नइहर छूटो ही जाय ......
दिनांक 4 अप्रैल से 9 अप्रैल तक मेरा कोलकाता का प्रवास था. कोलकाता नगरपालिका के अंतर्गत हबड़ा और हबड़ा के अंतर्गत एक छोटा सा कस्बा बोटानिकल गार्डेन, जहाँ मेरा अधिकतर बचपन गुजरा. अम्बिका विद्यालय से दसवीं पास कर मैं आगे की पढ़ाई के लिए गांव चला गया था. मेरे पिता बोटानिकल गार्डेन में सुरक्षा प्रमुख थे. पिता खाकी वर्दी पर लाल पट्टा डाल रात के राउण्ड पर निकलते. यदि कोई गार्ड सोया हुआ मिलता तो उसकी लाठी व टार्च जब्त कर लेते थे. बाद में अनुनय विनय करने के बाद वे लाठी व टार्च वापस कर देते थे.
अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर अंग्रेजों ने कोलकाता के मटियाबुर्ज में रखा था. कभी कभी उन्हें हुगली नदी के पार के जंगल में हवा पानी बदली के लिए ले जाया जाता था. यहाँ की आबो हवा अंग्रेजों को इतनी पंसन्द आई कि उन लोगों ने यहां एक बाग हीं बना डाला. बाग का नाम ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम पर रखा "कम्पनी बागान ".
इसी कम्पनी बागान में पिताजी मुलाजिम हुए. उस समय अपने बड़े भाई के साथ पहुंचे पिता की उम्र इतनी कम थी कि अंग्रेज अधिकारी का कहना था कि इसे तो बागान का गीदड़ उठा ले जाएगा. दोनों भाई के नौकरी के दौरान बड़े भाई को कालरा हुआ ,जिससे उनकी असामयिक मौत हो गई. बड़े भाई श्याम सुन्दर ओझा की बचपन में हीं शादी हो गई थी. गवना नहीं हुआ था. उनकी पत्नी उर्फ मेरी बड़ी मां का देहान्त मेरे जन्म के काफी बाद सन् 1996 में हुआ . मेरे पिता के कम्पनी बागान के सुरक्षा प्रमुख बनने की कहानी भी दिलचस्प है. उस समय वरीयता क्रम में नारायण तिवारी आगे थे. पिता जी (राम कृष्ण ओझा) और नारायण तिवारी को एक चलती गाड़ी का नम्बर नोट करने के लिए कहा गया. पिताजी ने नोट कर लिया. एक साल बाद नारायण तिवारी को सेवानिवृत्ति पर जाना था, इसलिए पिता जी ने अपना नाम विड्रा कर लिया और उनके सेवानिवृत्त होने के बाद हीं सुरक्षा प्रमुख बने .
देश आजाद होने के बाद कम्पनी बागान का नाम बदलकर बोटानिकल गार्डेन रखा गया. इसमें तरह तरह के पेड़ लगाए गये हैं . कई किस्म की जड़ी बूटियां उगाई गईं हैं. शोध करने के लिए देश विदेश से बहुत से छात्र आते हैं. बोटानिकल गार्डेन आज लगभग 109 हेक्टेयर के क्षेत्र में फैला हुआ है, इसमें लगभग दस तालाब होंगें, जो हुगली नदी से जुड़े हुए हैं. हुगली नदी में ज्वार और भाटा के कारण इन तालाबों के पानी का स्तर कम या अधिक होता रहता है. इनमें खिले हुए कमल के फूलों का दृश्य काफी मनोहारी लगता है. ऐसे हीं किसी तालाब के किनारे बैठकर किसी कवि ने यह कविता लिखी होगी -
हजार पंखुड़ियां, हजार दल का हूं.
तिरता कमल हूं, बहुत हल्का हूं.
मत यह समझो कि जल में हूं ,जल का हूं,
नेह से तोड़ो तुम्हारे आंचल का हूं.
बोटानिकल गार्डेन में एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है ,जिसकी शाखाएं आज भी फैल रहीं हैं. खोखले बांस के सहारे इसकी जड़ों को जमीन में उतारा जाता है. मूल जड़ फफूंद लगने के कारण बहुत पहले नष्ट हो चुकी है, पर यह पेड़ लगातार लगभग पौने तीन सौ साल से फैल रहा है. इसकी फैलने की यही रफ्तार रही तो हो सकता है कि यह पूरे बोटानिकल गार्डेन को ढक ले . इस पेड़ का नाम गिनीज बुक में दर्ज है.
अपने पैतृक आवास में पहुँच कर मुझे बहुत खुशी हुई. बड़े भाई, भाभी, पोता, भतीजा ,भतीजी से मिलकर अवर्चनीय खुशी हुई, .जिस मिट्टी में हम पले, बढ़े ,उस मिट्टी से फिर से जुड़ने पर जो खुशी हासिल होती है, उसका वर्णन कोई भुक्तभोगी हीं कर सकता है. कई साथ के लोगों से मुलाकात हुई. कई लोग जिन्दगी की शाख से टूट गये थे. ऐसे भी कुछ लोग मिले, जो मेरे साथ बोटानिकल गार्डेन में आती पाती खेल चुके थे, अब रोग जनित कारणॊं से काफी वृद्ध हो चले थे.
दिनांक 7 की शाम को अपने पुत्र शशि शलभ ओझा के साथ बोटानिकल गार्डेन घूमने गया .काफी बदलाव पाया. अब बोटानिकल गार्डेन का नाम बदलकर "आचार्य जगदीश चन्द्र बसु भारतीय वनस्पति उद्दान " रख दिया गया था. प्रवेश करने के लिए दस रुपये के टिकट लेना अनिवार्य था. यदि कैमरा या मोबाइल ले जाना चाहते हों तो अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा. अंदर जाकर बहुत निराशा हुई. एशिया के दूसरे सबसे बड़े बोटानिकल गार्डेन के तालाब जल कुम्भियों से भरे पड़े थे. जिन तालाबों की सफाई हुई थी, उनमें कमल नदारद थे. पिता के समय का बोटानिकल गार्डेन नहीं था यह. चारों तरफ ऊंची ऊंची घासों का बोल बाला था. पहले घास बोटानिकल गार्डेन के कर्मचारी काटते थे, अब घास काटने के लिए टेंडर होता है. बावजूद इसके इस गार्डेन की हालत नवाब वाजिद वली शाह के समय का हो गया था. हमने और हमारे सुपुत्र ने चुनिन्दा अच्छी जगहों के स्नैप लिए.
9 तारीख की सुबह हमने चंडीगढ़ चलने के लिए अपने बड़े भाई से विदाई ली . वाजिद अली शाह की ठुमरी कानों में गूंज रही थी -
बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाय ...
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