सहजीवन से पर्यावरण रक्षा.

आज "परस्परोपग्रहो जीवानाम् " की संस्कृत की यह सूक्ति पर्यावरण पर उपयुक्त बैठती है. जीवों का सहजीवन हीं पर्यावरण की रक्षा कर सकता है. मारीशस का डोडो पक्षी कैवेलेरिया वृक्षों के जीवन दाता के तौर पर जाना जाता था. इन वृक्षों के फल काफी कठोर थे, जिससे इनमें वृक्ष का अंकुरण नहीं हो सकता था. इन फलों को डोडो पक्षी खाते थे, जो उनकी  जठराग्नि में जाकर मुलायम हो जाते थे. बाद में ये अवशेष के साथ निकल धरती पर अंकुरित होते थे. जब मनुष्य ने डोडो पक्षी का अंत किया तो कैवेलेरिया के पेड़ भी स्वतः विलुप्त हो गए .
इसी प्रकार धनेश (Horn bill ) पक्षी भी कुचिला जैसे विषैले वृक्ष के फल बड़े चाव से खाता है और अपने उदर की जठराग्नि में इसे मुलायम कर देता है. यही मुलायम फल अपशिष्ट के रूप में बाहर निकल पुनः अंकुरित हो कुचिला का पेड़ बन जाता है. इस कुचिला के फल से नक्स वोमिका नामक होम्योपैथी दवा बनाई जाती है, जो किडनी, लीवर आदि की बिमारियों में काफी गुणकारी होता है. इस फल का शोधन कर आयुर्वेद की दर्द निवारक दवा तैयारी की जाती है. कुचिला पेड़ की वंश वृद्धि में सहायक धनेश पक्षी का आजकल तेजी से शिकार हो रहा है. लोगों को भ्रम हो गया है कि धनेश का मांस औषधीय गुणों से भरपूर है. अगर इसी तरह से इस पक्षी का शिकार होता रहा तो धनेश के साथ साथ कुचिला का भी अस्तित्व संकट ग्रस्त हो जाएगा .
कपित्थ को Elephant apple कहा जाता है, जिसे हाथी बड़े चाव से खाते हैं. खट्टा-मीठा यह फल गणेश भगवान को प्रिय है.गणेश पूजा के दिनों में गणेश को यह फल अर्पित कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है.
        गजाननम् भूतगणादि सेवितं ।
      कपित्थ जम्बूफल चारू भक्षणं ।।
मनुष्यों को भी यह फल पसन्द है. कपित्थ फल की चटनी शान्दार होती है .इस फल की वंश बेलि के फैलाने में हाथियों का महती योगदान है, पर दुःखद है कि हम मनुष्यों द्वारा जंगलों की अंधाधुंध कटाई से हाथियों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं . हाथी नहीं तो कपित्थ ( कैथ)  नहीं. इसी प्रकार ब्राजील एंव अन्य देशों में पक्षियों की कतिपय प्रजातियों के  खत्म होते हीं वहां के कई फलदार वृक्ष खत्म हो गये.
जानवरों में सहजीवन का दृष्टांत अनेकों हैं. भैंस या सूअर पर बैठा कौवा उनके पीठ और कान के परजीवियों को मार सफाई तो करता हीं है, साथ हीं अपनी उदर क्षुधा भी शान्त करता है. ऐसे हीं एक विशेष चिड़िया है, जो मगरमच्छ के मुंह में घुसकर उसके दांतों में फंसे मांस के टुकड़ों को खाती है. इस दौरान मगरमच्छ मुंह खोले रहता है और उस चिड़िया को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता. चिड़िया अपना काम कर उड़ जाती है. मगरमच्छ भी दांतों की हुई सफाई से रिलीफ महसूस करता है.
सहजीवन की मिशाल मनुष्य के जीवन में भी है. पर्वतीय इलाकों में चिपको आन्दोलन, केरल का अप्पिको आन्दोलन और विश्नोई समाज का मृग प्रेम इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि मानव भी सहजीवन का इच्छुक है. आज हम कह सकते हैं कि पारस्थितिकी विवेक मानव में भी जागृत हो रहा है, वेशक धीरे धीरे  . "दिन भर चले चवा भर जाई "वाली बात होगी तो काफी देर हो जाएगी और हम यही कहते रह जाएंगे -
बहुत देर से दर पर आंखें लगी थीं .
हुजूर आते आते बहुत देर कर दी.
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