अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी.
उत्तराखण्ड के घसियारी जीवन को मैंने बहुत नजदीक से देखा है. घास काटना पढ़े लिखे समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है. जब मैं अम्बिका विद्यालय हबड़ा में पढ़ रहा था तो एक दिन हेडमास्टर के डी राय व अंग्रेजी अध्यापक एस टी झा में गरमा गरम बहस हुई. हेडमास्टर साहब ने कहा था - "मैंने इस स्कूल के लिए खून पसीना एक किया है. " एस टी झा ने तपाक से कहा -"आप खून पसीना एक कर रहे थे तो मैं क्या घास काट रहा था? " आज भी आपको कई ऐसे मिल जाएंगे जो कहते होंगे कि मेरे पास जिन्दगी का तजरबा है. मैंने कोई घास नहीं छिली है. लेकिन जिस घास के काटने से घर की अर्थ व्यवस्था चलती है, वह बुरी कैसे हो गई ?
उत्तराखण्ड की सरकार ने इस मिथ को तोड़ने के लिए हीं घसियारी प्रतियोगिता शुरू की है. टिहरी के मिलंगना ब्लाक स्थित ग्राम अमरसर बासर की रहने वाली सुश्री रैजा को नम्बर 1 घसियारी घोषित किया गया. उनको 7 जनवरी 2016 को 16 तोले का चांदी का ताज और एक लाख नकद इनाम मिला. अब तक विश्व सुन्दरी का हीं ताज मिलता था, अब तेजी से घास काटने के लिए भी ताज मिलने लगा. अब कोई घास काटने को हेय दृष्टि से नहीं देखेगा . घसियारी लोक नृत्य की भी प्रतियोगिता कराई जाने लगी है . अब औरतें भी कह सकतीं हैं,
"गर्व से कहो हम घसियारी हैं. "
इन घसियारियों का जीवन बड़ा हीं कठिन है. सुबह होते हीं ये दरांती ,रस्सी और कलेऊ लेकर जंगल की तरफ चल पड़ती हैं.इसका बहुत सुन्दर चित्रण कुमाऊँनी लोकगीतों में किया गया है -
ऊंचा नीचा ठाड़ि मा,
घाम एगो बातों मा.
घसियारों की पात लै ई रे,
कैल्व छू हाथों मा.
दराती घास काटने के काम आती है, पर बाघ मिल जाने पर यह उससे दो दो हाथ करने के भी काम आ जाती है. कई घसियारिनें ऐसी मिलीं ,जिनसे लोहा लेने में बाघ महाराज को भी पसीने छूट गये और उन्हें दुम दबाकर भागना पड़ा . पतरोल इन्हें पकड़ने से पहले इनकी दरांती पर कब्जा करता है. ये दरांती का इस्तेमाल बड़ी सूझ बूझ से करती हैं. इनका ध्यान रहता है कि कहीं कोई छोटा पौधा दराती की जद में आकर कट न जाय. ये पेड़ का छोटा पौधा बचाती हैं तो जंगल बचता है. असली इकोलाजिस्ट तो ये घसियारिनें हैं. जंगल इनकी बदौलत सांस ले रहा है. घास काटते समय ये मधुर घसियारी गीत गातीं हैं. इनके बातचीत का विषय आम औरतों जैसा है - बच्चे, पति , कपड़े, क्या बनाया, क्या खाया आदि.
