अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं ....
रघुपति सहाय फिराक की तुलना अक्सर मिर्जा गालिब से की जाती है . इसमें कोई दो राय नहीं कि फिराक बीसवीं सदी के महान् शायर थे और गालिब जैसे शायर के समक्ष कभी भी उन्नीस नहीं ठहरे.लेकिन एक अंतर दोनों में यह था कि गालिब अपनी गजलों के कारण चर्चा में रहे तो फिराक अपनी गजलों की वजह से कम अपने साथ जुड़े विवादों से ज्यादा चर्चा में रहे. कुछ लोगों का मानना था कि फिराक को विवादों में रहने की आदत थी. बाज दफा फिराक विवादों को स्वयं हवा देते थे.
फिराक गोरखपुरी इलाहाबाद विश्व विद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर थे .वे हिन्दी के छायावादी कवियों को हरदम नीचा दिखाने की कोशिश में रहते. वे अक्सर जब हिन्दी विभाग से होकर गुजरते तो हिन्दी वालों को चिढ़ाने के लिए अंगूठा ऊपर कर "उतुंग शिखर " जोर जोर से बोलते जाते. सुप्रसिद्ध आलोचक डा. रामविलास शर्मा से उनकी कभी नहीं पटी. दोनों एक दुसरे को धोती प्रसाद व सुथना सहाय कहा करते थे. फिराक निराला से डरते थे. जब निराला का गुस्सा बेकाबू हो जाता था तो वे बोल उठते थे ,"सारे! कहे देता हूं अब ज्यादा छायावाद पर बोला तो तेरी खैर नहीं ...." पंत शरीफ थे अपनी आलोचना सुन लेते थे.
एक बार किसी मुशायरे में फिराक को काफी देर बाद गजल पढ़ने के लिए बुलाया गया. फिराक साहब ने अपना गुस्सा कुछ इस तरह प्रकट किया, "हजरात! अब तक आप कव्वाली सुन रहे थे, अब गजल सुनिए. "
फिराक में ड्रेस सेन्स बिल्कुल नहीं था. बाल बिखरे, नाड़ा लटका हुआ, कुर्ते के बटन टूटे हुए, जो कि कभी कभी उनके बहुत काम आता था. एक बार फिराक ने अपने सहपाठी रहे अमरनाथ झा के बारे में कुछ लोगों के सामने ऊल जुलूल बक दिया. बाद में फिराक डर गये.अमरनाथ झा अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष थे और फिराक थे उनके मातहत । कहीं उन लोगों ने यह बात बता दी तो मुश्किल हो जाती .दुसरे दिन फिराक अलमस्त हालत में अमरनाथ झा के केबिन में जा पहुंचे. झा ने डांट पिलाई. फिराक साहब ढंग से कपड़े तो पहन लिया करो. फिराक बोले, " दोस्तों के पास आने में ड्रेस क्या देखना? मैं पीठ पीछे क्या ? आपको मुंह पर भी आपको गाली दे सकता हूं." अमरनाथ झा को कहना पड़ा, " All right, I know, I know , you are my friend. " फिराक किला फतेह कर आ गये.
IAS की नौकरी छोड़ फिराक आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे. डेढ़ साल की सजा काटकर जब वे जेल से बाहर आए तो नेहरू जी ने उन्हें कान्ग्रेस का अवर सचिव बना दिया .जब नेहरू विदेश गये तो फिराक ने अवर सचिव की नौकरी छोड़ दी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर बन गये. वे नेहरू से काफी प्रभावित थे. उनका कहना था कि भारत में मात्र ढाई लोग अंग्रेजी जानते हैं -सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन, रघुपति सहाय फिराक और आधे में नेहरू का नाम बताते थे. नेहरू से उनका सम्पर्क काफी दिनों से टूटा हुआ था.यह बात उनको नागवार गुजरी. फिर क्या था ? हो गया आलोचनाओं का दौर. "देखो, कैसा प्रधान मंत्री है ? इतना भी मेरे लिए नहीं करता कि मैं आराम से रोटी पर लहसन की चटनी रखकर खा सकूं. " जब फिराक को साहित्य अकादमी पुरुष्कार खुद नेहरू ने अपने हाथों से दिया और कहा कि मुबारक हो फिराक साहब , आप तो बहुत बड़े साहित्यकार हो गये तो फिराक का सुर बदल गया -"मैं तो गुस्से में बोल गया था, नेहरू की बात हीं कुछ और है. "
फिराक की शादी एक सामान्य युवती से हुआ था. किशोरी नाम था .पत्नी को उन्होंने कभी पसन्द नहीं किया. बात बे बात वो अपने दोस्तों से उनकी शिकायत किया करते थे. मिर्च का अचार गोरखपुर से लाना वो भूल गयीं थीं. फिराक साहब ने उन्हें बैठने भी नहीं दिया और उसी समय उनको बैंरंग वापस कर दिया . बेचारी इलाहाबाद से गोरखपुर गईं और मिर्च का अचार लाईं. बाद के दिनों में किशोरी जी ने भी बोलना शुरू कर दिया था. "यदि मैं सुन्दर नहीं हूं तो तुम भी अपना थोबड़ा देखो. "
फिराक साहब की दो पुत्रियां थीं. वे अच्छे घरों में ब्याहीं गई थीं. एक बेटा था - गोबिन्द. गोबिन्द आत्म हत्या के इरादे से रेलवे लाइन पर गया था. वहां मरा नहीं. कुछ लोग उठा कर वापस लाए. उसके दोनों पैर कट गये थे. कुछ दिन जिन्दा रहा. फिर मर गया. उसके आत्महत्या की वजह फिराक में ढूंढी गई.
फिराक साहब फक्कड़ मस्तमौला किस्म के इन्सान थे. कुछ भी बचा कर रखना उनकी फितरत नहीं थी. उनके यहां साहित्यकारों का जमघट लगी रहती थी. पीने पिलाने व खाने का दौर चलता रहता था. साठी का चावल ,अरहर की दाल व आलू का चोखा फिराक का पसंदीदा भोजन था .उनकी सारी तनख्वाह इसी में खत्म हो जाती थी. यहां तक कि रिटायरमेंट के समय तक वे एक अदद मकान भी नहीं बना पाए थे. रिटायरमेंट के बाद विश्वविद्यालय परिसर का मकान खाली करने का उन्हें नोटिस मिला. फिराक पहुंचे कुलपति के पास, "सर, आप मुझे इतना बता दें कि मैं अपना सामान कहां रखूं ?" कुलपति ने कहा,"कोई बात नहीं, फिराक साहब जब तक कुछ बन्दोबस्त नहीं हो जाता, तब तक आप मकान अपने पास हीं रखें ." फिराक उस मकान में जीवन पर्यन्त बने रहे.
फिराक का अंतिम समय कष्टप्रद रहा. किशोरी देवी से उनकी पहले नहीं पटती थी. रिटायरमेंट के बाद वे अपने मायके रहने लगीं थीं. फिराक उनको नियमित खर्च भेजते रहते थे. कभी कभी किशोरी देवी इलाहाबाद आ कर उनके साथ रह लेती थीं. अपने अंतिम दिनों में फिराक ने एक गजल लिखी थी -
अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं,
यूं हीं लब कब खोले हैं.
पहले फिराक को देखा होगा,
अब तो बहुत कम बोले हैं.
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