कहां खो गई होली की वो मस्ती ?
आज होली है. रंगों का यह त्योहार कभी सामुदायिक पहचान रखता था. अब मात्र रस्म अदायगी रह गई है. इसे अभिजात्यता का दीमक चाट रहा है. लोग होली खेलना गंवार व पागलपन की निशानी मान रहे हैं. पहले वंसन्त पंचमी से हमारे पूर्वांचल में फगुआ गीतों की धूम मच जाती थी. लोगों के कपड़े लाल पीले हरे रंगों में साराबोर दिखाई पड़ने शुरू हो जाते थे. होली वाले दिन पहले कीचड़ गोबर, फिर रंग और बाद में गुलाल की होली होती थी. शाम को फगुआ गीतों की बहार आती थी. फगुआ टोली हर दरवाजे पर जाती थी, जहां उनका स्वागत ठंडाई (भांग के शरबत) , गड़ी, छुहारे से की जाती थी.
शहरों में भी ढोल, मजीरे पर फगुआ गीत गाए जाते थे. महामूर्ख सम्मेलन हुआ करते थे. "अब न रहे वो पीने वाले, अब न रही वो मधुशाला " की तर्ज पर यदि हम कहें कि "अब न रहे वो फगुआ गाने वाले, अब न रहे वो फगुआ गीत " तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. आजकल के जवानों को फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं. फगुआ गीतों के नाम पर फूहड़ भोजपुरी गीत होली वाले दिन बजाए जाने लगे हैं. लोग होली खेलने की बजाय टी वी पर होली देखना ज्यादा पसन्द करते हैं . इन्टरनेट पर होली देख, खेल और होली का मुबारक एक दुसरे को दे हम खुश हो लेते हैं .
जहां इतनी बुरी बातें हमने होली के बावत कर लीं ,वहां एक अच्छी बात यह है कि पहली बार वृन्दावन की विधवाओं ने (पिछली बार ) आपस में होली खेली . अब बुरी बात यह कि इन विधवाओं की आलोचना हो रही है. हजारों साल से सामुदायिक अछूत की श्रेणी में रखीं गईं इन विधवाओं ने आपस में होली खेलकर समाज के मुंह पर तमाचा जड़ा है.
चलते चलते हम भी फिर रस्म अदायगी कर लें.
होली मुबारिक कह एक दूजे की बन्दगी कर लें.
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