आइए , लामाओं की भूमि लद्दाख चलें

मैं 23 सितम्बर सन् 1980 को श्रीनगर से लेह ,लद्दाख के लिए स्थान्तरण पर चला. बस सोन मर्ग से आगे जब जोजीला पास पर पहुंची तो मुझे बरबस संकट मोचक हनुमान जी का स्मरण हो आया -संकट कटे,  मिटे सब पीरा, जो सुमिरे हनुमत बल बीरा. बल खाती पहाड़ी कच्ची सड़क पर हिचकोले लेती बस ,दुसरी तरफ गहरी खाई . सावधानी हटी, दुर्घटना घटी . जोजीला पास पर हीं हमने कैप्टन मोड़ देखा. आर्मी के कैप्टन साहब की गाड़ी इसी मोड़ से खाई में गिरी थी. जोजीला छः माह के लिए बन्द हो जाता है. बर्फबारी यहां पर इतनी हो जाती है कि सड़क लैण्ड स्लाइड के कारण जगह जगह टूट जाती है. इसलिए इसे बंद करना पड़ता है. जब छः माह बाद गर्मियों में सड़क मरम्मत के बाद खोलनी होती है तो कैप्टन साहब की पत्नी को विशेष तौर पर बुलाया जाता, जो गाड़ियों को हरी झंडी दिखा उन्हें रवाना करतीं थीं.
जोजीला से आगे सड़क ठीक थी. अब हम प्रकृतिस्थ हुए. हमारी बस में कुछ विदेशी मर्द औरत भी बैठे हुए थे. वे आपस में अंग्रेजी के शब्द बनाने का खेल खेलने लगे. एक कोई अक्षर बोलता, दुसरा कोई और इस तरह एक शब्द बन जाता. "लोग मिलते गये, कारवां बनता गया " की तर्ज पर हम कह सकते हैं कि अक्षर मिलते गये और शब्दों का कारवां चलता रहा. हम भी उनके इन शब्दों के खेल में रम गये. तभी लामायेरू आ गया. विदेशी लामायेरू गोम्फा का चित्र लेने लगे. कहते हैं कि इस गोम्फा में थोड़े से पैसे देकर आप भोजन व आराम दोनों फरमा सकते हैं. लामायेरू के बाद सफर अत्यंत आरामदायक रहा. द्रास होते हुए हम कारगिल पहुंचे. कारगिल में 90%आबादी शिया मुसलमानों की है. 10% में बौद्ध, हिंदू और अन्य धर्मावलम्बी आते हैं. शेष पूरे लद्दाख की धरती पर बौद्ध हीं बौद्ध हैं. थोड़े बहुत ईशाई, मुस्लिम और हिन्दू होंगे.
कारगिल में हमारा ट्रांजिट कैम्प था, पर हमने वहां न जाकर होटल में हीं रूकने का निर्णय लिया. आई टी बी पी के हम तकरीबन 5/6 लोग थे.इतने सामान से लदे फदे दो किलोमीटर ट्रांजिट कैम्प जाना और अलसुबह फिर वापस आना, तर्कसंगत निर्णय नहीं होता. होटल के कमरे में ठंड पसरी थी. इतनी ठंड मैंने पहली बार देखी थी. मैं जब स्लीपिंग बैग में घुसा तब जाकर राहत मिली और नींद आई. सुबह फिर तैयार हुए. बस तैयार खड़ी थी. सब बैठ गये, पर एक विदेशी लड़की नहीं आई थी. उसी का इंतजार था. देखा तो जाना कि वह होटल का फोटो खींच रही है. भागते भागते वह आई. किसी ने कुछ शब्दों की हेरा फेरी वाली चुहल की. एक ठहाका गूंजा और बस चल पड़ी.
दोपहर के बाद बस जलेबी मोड़ पर पहुंची. ऊपर से देखने पर मोड़ जलेबी की तरह टेढ़े मेढ़े लग रहे थे . विदेशी महिलाएं इस खूबसूरत नजारे को अपने कैमरे में कैद करने लगीं.वे काफी खुश थीं. उनके पुरूष दोस्त इस काम में उनकी मदद कर रहे थे. बस जलेबी मोड़ों को काटती चल पड़ी. मेरी जान सांसत में पड़ी. पेट्रोल बचाने के लिए ड्राइवर ढलानों पर बस को न्यूट्रल गियर में डाल देते हैं. भगवान भगवान करते हुए हम खालसी  पहुंचे. वहां गरम गरम दाल चावल खा एक ताजगी का एहसास हुआ. आधा घंटा रूक हम अगले गन्तब्य लेह की तरफ चल पड़े.
यहां बस सिन्धु नदी के साथ साथ चल रही थी. ठंड बढ़ती जा रही थी. आक्सीजन की कमी के कारण काफी थकान लग रही थी. ठंडी हवाएं पारका कोट में छेद कर रहीं थीं. रात का अंधेरा गहराने लगा था . तभी टायर ब्रस्ट होने की आवाज आई. ड्राइवर व खलासी उतर स्टेपनी लगाने लगे. सब लोग बस से उतर अलग अलग समूहों में बट गये. जाहिर है, हम आई टी बी पी वालों का भी एक ग्रुप बना. सभी लोग उस समय टायर फटने की  उस मनहूस घड़ी को कोस रहे थे. आधा घंटा में टायर लगा. बस चलने को तैयार हुई. किसी पंजाबी ने टेर लगाई -बोले सौं निहाल, सत् श्री अकाल. सभी ने समवेत स्वर में साथ दिया. विदेशियों ने भी आवाज का दामन पकड़ा. कुछ अन्दाज से, कुछ बेबाकी से अंतिम शब्द पर जोर दिया -अकाल. बस चली . रात के दस बजे हम लेह पहुंचे. आई टी बी पी की गाड़ी इंतजार कर जा चुकी थी. हम सभी ने आई टी बी पी कैम्प के लिए टैक्सी ली. कैम्प पहुंच, जिसको जहां जगह मिली. वहीं फ्लैट हो गया. मुझे रशियन हट में एक चारपाई खाली मिली. मैंने मेट्रेस विछाया और स्लीपिंग बैग में घुस गया. इतना थके होने के बाद किस मरदूद को रात के खाने की चिंता होती .
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