जब हम तपे आग में, फौलाद हो गये.
नागा साधुओं को लेकर आम जन में एक उत्सुक्ता बनी रहती है. खासकर विदेशियों में. हर कुम्भ, अर्द्ध कुम्भ मेले में पहला स्नान इन्हीं साधुओं का होता है, जिसे शाही स्नान कहते हैं. इन साधुओं को दिगम्बर कहा जाता है अर्थात् आकाश हीं इनका वस्त्र है. प्रायः ये साधु नग्न हीं रहते हैं. नागा सम्प्रदाय एक पंथ है, जो मानव बस्ती से दूर अपनी एक अलग दुनियां में जीते हैं. नागा लोगों का जीवन कठोर एंव अनुशासित होता है. जब कोई व्यक्ति नागा साधु बनना चाहता है तो उससे सर्वप्रथम यह पूछा जाता है कि उसके नागा बनने का प्रयोजन क्या है? सन्तोषजनक प्रत्युत्तर प्राप्त होने पर उसे नागा साधु बनाने की प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है. पहले उस व्यक्ति का मनसा, वाचा , कर्मणा से ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है. इस परीक्षा की अवधि छः माह से छः साल की भी सकती है.
ब्रह्मचर्य की परीक्षा पास होने पर उस व्यक्ति को अवधूत बनाया जाता है. इस प्रक्रिया के दौरान अवधूत को सिर्फ एक लंगोट पहन के रहना पड़ता है. उसे अपने बरिष्ठ साधुओं की सेवा करनी पड़ती है. सारे परीक्षाओं में पारंगत होने पर अवधूत को नागा पंथ के ध्वज तले चौबीस घंटे के लिए खड़ा कर दिया जाता है. वह इस चौबीस घंटे में बैठ भी नहीं सकता. चेक करने के लिए बारी बारी से सभी बरिष्ठ सन्यासियों की ड्यूटी लगती है . अब शुरू होता है उस अवधूत को ब्रह्मचारी बनाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया, जिसमें अवधूत को चीखने, चिल्लाने की भी अनुमति नहीं. अन्तिम प्रक्रिया के तौर पर उस अवधूत को कुम्भ स्नान कराया जाता है, जिसमें वह अपना श्राद्ध व पिण्ड दान स्वयं करता है.
श्राद्ध व पिण्ड दान के बाद वह अवधूत समाज व अपने घर वालों के लिए मृत मान लिया जाता है. अब उसका नया जन्म होता है. उसका लंगोट कुम्भ स्नान में बहा दिया जाता है. अब उस अवधूत को नागा पंथ में शामिल कर लिया जाता है. नागा साधु को मात्र पांच घरों से भिक्षाटन कर खाने की अनुमति है. यदि पांचों घर से उसे खाली हाथ लौटना पड़ा तो उस दिन उसे भूखा हीं सोना पड़ता है. शरीर पर मात्र उसे भभूत लपेटने की हीं इजाजत है. जमीन पर सोना, जो साग सत्तू मिले उसी से तृप्ति होना, मंत्र में आस्था रखना और पंथ में श्रमसाध्य काम करना -यही दिनचर्या होती है नागा साधुओं की.
आदि गुरू शंकराचार्य ने एक सन्यासियों की मार्शल कौम बनाई थी, जो त्रिशूल, तलवार चलाने में सिद्हस्त होती थी . जब अहमद शाह अब्दाली मथुरा, बृंदाबन को रौंदता हुआ गोकुल की तरफ बढ़ा तो चालीस हजार नागाओं ने उसके मार्ग को रोका. अब्दाली को पीछे हटना पड़ा. इन नागाओं को त्रिशूल, तलवार चलाने की बकायदा ट्रेनिंग दी जाती है. घर की याद न आए उसके लिए बोल बम का गांजा व चिलम भी है. इन्हें पहलवानी की ट्रेनिंग भी दी जाती थी. इसीलिए उनके पंथ के रहने की जगह को अखाड़ा कहते हैं. आज देश भर में तेरह अखाड़े हैं. इस साल लगभग पचास हजार प्रशिक्षु इन आखाड़ों में आने को तैयार हैं. ये शिव भक्त होते हैं.
चूंकि नागा साधु भीड़ से दूर बीरान जगहों पर रहते हैं और इनको मीडिया से बात करने की मनाही होती है, इसलिए इनके बारे में अभी बहुत कुछ ज्ञात नहीं है. नागा पंथ एक सैन्य पंथ है, जो समय समय पर समाज के कल्याण के लिए काम करता आ रहा है. भूतकाल में इन्होंने कई लड़ाइयां राजाओं महाराजाओं की तरफ से लड़ी हैं. हालांकि इनके गुस्सों के बारे में कई किंवदन्तियाँ समाज में फैली हैं. मेरी मां कहा करती थी कि एक बार शाही स्नान के समय पहले हम के चक्कर में इन लोगों ने आम जनों पर हाथियां दौड़ा दी थीं. बहुत लोग घायल हुए थे. कुछ मारे गये थे. यदि इस घटना को अपवाद के तौर पर देखा जाय तो उसके बाद शायद हीं इन्होंने किसी का नुकसान पहुंचाया हो.
नागा पंथ में महिलाएं भी शामिल होती हैं. ये देश के कुछ हीं आखाड़ों में रहती हैं ,जहां इनकी सुरक्षा की चाक चौबन्द ब्यवस्था है. इन्हें एक ही गेरूवा वस्त्र से अपना तन ढकने की इजाजत है. शाही स्नान के समय भी ये कपड़ों में होती हैं. विदेशी महिलाएं बहुतायत में इस पंथ में दीक्षित हो रही हैं. नेपाल के उच्च वर्ग की वे महिलाएं जो असमय हीं विधवा हो जाती हैं, पर उन्हें दूसरी शादी की इजाजत नहीं मिलती ; वे इस पंथ को अंगीकार कर लेती हैं. भारत की उच्च वर्ग की विधवा महिलाएं कुछ स्वेच्छा से तो कुछ सामाजिक कारणों से इस पंथ में आ रही हैं.
आठवीं सदी के अंत से शुरू आदि शंकरचार्य द्वारा स्थापित यह पंथ आज भी फल फूल रहा है. मुझे तो लगता है कि इनके लिए श्राप भी बरदान साबित हो रहा है. कुछ तो इनमें अच्छाइयां होगीं(जो हमें दृष्टिगोचर नहीं हो रही हैं ), जिससे यह पंथ आज भी अपना अस्तित्व बरकरार रखे हुए है.
कुछ शाप भी दुनियां में आशिर्वाद हो गये.
जब भी तपाया आग ने ये फौलाद हो गये.

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