हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा ...
फिल्म गोदान के इस चइता का गायन शान्त व हरकत मुकर्री से बचने वाले मुकेश ने किया था. इस गीत को अनजान ने लिखा और पंडित रविशंकर ने संगीत वद्ध किया था. यह फिल्म उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के उपन्यास गोदान पर आधारित थी. उपन्यास और फिल्म दोनों का नाम एक ही है. एक और संयोग इस फिल्म से जुड़ा है, वह यह कि इस फिल्म से सम्बंधित तीन लोग बनारस के रहने वाले हैं -प्रेमचन्द, अनजान और पंडित रविशंकर. यह गीत महान् नायक राजकुमार पर फिल्माई गई है.
चइता विशुद्ध रुप से कजरी की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में गाया जाने वाला एक शास्त्रीय गायन है, जिसे रंगताल में गाया जाता है. इसमें प्रमुख वाद्य यंत्र ढोल, झाल, सिटिका व खड़ताल होते हैं. इसमें सुर का आरोह व अवरोह मायने रखता है. लोग धीरे धीरे गाते गाते अचानक घुटनों पर बैठ जाते हैं और शुरू हो जाता है स्वर का उठान, झाल, ढोल, खड़ताल और सिटिका वाले झूमने लगते हैं. लगातार दो या तीन मिनट स्वर के ऊंचा होने का क्रम रहता है. फिर स्वर धीरे धीरे-धीरे उतार पर आने लगता है. लोग घुटनों से अब सहज पद्मासन मुद्रा में आ जाते हैं. गाना शांत अंदाज में महीनी पर आ जाता है. एक बार फिर उठान की प्रक्रिया शुरू होती है और उठान में हीं हो ..हो ...हो करते हुए अचानक गायन बन्द कर दिया जाता है. प्रस्तुत गोदान के चइता में शांत स्वर को हीं पंडित रविशंकर ने लिया है. इस गायन का प्रमुख पक्ष "हो रामा " है. गायन की यह विधा स्वर्गीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को बहुत प्रिय थी. वे चैत के महीने में दिल्ली में होने वाले इस तरह के समारोह में जरुर शामिल होती थीं .
कलकत्ता मे भी पूर्वांचल और बिहार के बहुत से लोग हैं. सन् 1970 तक चईता का जलवा उफान पर था. हमारे बाड़ी में कुछ खाली जमीन थी. बंगाल में घरों के समूह को बाड़ी कहते हैं और उनके स्वामित्व वाले आदमी को बाडी़वाला. हमारे बाड़ी में चैत मास में अक्सर दोगोला ( दो अलग अलग समूहों में ) चइता का आयोजन होता था. एक दल बलिया का तो दूसरा छपरा का. रात का शुरू हुआ यह कार्यक्रम सुबह तक चलता था. कई बार दोनों समूहों में तनातनी हो जाती थी. कोई समूह उठने को तैयार नहीं होता था. सुबह के ग्यारह बज जाते थे. बड़ी मुश्किल से दोनों दलों में सुलह सपाटा कराया जाता था.
मेरे पिताजी भी चइता गाने में प्रवीण थे. पड़ोस के बाड़ी वाले ब्रह्मदेव तिवारी के यहां अक्सर चइता का आयोजन होता था, जिसमें पिताजी को भी आमन्त्रित किया जाता था. बाज दफा वो बुलाना भूल जाते थे तो भी वो उसमें शामिल हो जाते थे. ये थी उनकी चइता के प्रति दीवानगी की हद तक प्रेम. आवाज को जब ऊपर उठाना होता था पिताजी की आवाज विल्कुल पतली लेकिन तीक्ष्ण हो जाती थी, जिससे उनकी आवाज अलग से पहचान में आती थी. यह चइता में आवेग भर देता था. जब चइता का लय सामान्य होता था तो पिताजी की आवाज भी सामान्य हो जाती थी. शायद पिताजी को अपने गले का कोई नस दबाने की महारत हासिल थी.
चइता की लोकप्रियता से प्रभावित हो एक बंगाली सज्जन भी चइता सुनने पहुंचे.चइता हो रहा था - आजु चइत हम गाईबि ए रामा एहि ठहियां ( आज मैं इस जगह पर चइता गाऊंगा. ) . बाजूबंद खुल खुल जाए -जैसे ठुमरी गायन में एक हीं वाक्य को बार बार दुहराया जाता है , उसी तरह की आवृति चइता में भी होती है. बार बार के दोहराव से उनका धैर्य जवाब दे गया. चइता खत्म होते हीं उन्होंने अपनी टिप्पड़ी उछाल दी . आप लोग बार बार कह रहे हो कि हम इस जगह पर चइता गाएंगे, लेकिन गा नहीं रहे हो. अरे बाबा गाओ ना. किसने रोका है ? ( अरे बाबा गा ना. तोमाके के रोके चे? ) .
आज नई पीढ़ी चइता से विमुख हो गई है. यही हाल रहा तो चइता इतिहास की चीज होगी. Once upon a time .. वाली बात किताबों में, दस्तावेजों में लिखी जायेगी और हम कायदे से इस पर फख्र करेंगे कि हमारी सांस्कृतिक विरासत ऐसी थी. आपका हिया दिन रैन जलता रहेगा ... आगे और आगे .हम अपनी इस विरासत को सिन्धु घाटी की सभ्यता की तरह याद करते रहेंगे .
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