अब हो रथ निरखत जात जटाई ...
मेरी मां जटायु की कहानी गा कर सुनाती थी. उस समय मेरी उम्र 5-6 के बीच होगी. एक दिन अति उत्साह में मां से मांग कर बैठा - चटाकी की कथा सुनाओ. माँ हैरान, परेशान चटाकी की कौन सी कथा होती है ? मैं अपनी जिद पर अड़ा कि चटाकी कथा होती है. चटाकी हमारे पूर्वांचल में खड़ाऊ की तरह एक उपानह होता है, जिसमें लकड़ी के आधार पर पांव को फंसाने के लिए चमड़े के स्ट्रेप लगे होते हैं. अब पांव मे पहनने वाली चटाकी की कौन सी कथा हो सकती है ? अचानक मां को याद आया, जटाई की कथा कहनी है? हां ,वही कथा, मैं खुश हो गया. मां ने सस्वर गा कर कहानी शुरू की -
अब हो रथ निरखत जात जटाई ...
जटायु गिद्ध जाति के 17वें प्रजापति महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी ताम्रा के वंश परम्परा में कई पीढियों के बाद उत्पन्न अरूण के पुत्र थे. एक बार जटायु और उसके बड़े भाई सम्पाति में होड़ लगी कि कौन सूर्य के सबसे निकट जा सकता है. जटायु काफी ऊपर तक जा पहुंचे थे. वे सूर्य की गर्मी से व्याकुल हो गए . यह देख सम्पाति ने जटायु के ऊपर पंख तान उन्हें कुछ आराम पहुंचाने की कोशिश की,पर इस क्रम में सम्पाति के पंख झुलस गये. इसी बीच जटायु को मौका मिल गया नीचे आने का. सम्पाति पंख विहीन हो सागर तट पर जा गिरे. जटायु ने बड़े भाई को खोजने की काफी कोशिश की, पर सब व्यर्थ हुआ. जटायु निराश हो घर लौट गये. सम्पाति का पुत्र सुपार्श्व उन्हें खोजने में सफल हुआ. सुपार्श्व उन्हें उठाकर एक गुफा में ले गया.अब हर दिन उन्हें भोजन मुहैय्या कराना सुपार्श्व की जिम्मेदारी व दिनचर्या हो गई.
जटायु की मुलाकात राम से पंचवटी के रास्ते में हुई. जटायु राम के पिता दशरथ के पुराने मित्र थे, जिन्होंने शनि के साथ हुए युद्ध में दशरथ की मदद की थी. जटायु ने राम लक्षमण की प्रतिकृति में दशरथ की छवि देख उन्हें पहचान गये. बाल्मीकि रामायण के अनुसार जटायु ने राम लक्षमण से कहा - वत्स आप लोग मुझे अपने पिता का मित्र समझो.
उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मनः ।
जब आप लोग पंचवटी के पर्ण कुटीर से सीता को छोड़ बाहर जाओगे उस समय मैं सीता की रक्षा करूंगा.
सोडहं वाससहायस्ते सीतां च तात रक्षिष्ये त्वमि याते सलक्षमणे ।
अपना दिया हुआ बचन जटायु ने मरते दम तक निभाया . उनको पता था कि वे रावण से जीत नहीं सकते ,फिर भी नारी की अस्मिता के लिए वे जी जान से लड़े और रावण जैसे परम पराक्रमी के शरीर को क्षत विक्षत कर उसके सारथि को मार दिया. सीता को रथ से उतार लिया. उसी समय रावण ने जटायु के एक पंख काट लिए .सीता को रथ पर पुनः बिठा लंका के लिए चल पड़ा.
राम लक्षमण के आने पर जटायु ने उन्हें पुरी बात बताई. राम के गोद में हीं उनके प्राण पखेणु उड़े. राम ने अपने पिता के मित्र का विधिवत् गोदावरी के तट पर दाह संस्कार किया. किष्किन्धा पर्वत पर बानर राज सुग्रीव से मुलाकात के बाद राम लक्षमण ने सीता का पता लगाने के लिए एक टीम भिजवाई. इस टीम की मुलाकात जटायु के भाई सम्पाति से हुई, जो गुफा में अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था. जटायु की मृत्यु की खबर सुन सम्पाति बहुत दुःखी हुआ. सम्पाति ने भी अपने पुत्र सुपार्श्व से सुनी बातों के आधार पर सीता का पता बताने में मदद की. बाद के दिनों में सम्पाति के पंख ठीक हो गये थे.
जटायु के त्याग से अभिभूत हो छत्तीस गढ़ में जटायु का पहला मन्दिर बना था. दूसरा मंदिर ग्वालियर में बना है, जिसमें प्राण प्रतिष्ठा 11अप्रैल सन् 2016 को हुआ है . इस मंदिर के निर्माण के पीछे जटायु के नारी अस्मिता बचाने से प्रेरित हो "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ. " की असल मंशा है. इसी प्रकार केरल के कोल्लम जिले के चदयामंगलम गांव में जटायु के नाम पर " जटायु नेचर पार्क " बना है,जिसमें जटायु का बहुत बड़ा स्कल्पचर तैयार किया गया है. 1जनवरी सन् 2016 से इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया है. कहते हैं कि यहीं पर जटायु का रावण से युद्ध हुआ था.
आज पूरे भारत वर्ष से गिद्धों का अंत हो चुका है. जटायु की कहानी कहने वाली मेरी मां भी अब इस दुनियां में नहीं हैं, पर जटायु मरकर भी अमर हैं. उनकी कृतित्व आज भी रामायण, लोकगाथाओं के माध्यम से लोगों के जेहन में ताजा है. आज भी मेरी मां की स्वर लहरियां फिजाओं में गूंज रहीं हैं -
अब हो रथ निरखत जात जटाई,
चोंचन मारि महायुद्ध किन्हों ;
रथवा से लेत उतारी.
अब हो रथ ....
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