मणिपुरी संस्कृति के कई आयाम.
मणिपुर के इतिहास का पता महाभारत काल से चलता है. जब अर्जुन श्राप ग्रसित हो मणिपुर पहुंचे थे और उनकी मुलाकात चित्रांगदा से हुई. अर्जुन व चित्रांगदा से एक पुत्र बभ्रुवाहन हुआ, जिसकी लड़ाई अश्वमेध के दौरान अर्जुन से अनजाने में हुई. इस युद्ध में अर्जुन मृत प्राय हो गये थे. चित्रांगदा ने स्वयं युद्ध भूमि में आकर पिता पुत्र का मेल कराया था .
मणिपुर कुछ सालों तक म्यांमार के अधीन रहा. उसके बाद यह ब्रिटिश सरकार के अधीन रहा. जब अंग्रेज चले गये तो यह भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना. मुगल काल में मिथिला से कुछ ब्राह्मण भागकर मणिपुर में छुप गये थे. कालांतर में इन ब्राह्मणों ने मणिपुर में हिन्दू धर्म का प्रचार प्रसार करना शुरू किया. इनका साथ गुजरात से आए ब्राह्मणों ने भी दिया. आज यहां के सभी ब्राहमण शर्मा लिखते हैं और इनका इतना ज्यादा घालमेल हो गया कि यह अंतर करना मुश्किल हो गया कि कौन मिथिला और कौन गुजरात का ब्राह्मण है. उज्जैन से असम पहुंचे शंकर देव ने कृष्ण के निराकार रुप का प्रचार किया और मंदिर की जगह नाम घर बनाए, जिसमें कृष्ण की मूर्ति नहीं होती है. केवल कृष्ण का भजन कीर्तन होता है. चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों ने मणिपुर में कृष्ण के सगुण रूप को उजागर किया. कृष्ण के उस समय जगह जगह मन्दिर बने. रासलीला का आयोजन होने लगा .मणिपुर का राजा वैष्णव हो गया .आज भी मणिपुरी स्त्री / पुरुष ललाट पर लम्बा वैष्णव तिलक लगाए हुए आपको मिल जाएंगे .यही नहीं मणिपुर में दुर्गा पूजा भी धूम धाम से मनाया जाने लगा .ऐसा बंगाल से गये बंगाली जनों की वजह से हुआ.
होली यहां का सबसे प्रमुख त्यौहार है. ये होलिका दहन में लकड़ियों का ढेर नहीं करते हैं ,बल्कि नई झोंपड़ी बना उसे जलाते हैं. होली वाले दिन लड़के व लड़कियां समूह में एक दुसरे को गुलाल लगाते हैं, जिसे आपस के जान पहचान के रूप में देखा जाता है. होली से हुई पहचान रिश्तों में भी तब्दील होते देखे गये हैं. होली के अतिरिक्त ये दीपावली, रथ यात्रा, रासलीला भी मनाते हैं. मणिपुरी लोग तीर्थ यात्रा के लिए मथुरा, वृंदावन, गया, हरिद्वार आते हैं. यहाँ ईसाई धर्मावलम्बी भी निवास करते हैं, जो धूमधाम से क्रिसमस मनाते हैं. मुस्लिम ईद और स्थानीय मणिपुरी जनजातियां अपना लोकल पर्व मनाती हैं.
इस प्रकार हम देखते हैं कि मणिपुर में "विभिन्नता में एकता " ( Unity in diversity) समाहित है, पर पिछले कई दशकों से मणिपुर के इस धर्म निरपेक्षता को ग्रहण लग गया है. अब यह आंतक के साए में जीने लगा है. फौज व आतंकियों के बीच खूनी तांडव होने लगा है. इरोमी शर्मिला बहुत दिनों से मानवीय अधिकारों के बहाली के लिए आमरण अनशन कर रहीं हैं. कोई उनकी नहीं सुनता. जिस मणिपुर के मोईरांग में सर्वप्रथम नेताजी सुभाष चन्द्र ने भारत का झण्डा फहराया था, वह आज कई आतंकवादी संगठनों का गढ़ बना हुआ है. आज यहां हिन्दी की पढ़ाई पर आतंकियों ने बैन लगा रखा है. हिन्दी फिल्में यहाँ दिखाई नहीं जातीं. यहाँ के छात्र हिन्दी की जानकारी न होने के कारण बाहर जाने पर असुविधा महसूस करते हैं.
क्या कोई चमत्कार होगा ? क्या पहले वाली स्थिति बहाल होगी ? अभी तो सारे प्रश्न अनुतरित ही हैं .
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