हम पेड़ काटते हैं और छांव ढूंढते हैं.

पेड़ों की कटाई आज अन्धाधुन्ध हो रही है, जिसकी वजह से पर्यावरण की ढेर सारी समस्याएं दृष्टिगत हो रही हैं. हांलाकि पेड़ भी लगाए जा रहे हैं  ,पर एक फैशन के बतौर. पेड़ लगाया.. फोटो खिंचवाया. अखबार में नाम आया. फिर चलते बने. बाद में किसी ने यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि वे पेड़ किस हालत में हैं? हमारी संस्कृति वृक्षों के लालन पालन पर टिकी है. ऋग्वेद में वन देवी की स्तुति की गई है. "वनस्पतै नमः " कहकर कोई औषधि तोड़ने की चिरकालीन परम्परा हमारी रही है. मनुस्मृति में  पेड़ काटना एक जुर्म माना गया है. मत्स्य पुराण में  वृक्षारोपड़ की तुलना 30 हजार पितरों के श्राद्ध से की गई है. एक पेड़ 10 पुत्रो के बराबर है. पुत्र के लालन पालन में आपका स्वार्थ है तो पेड़ लगाने में परमार्थ का निहितार्थ है, .
हमारे गांव के नजदीक के बिलर गोंड़ ने इस परमार्थ के निहितार्थ को पहचान लिया था. झरकटहां से रेवती बाजार तक के रास्ते में  उन्होंने दर्जनों पीपल व पाकड़ लगवाए थे. ये पेड़ छायादार तो होते हैं, साथ हीं प्राण वायु (आक्सीजन) भी बहुतायत में छोड़ते हैं. इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को "अश्वत्थः सर्व वृक्षाणां " कहा है.  इन पेड़ों को लगाने में बिलर गोंड़ ने जो श्रमसाध्य प्रयास किया, वह अविर्चनीय है. वे उन नवजात पेड़ो को सिंचित करने के लिए कावंर पर पानी कई कोस से लाते थे. परमार्थ का यह नायाब उदाहरण है. कालिदास की शकुन्तला पेड़ों को पानी पिलाने के बाद हीं अन्न जल ग्रहण करती थी. माता पार्वती ने हिमालय में देवदारों की रक्षा अपने पुत्र के सामान की थी.
हम स्वर्ग की बात करते हैं, लेकिन स्वर्ग को धरती पर लाने की कभी बात नहीं करते. मुगल बादशाह जहांगीर ने कश्मीर की खूबसूरती का कायल होकर कभी कहा था.. "अगर जमीं पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है  ! यहीं है  !! यहीं है !!! . हम आज चाहें तो भारत में पेड़ लगाकर कई काश्मीर पैदा कर सकते हैं. बस एक अदद इक्षा शक्ति की दरकार है.
है कोई काम नहीं मुश्किल अगर ठान लीजिए.
सन् 1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश की चमोली जिले में  " चिपको आन्दोलन " आरम्भ हुआ, जो कि पूरे कुमाऊँ तक फैल गया. इस आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी प्रमुख रही. गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं .उनका कहना था -"पहले हमें काटो, फिर पेड़ काटो. " यह आंदोलन विश्वपटल पर काफी सुर्खियों में रहा, जिसकी वजह से भारत सरकार को एक अलग से "पर्यावरण मंत्रालय " खोलना पड़ा . सन् 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना. सन्   1987 में  इस आंदोलन को "सम्यक जीविका " पुरुष्कार मिला.
"मिट्टी पानी और बयार , जिन्दा रहने के आधार "का यह अमर वाक्य  तभी सार्थक होगा जब पेड़ बचेंगे . जंगल का ये उपकार मिट्टी, पानी और बयार - पेड़ों के होने से हीं होंगे .वो पेड़, जिन्हें हम जड़ से मिटा रहे हैं, फिर एक अदद छांव क्यों  तलाश रहे हैं ? शायर वशीर बद्र के शब्दों में  ....
तमाम पेड़ जलाकर, अपने हीं हाथों से,
अजीब शख्स है, साया तलाश करता है .
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