भाई बलराम का गुजर जाना.

मेरे पिता अपने किशोरावस्था में हीं कलकत्ता के हबड़ा स्थित (कम्पनी बागान )बोटानिकल गार्डेन में मुलाजिम हो गये थे. उनकी बड़ी संतान का नाम बलराम था. बलराम के बाद एक पुत्री पैदा हुई. नाम रखा गया -रामकेश्वरी. पहले जब परिवार एक था तो मां और बड़ी मां गांव पर हीं रहते थे. बड़ी मां बाल विधवा थीं . पिता के चचेरे भाई रामसुंदर ओझा को ये मुगालता हो गया कि यह परिवार उन पर बोझ बन रहा है. हांलाकि पिता हर माह मनीअार्डर भेजते थे. चचेरे भाई ने पिता को अलग कर दिया.
पिता अलग होकर बहुत दुःखी हुए थे. भित्ती (मिट्टी) का एक घर हिस्से में मिला. उस रात घर में खाना नहीं बना. पिता सहन (बैठक) में चुपचाप लेटे थे तो मां और बड़ी मां घर में. पिता की परेशानी यह थी कि हबड़ा में उनके पास जमीन तो थी ,पर अभी घर नहीं बना था .इसलिए वहां पूरे परिवार को नहीं ले जा सकते थे .यदि घर पर छोड़ते तो दोनों औरतें बिल्कुल पर्दानसीं थीं .आग पानी के लिए भी बाहर नहीं निकल सकतीं थीं .कहते हैं कि विपत्ती आती है तो अकेले नहीं आती. बड़ी मां के भाई को जब पता चला कि अलग हो गये हैं तो वे आकर उसे अपने घर ले गये. अब मां अकेली रह गई. कौन बच्चों को सम्भाले ?
बड़ी मां जब बच्चों को सम्भालती तो मां खाना बनाती .ऐसे में संकट मोचक के रूप में भाई बलराम उभरे. वे खुद अपना व बहन का ख्याल रखने लगे. बहन को कनस्तर पीट पीट कर खिलाने लगे. पड़ोस की स्वर्गीय राम मुनि पांडेय की पत्नी सुबह शाम दो दो बाल्टी पानी घर पर दे जाने लगीं. अब पिता आश्वस्त हो अपने काम पर चले गये.
एक या दो साल बाद पिता ने बोटानिकल गार्डेन में अपना मकान बना लिया और मय परिवार सहित वहां रहने लगे. भाई बलराम अब बड़े हो गये थे. साईकिल का डंडा पकड़ कैंची साईकिल चला लेते थे. सिर पर स्टाइल के तौर पर या धूप से बचाव के लिए रूमाल बांध लेते थे. फुटबाल खेलने लगे थे. एक बार फुटबाल झाड़ में जा अटकी. भाई निकालने जा रहे थे. राम संहु तिवारी ने डांटा, " मत जाओ, झाड़ में सांप होंगे. " भाई ने बेपरवाह होकर कहा था - "एक दिन तो जाना ही हैं , क्या बुरा है कि वो दिन आज हीं आ जाय." नौ दस साल के बच्चे का यह दार्शनिक अन्दाज तिवारी को प्रभावित कर गया . भाई बहिर्मुखी थे. वे उसी उम्र में सबसे बेझिझक बात कर लेते थे. हमारे पड़ोस की लड़की कवला जब दिंवगत हुई तो उसकी मां दिन रात रोती रहती थी. भाई उसके घर जा उस औरत को ढाढस बधाते, "ए कवला के माई ! एक दिन त सबको मरना है. कोई अमर हो के नहीं आया है. अर्जुन भीम जैसे वीर बलवान को भी इस दुनिया से जाना पड़ा है. "
पिता का स्वभाव औघड़ दानी सा था. साधु लोगों की संगति में अक्सर रहा करते थे. आए दिन घर में साधु संत का मेला लगा रहता था. खाना पीना लगा रहता. एक और भाई का घर में आगमन हो गया था. नाम बलराम से मिलता जुलता रखा गया हरेराम. घर का खर्चा बढ़ रहा था. बहन की शादी के लिए भी रूपया जोड़ना था. गांव पर भी भित्ती के मकान की जगह पक्का मकान बनाना था. पिता की फिजूल खर्ची मां को अच्छी नहीं लगती. कई बार पिता से मां की लड़ाई हो जाती. ऐसे में भाई मां को समझाते, " माई ! तू चिन्ता मत कर, मुझे पढ़ लिख कर बड़ा होने दे. मैं अच्छी नौकरी करूंगा. फिर गांव का घर मैं बनवाऊंगा. बबुआ के लिए भी एक छोटी कोठरी बनवाउंगा. है न बबुआ ? " बबुआ (हरेराम) तब बहुत छोटे थे. केवल हूं कह कर चुप हो जाते. मां का भी सारा तनाव दूर हो जाता.
मेरे पिता बहुत हीं गुस्सैल स्वभाव के थे. एक बार उन्होंने कभी किसी बात पर भाई की पिटाई कर दी . भाई रोते रोते सो गये थे. मां ने जब उन्हें खाने के लिए उठाया तो उनके चेहरे पर आंसुओं के दाग थे. माँ ने जब पूछा तो उन्होंने कुछ बहाना बना दिया  ,पर बाद में असलियत का पता चला. भाई के जाने के बाद पिता ने हम भाई बहन को दूब की छड़ी से भी कभी नहीं छुआ.
उन दिनों कालरा का प्रकोप हुआ था. भाई को भी कालरा हो गया. भाई पानी की मांग करते रहे, पर नीम हकीम खतरे जान जैसे लोगों ने इस विना पर पानी नहीं दिया कि नुकसान करेगा. भाई को हास्पिटल में भर्ती कराया गया. तब तक लेट हो चुका था. भाई घर नहीं लौटे. लौटी उनकी लाश. पिता को कुछ लोग पकड़े हुए थे. पिता जोर जोर से चिल्ला कर रो रहे थे. मां तो बिल्कुल पागल हो उठी थी . कई दिनों तक भरी बाल्टी भी उसे खाली नजर आती. पिता से कहती पानी ले आइए.
भाई के शव का गंगा लाभ कर दिया गया. पहले दस साल से कम बच्चे को जलाया नहीं जाता था. श्राद्ध कर्म भी नहीं हुआ .वर्तमान बड़े भाई (हरेराम)के जनम के आठ साल बाद मेरा जनम हुआ. होश सम्भालने के बाद मैंने मां को अक्सर भाई को याद कर रोते हुए देखा. मां चाहती थी कि भाई का श्राद्ध कर दिया जाय. मेरे पास उसने उत्तर काशी में इस सम्बन्ध में पत्र भी लिखा था. मैंने जब पंडित से चर्चा की तो उनका कहना था कि अब तक तो पुनर्जन्म होकर अगले जन्म की तैयारी चल रही होगी. अब श्राद्ध कर्म करने का कोई औचित्य नहीं है. वैसे भी छोटे बच्चों का श्राद्ध कर्म का हमारे यहां रिवाज नहीं है.
सन् 2007 / 08 के लगभग हमारे भाई गया जी गये थे. सभी पुरखों के नाम से पिंडदान किया. भाई बलराम के नाम का भी पिंडदान किया. मेरा मानना है कि दूर कहीं बादलों की अोट से छुपकर मां यह कृत्य और दृश्य देखकर बहुत खुश हुई होगी.
     - इं एस डी ओझा
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