ओरी तर ओरी रे तर बइठे बर रे नेतिया.

जब से मैंने होश सम्भाला तब से अपने गांव के घर खपरैल का हीं देखता आ रहा हूं. ये खपरैल मिट्टी के बने होते हैं. कुम्भकार मिट्टी को पैर से गूंथ कर उसे इस काबिल बनाता है कि वह खपरैल के सांचे में ढल जाए. इसे पूर्वांचल में खपड़ा कहते हैं. खपड़ा के दो प्रकार होते हैं -एक नरिया ,दुसरा थपुआ. थपुआ चौकोर होता है,जिसके आजू बाजू उठे होते हैं. नरिया एक अर्द्ध बेलनाकार खपड़ा होता है. नरिया और थपुआ को जिस भट्ठी में पकाया जाता है ,उसे आंवा कहते हैं.
बांस की बल्लियों का जाल मकान के ऊपर छत हेतु तैय्यार किया जाता है. उन पर ढोढ़ी (एक प्रकार का खर पतवार) विछा दी जाती है, जिसे रस्सियों की मदद से बांधा जाता है. फिर मिट्टी के सहारे एक थपुआ की पंक्ति लगाई जाती है.दूसरी पंक्ति मिट्टी के सहारे नरिया की लगाई जाती है. नरिया को औंधा कर रखा जाता है. इस कदर एक थपुआ एक नरिया की पंक्ति लगाते लगाते छत तैय्यार हो जाती है. खपड़ा (खपरैल) की छत वाले मकान काफी ठंडे होते हैं, जिससे गर्मियों में काफी राहत मिलती है. थपुआ नरिया वाले देशी खपरैल के अतिरिक्त इलाहाबादी, स्यालकोटी और मंगलौरी टाइल्स भी आती हैं, जिससे घरों की सुन्दरता बढ़ती है.
खपड़ा के छत काफी मजबूत होते हैं. येआंधी पानी को आसानी से बरदास्त कर लेते हैं. आदमी भी इस पर चढ़ जाए तो ये नहीं टूटते. शर्त ये है कि आदमी के पांव मात्र नरिया पर हीं पड़े. थपुआ पर पड़ने पर ये टूट जाएंगे. हमने भी बचपन में इन पर चढ़ खूब उधम मचाया है -
आन्हीं पानी आवेले,
              चिरैया ढोल बजावेले.
बन्दर मामा भी इन पर खूब उछल कूद करते देखे गये हैं. इस हालत में खपड़ा टूटता है, क्योंकि बन्दर महाशय को नरिया थपुआ का भेद नहीं मालूम. ऐसे में इन्हें भगाना हीं श्रेयस्कर होता है.
खपरैल के घरों में बांस की जाली और खपड़ा के मध्य थोड़ी खाली जगह बची होती है, उसमें पंडुक (कबूतर की एक प्रजाति) और गौरैया अपना घोंसला तैय्यार करते हैं. अंडे देते हैं, उन्हें सेते हैं, फिर उन अंडों से चूजे बाहर आते हैं. सुबह सुबह आपको अलार्म लगाने की जरुरत नहीं है. इन चिड़ियों का कलरव हीं काफी है.
धरन (Beam) के ऊपर का भाग आलतू फालतू सामानों के लिए होता है, जिसे पाटन (Attic floor) कहा जाता है. खपड़ा वाले घर की छत ढलान वाली होती है, ताकि वर्षा का पानी उस पर ठहर ना सके. यदि छत फ्लैट बनता तो उस पर पानी ठहरता, जिससे लीकेज की समस्या होती. इस छत की शुरुआती ढलान कम, पर अन्तिम छोर तक पहुंचते-पहुंचते यह ढलान तीक्ष्ण हो जाती है ताकि ढलान के साथ साथ बढ़ते पानी का आवेग अविलंब निष्कासित हो जाय. ढलान के अंतिम छोर को ओरि कहते हैं,जहां से पानी जमीन पर गिरता है. यह क्रिया ओरि चूना कहलाती है  .यदि ओरि आपकी जमीन में चू रही है तो ठीक, अन्यथा यदि दुसरे की जमीन में चू रही है तो वहां पर न्यूटन का नियम लागू होता है अर्थात् क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया. भयंकर मार पीट, बाद में थाना फौजदारी मुकदमे अलग से  .
अब खपड़ा के घर दुर्लभ होते जा रहे हैं .लोग आर सी सी की छत ढालने लगे हैं. खपड़ा बनाने वाले कुम्भकार अब रोजगार के लिए पंजाब, हरियाणा ,बंगाल, आसाम और महाराष्ट्र की तरफ रुख करने लगे हैं. जब खपड़ा के मकान हीं नहीं होंगे तो कुम्भकार क्या करेंगे? रोजी रोटी तो तलाश करनी होगी न? अपने गांव में मेहनत मजदूरी करके पेट पालते थे तो अन्यत्र भीख मांगकर भी गुजारा कर लेंगे.  एक किस्सा है -
देश चाकरी तो परदेश भिक्षा.
खपड़ा प्रसंग में यदि ओरि - गीत का जिक्र न आए तो खपड़ा -पुराण पूरा नहीं होगा. इसी खपड़े के मकान में रहकर एक बाप अपने जवान होती बेटी को देख दिन की भूख प्यास और रात की नींद हराम कर देता है. उसे बेटी के ब्याह की चिन्ता सताती रहती है .उसे चिन्तित देख पत्नी दिलासा देती है कि हमारी बेटी तो आंख की पुतली है ,उसकी शादी क्यों नहीं होगी? वह दिवा स्वप्न देखने लगती है  .ओरी के चारों ओर आंगन में पंगत बैठी है. लोग जिम रहे हैं. जब उसका पति आंख की उस पुतली (बेटी) को बाहर निकालता है तो उसकी सुन्दरता देख सज्जन लोगों को मूर्छा आ जाती है. दिवा स्वप्न देखते देखते हुए वह यथार्थ के धरातल पर उतरती है. कहते हैं कि कविता का जन्म हीं दुःख से हुआ है. हमारे आदि कवि वाल्मिकी की प्रथम कविता क्रौंच बध के बाद हीं प्रस्फुटित हुई थी.पत्नी भी एक मां थी. उसका दर्द भी अवर्चनीय था तो कविता तो स्वतः स्फूर्त निकलनी हीं थी. इस कविता में जो दर्द है, वह खपरैल के मकान के लिए हीं प्रासांगिक है. इस गीत में जो सम्वेदना है, वह पूर्वांचल के सभी सम्वेदना गीतों पर भारी पड़ता है -
दिनवा हरेलू हो बेटी भूखिया रे पियसिया,
रतिया हरेलू हो बेटी बाबा के रे निनिया,
तहरो बेटी हो बाबा आंखि के रे पुतरिया,
काढ़ ना ऐ बाबा तुहूं अापन रे पुतरिया,
का तूहूं सजन रे लोगवा गिरे ले रे मुरुछइया,
ओरी तर ओरी रे तर बइठे बर रे नेतिया.
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