जुगनू कभी रोशनी के मोहताज नहीं होते.

फेरीवाले हमारे समाज को जिंदा बनाए हुए हैं.इनमें समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों हीं समाहित हैं. माल संस्कृति इनका कुछ नहीं विगाड़ सकती. ये सुपर मार्केट एट होम हैं. क्या नहीं है इनके पास ? खाने पीने की चीजें, पहनने की चीजें, ऋंगार की चीजें -सभी कुछ तो आपको आकर घर पर दे जाते हैं ये. जब ढेर सारे लोग एक दूकान पर अपनी जरुरत के लिए जाएं  , वहीं एक आदमी ढेर सारे लोगों को उनके घर पर उनकी जरुरत की चीजें दे जाय तो कौन अच्छा है ? स्पष्ट तौर पर वह एक आदमी जो सबको सामान उनके घर पर दे जाय. अस्तु ,फेरीवाले हमारे दिल की धड़कन हैं.
माल से सामान खरीदने के वास्ते आपको घर से चलकर जाना होगा, पर फेरीवाला लगभग उसी कीमत पर घर आकर आपको वही सामान दे जाता है तो समय व परेशानी की बचत तो हुई न ? यही नहीं , ये सोशल गैप को भी भरते हैं. पेंशनयाफ्ता लोगों का इनसे मोल भाव करना, बातचीत करना एक वर्णनातीत सुख प्रदान करता है. अरे, तुम वहां के हो. अच्छा, वहां तो मेरी ससुराल है. फलां तिवारी को जानते हो?  जी, जानता हूं, वे मेरे टीचर रह चुके हैं, उनसे मैंने बहुत मार खाई है. जो सास अपनी बहुओं से लड़ नहीं पातीं तो वे अपना कोटा फेरीवालों से लड़कर पूरा कर लेती हैं. यदि ये फेरीवाले न हों तो बुजुर्ग व गृहणियाँ अवसाद ग्रस्त हो जाएं .
सुबह सुबह रद्दी बेच, पेपर बेच की आवाज आती है. यदि आपने उनसे पूछ लिया कि पेपर क्या भाव? रद्दी क्या भाव ? तो वे बहुत कम बताएंगें, मोलभाव कीजिए. सौदा पट भी गया तो वे पेपर रद्दी को तौलने को तैयार नहीं होंगें . हाथ से उठाकर अंदाज लगा कर बता देंगे ....kg. अरे भाई बाट तेरे पास, तराजू तेरे पास, तौलने में तेरा क्या घिस जाएगा ? बड़ी मुश्किल से बात बनती है आप एक लम्बा सांस राहत भरी लेते हैं -
तेरी मंजिल पर पहुंचना इतना आसां न था,
सरहद-ए-अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे.
मेरे मोहल्ले में एक फेरीवाला बांसुरी बजाते हुए आता है. वह गुब्बारे बेचता है. बांसुरी की आवाज सुनकर मेरे पोते महाशय मचल उठते हैं. अगर किसी दिन मुझे मैराथन रेस गेट तक लगाने में देर हो जाती है तो वह बांसुरी बजाते हुए निकल जाता है और पीछे छोड़ जाता है मेरे पोते का रोना धोना और मेरे लिए कई अनुत्तरित सवाल -
गये दिनों का सुराग लेकर,
किधर से आया, किधर गया वो.
अजीब मानुष अजनबी था,
मुझे तो हैरान कर गया वो.
फल बेचने वाले भी बहुत तंग करते हैं. कई तो इतने धृष्ट कि भरी दोपहरी में आपको घंटी बजाकर उठा देते हैं. मना करने पर कहेंगे कि अंकल जी, एक बार देख तो लो. पपीता है, आम, लीची, जामुन ....। आप उनके ठेले के पास उनींदी हालत में पहुंच जाते हैं. आप एक किलो कहोगे तो वह दो /ढाई की बात करेगा. कई बार तो मैं गुस्से में वजन किया हुआ फल छोड़कर आ जाता हूं. एक फल वाला तो ज्यादा हीं मुंह लगा हुआ था. एक दिन शाम के झुटपुटे में वह आया. कहने लगा, -"आंटी जी, रास्ते में मिलीं थीं, पार्क में घूमने जा रहीं थीं. कह रहीं थीं अंकल को पांच किलो मौसमी दे देना. मैं भी खुश कि आज श्रीमती जी इतनी दरियादिल कैसे हों गयीं कि इकट्ठे पांच किलो मौसमी का आदेश पारित कर दिया. अक्सर खराब होने के डर से एक दो किलो हीं मौसमी हीं हम लेते थे. मैंने मौसमी लेकर उसे भुगतान कर दिया. श्रीमती जी मौसमी देख भड़क उठीं .अधिकांश मौसमी खराब थीं. अंधेरे की वजह से मैं नहीं देख पाया था. वैसे भी उस फेरीवाले को इन्होंने मौसमी लेने के सम्बंध में कुछ नहीं कहा था. दुसरे दिन पता चला कि वह गांव चला गया है. उसने अपनी मौसमियों को ठिकाने लगाने के लिए हीं वह कवर स्टोरी तैयार की थी.
चंडीगढ़ के सेक्टर 17 का एक वाकया है, जिसका मैं खुद चश्मदीद था. मेरे सामने फूड इन्सपेक्टर ने फ्रूट चाट विक्रेता का खोमचा उलट दिया था. उसके जाने के बाद उसने वह चाट उठाई और फिर बेचने लगा. कितना अनहाइजेनिक था. इसी प्रकार से कुछ ठेले वाले चाट, पकौड़े, इडली, सांभर भी बेचते हैं. लोग खाते हैं. जूठे प्लेट एक बड़े बर्तन में रखे पानी में डुबोकर निकाल लेते हैं और एक गन्दे कपड़े से पोंछ पोंछ कर सुखा लेते हैं. यदि उस दौरान कोई सिपाही डंडा फटकारता पहुंच जाता है तो उसे भी उसी प्लेट में चाट परोस कर खुश कर दिया जाता है. गुड़गांव में मैंने एक पुलिस वाले को ठेले वाले से पैसे लेते हुए देखा है.
आज इस तरह के पेशे में लगभग एक करोड़ लोग शामिल हैं. उनकी कोई खास आमदनी नहीं होती. पुलिस वाले, सोसाइटी वाले अलग तंग करते हैं. जो हेराफेरी व धोखा ये फेरीवाले करते हैं, उसे आप यह मानकर चलें कि गरीब आदमी चांडाल का भी काम कर लेता है. संस्कृत की सूक्ति मानें तो, "बुभुक्षितं किं न करोति पापम् ।" अर्थात् भूखा व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता है. इतना तो तय है कि ये लोग मेहनतकश हैं और मेहनत की रोटी खाते हैं. बारह घंटे पसीना बहाते हैं तब रोटी नसीब होती है.
जब टूटने लगे हौसले तो ये याद रखना,
बिना मेहनत के तख्त औ ताज नहीं होते.
ढूंढ हीं लेते हैं अंधेरों में  मंजिल अपनी,
जुगनू कभी रोशनी के मोहताज नहीं होते.
No photo description available.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आजानुबाहु

ये नयन डरे डरे,,

औरत मार्च