अघोरी दुनियां , मस्त मगन दुनियां .
नरमुण्ड गले में पहने, कानों में कुंडल, एक हाथ में चिमटा व दुसरे में कमंडल, पूरे शरीर पर राख पोते हुए अघोरी की यही पहचान है. अघोरी की आंखें लाल, पर वाणी संयमित होती है. गले में काले ऊन के धागे में पिरोया हुआ सिंघ होता है, जिसे "सिंघी सेली " कहते हैं. ये तीन तरह की साधना करते हैं -शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना. शिव व शव साधना को मुर्दे पर खड़े हो कर सिद्धि की जाती है. इसके पीछे पार्वती का शिव के ऊपर पैर रखने वाली बात इनके मन में रहती होगी. श्मशान साधना में सिद्धि कराने वाले परिवार को भी शामिल किया जाता है.
अघोर का मतलब होता है, जो घोर नहीं है. अघोरी भी सरल हृदय होते हैं. ये किसी से कुछ नहीं मांगते. अघोरी तभी नजर आते हैं, जब ये श्मसान में साधना के लिए जा रहे हों या श्मसान से साधना कर आ रहे हों. कुम्भ मेले में भी ये नजर आते हैं. अघोरियों के चार प्रमुख शक्तिपीठ हैं - तारा पीठ, कामाख्या पीठ, त्रयंबकेश्वर और उज्जैन पीठ. पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिंगलाज धाम अघोरियों की तपस्थली रही है. इसके अतिरिक्त चित्रकूट ( उत्तर प्रदेश) , काली मठ (नैनी ताल) , काली घाट (कोलकाता) आदि भी अघोरियों के सिद्धि केन्द्र रहे हैं. वैसे कामख्या का हीं तंत्र विधि पूरे भारत में फैली हुई है. इनका मूल मंत्र है -
ऊं अघोरेभ्यं अघोरेभ्यं नमः ।
शिव की नगरी वाराणसी में भी अनेकों अघोरियों ने साधना की है. वाराणसी के बाबा कीनाराम इनके आदर्श रहे हैं. बाबा ने अघोर तंत्र पर एक पुस्तक "विवेकासार " लिखी है. गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी अघोरियों की साधनास्थली रही है. वौद्ध धर्म की एक शाखा बज्रयान भी अघोर तंत्र में सिद्धहस्त थी. आजकल अमेरिका में भी एक सोनाश्रम खुला है, जहां अघोर तंत्र पर शोध किया जा रहा है
अघोरी या औघड़ सम्प्रदाय के लोग एक अजूबे से कम नहीं हैं. इन्हें आप किसी बीराने, किसी श्मशान या कुम्भ मेले में हीं देख सकते हैं. अघोरी आम जनता से दूर रहते हैं. बहुत जरूरी होने पर हीं ये बात करते हैं. विशेष मंत्र के जरिए मृतात्मा को बुलाते हैं और उससे बात करते हैं. मंत्र साधना से श्मशान साधने में एक सप्ताह का वक्त लग जाता है. अघोर विद्या सबसे कठिन पर तुरन्त फलित होने वाली विद्या है, जिसके लिए माया मोह का त्याग करना आवश्यक है. अच्छा अघोरी वही होता है, जो अच्छा -बुरा,राग -द्वेष ,प्रेम -घृणा आदि सब से परे हो. अघोरी कुछ भी खाने से परहेज नहीं करते. मुर्दे का मांस भी ये खा जाते हैं. इसके पीछे इनकी यह लाजिक होती है कि ऐसा कर वे घृणा पर विजय पा रहे हैं. अघोरी रात को साधना, मांस मदिरा का सेवन करते हैं तो दिन को सोते हैं. इनका मानना है कि श्मशान में शिव का वास होता है. शिव की उपासना मोक्ष-मार्ग पर ले जाती है.
सभी तरह के वैराग्य धारण कर अंत में ये श्मशान से हिमालय की तरफ रूख करते हैं. दत्तात्रेय को ये अपना आदर्श मानते हैं और उनमें विष्णु व शिव का वास मानते हैं. हिमालय में जाकर ये दत्तात्रेय के सिद्धान्तों के आधार पर पंच तत्व में विलीन हो जाते हैं.
जमीन,आकाश में सब जगह शिव है, सत्य है.
विलीन हो जाते हैं पंच तत्व में जो चैतन्य है.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें