सलाखों के पीछे दम तोड़ती जिन्दगियां.

जेल की अवधारणा क्यों और कैसे बनी?  इसके बारे में कुछ पता नहीं है. चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे. फिर जेल क्यों बनते? सम्राट अशोक के लिए अहिंसा परमो धर्मः था. मेरे विचार से जेल (कारागार) की अवधारणा सम्राट पुष्यमित्र शुंग से हुई थी. पुष्यमित्र शुंग वौद्ध सम्राट वृहद्रथ को मार गद्दी पर बैठा था. अश्वमेध यज्ञ में विजित राजाओं को कैद में रखने के लिए हीं जेल का निर्माण उसने कराया था .वैसे महभारत काल में जेल की जानकारी थी. कंस ने अपनी बहन और बहनोई को कैद में डाल रखा था.
वेटिकन सिटी ,जहां  न्याय तंत्र, पुलिस प्रबंधन सब है, परन्तु जेल नहीं है. वहां अपराध बहुत कम होते हैं .  यदि कैदी होते भी हैं तो उन्हें इटली के जेलों में रखना पड़ता है. भारत में तिहाड़ जेल में किरन बेदी ने आमूल चूल परिवर्तन किया था .आज तिहाड़ जेल एक आदर्श जेल बन गया है, जिसकी अक्सर मिसाल दी जाती है. भारत के शेष जेल आज अव्यवस्था और कुप्रबंधन के लिए जाने जाते हैं  . 67% विचाराधीन कैदी आज भारत के सभी जेलों में सड़ रहे हैं. न उन पर विचार होता है, न कोई निर्णय । उल्टा उन्हें खिलाने, पिलाने का अतिरिक्त खर्च सरकार को वहन करना पड़ता है.
भारतीय जेलों में बहुत से ऐसे कैदी हैं, जिनको 14 से 40 साल कैद में रहते हुए हो गये हैं, पर उन्हें अभी छूटने के फरमान का इंतजार है. कुछ कैदी इतने वृद्ध हो गये हैं कि अपने नित्य कर्म भी नहीं कर सकते. उनके हाथ पांव कांपते हैं. उन्हें बमुश्किल उठाया, बैठाया जाता है. ऐसे कैदी को यदि छोड़ भी दिया जाता है तो वे अपने आप अपने घर नहीं जा सकते हैं . इन सारे कैदियों को जेल में रखने के पीछे कौन सी मंशा या बुद्धिमता है?  समझ के परे है. उन वृद्धों को चिकित्सीय सुविधा मुहैय्या कराने के लिए बड़े अस्पतालों में ले जाया जाता है, जिनके बिल जेल प्रशासन को भरना पड़ता है . यदि समय से इनकी रिहाई हो जाती तो बहुत धन जन की बचत होती. आज जेलों में रहने की जगह नहीं है. यदि विचाराधीन कैदी, सजा काट चुके कैदी, वृद्ध व अशक्त कैदी छोड़ दिए जांय तो जेलों में रहने की कमी दूर हो जाय .
हर आदमी की दिली तमन्ना होती है कि उसकी मौत अपनों के बीच हो. मरते दम कोई अपना उसके मुंह में प्यार से एक चम्मच पानी डाले. उसके परिजन भी नहीं चाहेंगे कि उनका प्रिय व्यक्ति जेल में मरे और मरने के बाद उसके शरीर का चीरफाड़ पोस्टमार्टम के नाम पर किया जाय. लेकिन क्या किया जाय. संवेदनाएँ मर गयी हैं. आदमी एक वस्तु की तरह ट्रीट किया जा रहा है.बृद्ध कैदियों के प्राण अटके हुए हैं  . कोई सुनवाई नहीं.
जाने कब से थमा हुआ है,
बीच समंदर एक जहाज.
धीरे धीरे वह डूब रहा है,
थक हार कर जो आज.
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