हुजूर आते आते बहुत देर कर दी.

अथर्ववेद में लिखा है, "मेरे दाहिने हाथ में यदि कर्म है तो निश्चय हीं मेरे बाएं हाथ में सफलता होगी. " हमारे पूर्वज भी "कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविशेक्षतम समाः ।" कर्म करते हुए सौ साल तक जीने की परिकल्पना की थी. मेरे पिता भी एक कर्मयोगी थे. वे बोटानिकल गार्डेन, हबड़ा, पश्चिम बंगाल में  एक सुरक्षा कर्मी से शीघ्र हीं सुरक्षा प्रमुख के पद पर पहुंच गये थे. उन दिनों सुरक्षा प्रमुख को जमादार कहा जाता था. पिता जनेऊ की तरह एक लाल पट्टा पहनते थे, जिसमें एक पीतल की एनेक्सी पर जमादार लिखा होता था. मुझे जमादार शब्द से अत्यधिक लगाव था. मैं जब भर्ती हुआ तो  ITBP में जमादार /ओवरसियर पद था, पर कुछ दिनों बाद इसे सब इन्सपेक्टर /ओवरसियर कर दिया गया. पता नहीं क्यों बदला? मुझे तो अच्छा लगा था बाप बेटा का एक हीं पद पर होना.
पिताजी ने 40/- प्रति वर्ष की मालगुजारी के एवज में 23 कट्ठा जमीन ली और किसी के साथ साझे में. उसमें एक डेयरी फार्म खोला. शुरूआत एक दो गायों से की जो कि बाद में 12 गायों तक पहुंची . पिताजी ने एक नौकर रखा. रात को उसके साथ मिलकर वे बिला नागा  बोटानिकल गार्डेन में घास काटते. बाज दफा गायों को घास देते समय पता चलता कि उन्हीं घासों में सांप के भी दो टुकड़े कट कर आ गये हैं. साझेदार ने 40/- रुपए मालगुजारी को ज्यादा बताते हुए साझेदारी छोड़ दी. अब पिता के पास पूरी 23 कट्ठे जमीन थी. डेयरी व तनख्वाह की आमदनी के चलते पिता ने उस 23 कट्ठे जमीन पर खोला बाड़ी (छोटे छोटे घर ) बनवाए और उन्हें मजदूर टाइप के लोगों को किराये पर देना शुरू किया .गांव में पैतृक सम्पति के अतिरिक्त तकरीबन 21 बिघा जमीन ली. बाद के दिनों में यह 23 कट्ठा जमीन भी उन्होंने जमीनदार से वांछित कीमत पर खरीद ली. आज पिता नहीं हैं,पर उसी जमीन पर मल्टी स्टोरी बिल्डिंगें खड़ी हो रही हैं. मेरे भाई स्वयं के योगदान से तो मैं बिल्डर के साथ साझे में इस प्रोजेक्ट को सरे अंजाम दे रहा हैं .
पिताजी ने बहुत से लोगों को बोटानिकल गार्डेन में नौकरी दिलवाई थी. पहले यह स्टेट गवर्नमैंट के अधीन था. बाद में केन्द्रीय सरकार के अधीन हो गया .कई लोग मुझे कई बार गार्डेन में घूमते, हाट बाजार करते समय मिलते .वे अपना परिचय दे पिता के प्रति कृतज्ञता जाहिर करते और  कहते," मेरी नौकरी बाबा की ही लगायी हुई है. " मैं उनका हीं पुत्र ITBP में Dy. Commandant पद पर पहुंचकर भी एक भी अपने गांव गिरान, नात रिश्तेदार की नौकरी नहीं लगवा पाया. मात्र अपने बच्चे पढ़ाए. सम्पति के नाम पर एक अदद घर बनाया. बस. पिता और पुत्र के परोपकार व कर्मठता में कितना बेहिसाब अंतर है!
पिता ताजिन्दगी निरामिष रहे. उन दिनों यह प्रचलित था कि जो बंगाल में रहेगा उसे मछली जरूर खानी होगी, अन्यथा वह बीमार रहेगा. मैं घर में सबसे छोटा था. मुझे अक्सर बुखार हो जाया करता था. डाक्टर ने मछली खाने की सलाह दी. मैं खाने के लिए राजी नहीं था. बड़े भाई ने कहा, "चलो मैं भी खाऊंगा. " भाई के साथ खाने की बात पर मैं राजी हो गया. अपने हीं किरायेदार के घर मछली बनी. अपने घर का दाल चावल. खाने दोनों भाई बैठे. भाई ने दाल चावल एक ग्रास मुंह में डाला. मछली को अभी स्पर्श नहीं किया था. तभी भाई ने वह ग्रास उगल दिया. मुझे भी अच्छा मौका मिल गया. मैं भी भोजन पर से उठ गया. तब से आज तक मैं भी निरामिष हीं हूं. पिता को दमे की बीमारी थी. डाक्टर उन्हें अक्सर मछली खाने की सलाह देता. पिता सलाह नहीं मानते. अब  "देश छूटी कि प्रण टूटी " वाली बात हो गई. अंत में देश छूट गया, पर प्रण नहीं टूटा.
पिता गांव आ गये. भाई हर दो तीन माह पर आके उनकी खोज खबर, दवा वगैरह दे जाते. दमा अपने अंतिम स्टेज पर पहुंच गया था. कभी भी कुछ हो सकता था. भाई का परिवार गांव पर हीं था. मैं भी परिवार के साथ वहां पहुंच गया. 19 फरवरी सन् 1986 को तकरीबन 89 वर्ष की अवस्था में पिता का प्राणांत हो गया. भाई हबडा़ में थे. कुदरती मरने से एक दिन पहले मेरे मामा पिता का हाल चाल जानने के लिए आए थे. उनसे मुझे अत्यधिक आत्म बल मिला. गाँव के लोग बैंड बाजा बजवाने के लिए कहने लगे. मुझे यह उचित नहीं लगा तो मामा ने समझाया कि बूढ़ का यदि चोला बदल जाय तो इससे बढ़ियां बात कुछ और नहीं हो सकती. बैन्ड बाजा हुआ. भाई चुपके से चंदन की लकड़ी एक मन घर पर रख गये थे. वह काम आई. ऐसे में भाई की याद बहुत आई. भाई बड़े पुत्र थे .दाह कर्म उनको करना था. मुझे करना पड़ा. बैंड वाले बहुत हीं Situational गीत की धुन बजा रहे थे -
बड़ी देर से दर पे आंखें लगीं थीं.
हुजूर आते आते बहुत देर कर दी.
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