उत्तराखण्ड में ये घसियारिनें हीं किसान हैं. मर्द हल चला कर अपने कर्तव्य का इति श्री समझ लेते हैं. उसके बाद खेतों की निराई, सिचाई, गुड़ाई, फसल कटाई से लेकर अनाज निकालने की सारी जिम्मेवारी औरतों की हीं होती है. मर्द ताश खेलते हैं. खाना ये घसियारिनें हीं बनातीं हैं. मर्द सूर्य अस्त होते हीं मस्त हो जाते हैं. रात को खाना खाया और सो गये. मेरे रानीखेत के मित्र सी डी बेलवाल ने एक रोचक संस्मरण सुनाया था. मर्द ताश खेल रहे थे. तभी बच्चे दौड़ते हुए आए कि भैंसे आपस में भिड़ गईं हैं. उनके सिंघ आपस में इस तरह से गुथ गये हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल हो रहा है. मर्दों पर कुछ असर नहीं हुआ. वे ताश खेलते रहे. बोल उछाल दिया, "अपनी महतारी से कहो ". घास काट कर आईं औरतें उन भैंसों को अलग करने लगीं .सी डी वेलवाल और उन जैसे आधुनिक प्रबुद्ध लोगों ने मिल बहोरकर उन भैंसों को अलग किया, पर ताश खेलने वाले अपने में मगन रहे.
जो लड़कियां पहाड़ से प्लेन में आ गईं हैं, वे पहाड़ में औरतों की कठिन जीवन देख अब पहाड़ में शादी के लिए मना कर रहीं हैं . एक बानगी देखिए -
हाथां जोड़ा अर्ज पिताजी,
मेरी शादी न करना पहाड़वां.
पहाड़ी लोगां झुगरा कुटोला,
मेरे हाथां में छाला फुटोला.
घास काटते समय ये घसियारिनें कभी कभी पहाड़ से गिरकर मर भी जाती हैं. मृत्यु की जगह एक बहुत छोटा सा मन्दिरनुमा संरचना बना दी जाती है ,जिसमें मृत आत्मा की पूजा की जाती है. जीते जी जिसकी कद्र नहीं की मरने के बाद उसकी पूजा क्या करना ? लेकिन मरने के बाद हीं पूजा होती है, चाहे घसियारिन हो या सती हो. मैंने मातली की अपनी पोस्टिंग के दौरान ऐसा हीं एक मन्दिर देखा था, जो डुण्डा और नाकुरी गाँव के बीच था. पता चला कि यह किसी अपने ITBP के हवालदार की पत्नी का चऊरा है.
सबसे बड़ा लोमहर्षक व करूण वाकया मेरे fb friend और मेरे साथ मिर्थी मे रहे
G.d. Bhatt
की मां का है. वो अपनी सहेली से बात करती करती घास काट रहीं थीं. तभी पत्थर गिरने की आवाज आई. सहेली ने कहा, "पत्थर क्यों गिरा रही हो? " कोई जवाब न मिलने पर उसने आगे बढ़कर देखा तो वे बहुत नीचे गिरकर पहुंच गईं थीं. पास जा कर देखा तो बड़ा हीं लोमहर्षक दृश्य था. उनका पूरा मगज बाहर निकला हुआ था.घसियारिनों के मरने का प्रमुख कारण उनका तगड़ा रिस्क लेना है .वे घास के लिए खड़ी चट्टानों पर भी पहुंच जाती हैं. ऊंचे ऊंचे पेड़ों पर मात्र हवाई चप्पल के साथ चढ़ जाना इनके बाएं हाथ का खेल है. मिर्थी में कई औरतें सन्तरी के निगाह से बच बचाकर कैम्प के पेड़ों पर चढ़ जाती थीं . पता चलने पर हड़बड़ी में उतरना शुरू कर देती थीं. एकाध बार मैंने स्वंय उन्हें आराम से उतरने की सलाह दी है और कैम्प छोड़ कहीं और से लकड़ी काटने की तागीद की है.
घास काटने के चक्कर में असमय मौत के बाद परिवार विखर जाता है. घर में छोटे छोटे बच्चे होते हैं. उन्हें कौन पालेगा? एक दो साल में पुरूष की शादी हो जाती है. विमाता इन बच्चों का लालन पालन अपने सगे बच्चों के समान नहीं कर पाती. घसियारिन का त्याग व्यर्थ जाता है. मैथिली शरण गुप्त ने नारी के इस त्याग का बहुत हीं सुन्दर सटीक वर्णन किया है -
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी.
आंचल में है दूध और आंखों में है पानी.
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