थार भूमि के मूल निवासी हैं थारू जनजाति.
सन् 1576 में हल्दीघाटी की लड़ाई मुगलों और महाराणा प्रताप के मध्य हुई थी . राणा प्रताप के कुछ सिपाहसलारों ने अपने परिवारों को सुरक्षा के दृष्टि से अपने सेवकों के साथ हिमालय की तलहटी में भेज दिया. जब सारे सिपाहसलार युद्ध में खेत रहे तो उनकी औरतों ने सेवकों से हीं शादी कर ली .इनसे जो खानदान चला , उन्हें कालान्तर में थारू कहा जाने लगा. थारू इसलिए कि ये लोग राजस्थान के थार इलाके से आए थे. कुछ इतिहासकार थारू का संबंध तरू से जोड़ते हैं. चूंकि ये जाति तरूओं (जंगलों ) के बीच रहती आई है, इसलिए इन्हें तारू कहा गया ,जो कि बाद में अपभ्रंश हो थारू हो गया.
सन् 1976 में इस जनजाति को भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया. इनके 7 उपसमूह आते हैं- राणा, बुक्सा, गडौरा, गिरनामा, जुमिया दुगौरा, सौसा व पसिया आदि. इनकी भाषा राजस्थानी से मिलती जुलती है. इनकी वेश भूषा राजा महाराजाओं की तरह होती है. इनकी औरतें रानियों की तरह कपड़े व गहने पहनती हैं. ये अपने को सिसोदिया राजपूत कहते हैं और हर साल महाराणा प्रताप की जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाते हैं.
थारू जनजाति ,जो नेपाल और भारत के सीमावर्ती तराई इलाके में पाई जाती है, हिन्दू धर्म को मानती है और हिन्दुओं के लगभग सभी त्योहारों को मनाते हैं. इनका मुख्य पेशा खेती है.चावल इनका प्रमुख भोजन है,कारण तराई इलाके में धान की फसल अच्छी होती है. फिर भी ये लोग ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, मटर आदि भी अपने भोजन में शामिल करते हैं. ये ब्रेकफास्ट को कलेवा, लंच को मिंगी, डिनर को बेरी कहते हैं . ये आखेट , मछली मारना और पशु पालन जैसे दुसरे व्यवसाय से भी जुड़े हैं . औरतॊं में जादू टोना का काफी प्रभाव है. कहा जाता है कि ये गैर थारू मर्द को जादू से अपने वश में कर लेती हैं.
थारू लोग मुखिया, प्रधान, ठेकेदार, पुजारी और भर्रा का काफी आदर करते हैं. भर्रा इनके यहां चिकित्सक का काम करते हैं. मौत हो जाने पर ये शव पर हल्दी का लेप कर हीं उसे जलाते हैं. घर की शुद्धि हो जाने पर ये तेरहवीं पर सभी को दावत देते हैं.
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