक सुदूर उत्तर की तरफ़ बढ़ चला . एक कुम्हार नदी में स्नान कर रहा था . उसने बच्ची की रोने की आवाज सुनी . सन्दूक पकड़ा . बच्ची सही सलामत थी . कुम्हार बच्ची को अपने घर लाया . उसका लालन पालन किया . बच्ची दिन दुनी रात चौगुनी के हिसाब से बढ़ने लगी . कुम्हार दम्पति बच्ची पर अपनी जान छिड़कते थे .
राजा उदयभान बच्ची को त्याग कर दुःखी रहने लगे . उनका मन राज काज में नहीं लगता था . वे सोचते थे कि ईश्वर ने एक बच्ची दी तो वह भी पितृघातिनि निकली . इसी कशमकश में राजा दिन काट रहे थे.
तभी राजा को पता चला कि उनकी बच्ची जिन्दा हैं . उन्होंने उस बच्ची को लाने की जिम्मेदारी अपने हीं राज्य के एक युवक बृजभार को सौंपी , जो गुरु गोरख नाथ का शिष्य था .
बृजभार की नई नई शादी हुई थी . उसकी पत्नी हेवन्ती नहीं चाहती थी कि वह उसे छोड़कर जाए . हेवन्ती रात को बृजभार की अंगुली अपने दांत में दबाकर सोई . बृजभार अपने गुरु से मदद मांगता है . गुरू के कहने पर बृजभार अपनी अंगुली के बदले हेवन्ती के दांत में सुपारी रख योगी वेश में सोरठी की खोज में निकल पड़ता है. रास्ते में उसे बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है .जब जब उस पर विपत्ति आई , तब तब हेवन्ती वहाँ पहुँच कर उसे बचा कर लाई . अपनी धुन का पक्का बृजभार अपने गुरु की मदद से हर बार हेवन्ती की गिरफ्त से आज़ाद हो सोरठी की खोज में निकल पड़ता . अंत में बृजभार सोरठी को लाने में सफल होता है .
राजा उदयभान को बृजभार के चरित्र पर शक होता है . वह नहीं चाहता कि सोरठी बृजभार से कोई सम्बन्ध रखे . इसके लिए राजा गुप्त रूप से बृजभार को मारने की योजना बनाता है . इसकी भनक सोरठी व बृजभार को लग जाती है और वे मोर मोरनी बन उड़ जाते हैं .
यह कहानी पूरे विहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज भी प्रसिद्ध है और लोगों द्वारा बड़े चाव से गाई जाती है . इस कहानी में नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव अत्यधिक है . जगह जगह गुरु गोरखनाथ बृजभार की मदद करते हैं . बृजभार जब भी विपत्ती में होता है अपने गुरु का आह्वान करता है -
      मथवा मुड़वल गुरु अरे चेलवा बनवल हो , अब गुरु होख नू सहाय नू रे की !
(हे गुरु ! आपने मेरा मुंडन करा कर अपना चेला बनाया है . अब आप मेरी मदद कीजिये . )
इस पूरे प्रकरण में हेवन्ती के त्याग , तपस्या व समर्पण की अनदेखी की गई है , वह हर बार बृजभार को विपत्ति से छुड़ा कर लाती है ,पर वह अपने गुरू की मदद से हेवन्ती की कैद से आज़ाद हो जाता है और अंत में उसे हमेशा के लिए छोड़ कर सोरठी के साथ चला जाता है . हेवन्ती नितांत अकेली व दुःखी रह जाती है .

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